प्रणव प्रियदर्शी
बीते बुधवार 7 सितंबर को एक बार फिर दिल्ली दहल उठी। जैसा कि होता आया है; घटना के बाद नेताओं का मिमयाना और जांच का प्रभार सुरक्षा एजेंसियों पर थोप देना, यही हुआ। मृतकों और घायलों के लिए अलग-अलग मुआवजे की घोषणा की गयी। संदिग्धओं के स्केच जारी कर विस्पोट का सुराग देनेवालों के लिए पांच लाख रुपये इनाम की घोषणा कर दी गयी। बस और क्या! हो गयी जिम्मेदारियों की इतिश्री। यही तो है शीर्ष पर बने रहने के कायदे, कर्तव्य या फिर नुकसान कहें। तोते की तरह रटे-रटाये संवेदना और सहानुभूति के शब्दों से जनाक्रोश को मोड़ने की हुनर कोई इनसे सीखे! इतने से काम न चले तो कुछ अटपटा बयान देकर सुर्खियों में बने रहें। इससे ज्यादा इस देश में होता है कुछ? मेरी बातों पर यकीन न हो तो अभी तक जो होता आया, उसी का पुनरावलोकन कर लें।
बीते बुधवार 7 सितंबर को एक बार फिर दिल्ली दहल उठी। जैसा कि होता आया है; घटना के बाद नेताओं का मिमयाना और जांच का प्रभार सुरक्षा एजेंसियों पर थोप देना, यही हुआ। मृतकों और घायलों के लिए अलग-अलग मुआवजे की घोषणा की गयी। संदिग्धओं के स्केच जारी कर विस्पोट का सुराग देनेवालों के लिए पांच लाख रुपये इनाम की घोषणा कर दी गयी। बस और क्या! हो गयी जिम्मेदारियों की इतिश्री। यही तो है शीर्ष पर बने रहने के कायदे, कर्तव्य या फिर नुकसान कहें। तोते की तरह रटे-रटाये संवेदना और सहानुभूति के शब्दों से जनाक्रोश को मोड़ने की हुनर कोई इनसे सीखे! इतने से काम न चले तो कुछ अटपटा बयान देकर सुर्खियों में बने रहें। इससे ज्यादा इस देश में होता है कुछ? मेरी बातों पर यकीन न हो तो अभी तक जो होता आया, उसी का पुनरावलोकन कर लें।
हमारी मूक एजेंसियां, विफल खुफिया
तंत्र और नेताओं की चाकरी में चौबंद पुलिस महकमा कुछ की गिरफ्तारी करेगा,
कुछ से पूछताछ और फिर सब कुछ भविष्य की रेत में समा जायेगा। कम-से-कम बीते
वर्षों का लेखा-जोखा तो इतना ही है, जिसमें एक भी आतंकी घटनाओं के तह तक
पहुंचने में हमारा सुरक्षा तंत्र नाकामयाब दिखा है। जब तक अतीत की
समस्याओं की नब्ज टटोल कर उसका कारगर समाधान नहीं किया जाता है, तब तक
समस्याएं अपने-आप को दुहराती रहती हैं। हम अभी तक आतंकी समस्याओं को दबाते
रहे हैं। अपनी सौहार्दपूर्ण छवि का हवाला देकर किंकर्तव्यमूढ़ हो बैठ जाते
हैं। इसी कमजोरी का फायदा हमारे आंतरिक और बाह्य षड्यंत्रकारी उठाते हैं।
फिर भी हम अपनी छवि पर गर्व से फूले नहीं समाते। हम क्यों यह भूल जाते हैं
कि आततायियों को कुचलने के लिए हमारे देश में भी महाभारत जैसे भीषण
संग्राम हुए हैं। न जाने कितनी बार दुष्टों के दलन के लिए हमारे पूजित
देवता अवतार लिए। यहां तक कि कूटनीतिक तरीके अपनाने में भी पीछ नहीं रहे।
दरअसल, हमारी छवि एक कायर और कमजोर मानसिकता की ओर अग्रसित होती जा रही
है। नहीं तो क्या मजाल कि एक बार दहशत फैलाने के बाद बार-बार ईमेल से धमकी
दी जा रही है। अगले मंगलवार को किसी शॉपिंग मॉल में विस्फोट की चेतावनी
देकर सुरक्षा एजेंसियों की नींद और हराम कर दी है। पहले ही अंधेरे में हाथ
पैर मार रहीं लाचार जांच एजेंसियां और ज्यादा भ्रमित दिख रही हैं। कभी
घटना की जिम्मेदारी हरकत-उल जेहादी(हूजी) लेता है, तो कभी इंडियन
मुजाहिदीन जैसे संगठन। अफसोस कि भारत पर हमले की जिम्मेदारी लेने के लिए
भी होड़ मचती है।
संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को
सिर्फ मौत की सजा सुनायी गयी है, अभी मौत नहीं हुई है। लेकिन, इस निर्णय
के बदले में ताजे आंकड़े के अनुसार ग्यारह लोगों की जान ले ली गयी है। 86
घायल हैं, जिनमें 15 की हालत गंभीर बनी हुई है। बदले की यह कैसी भावना है?
प्रधानमंत्री कहते हैं यह कायराना हरकत है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है?
क्या आतंकवादी संगठन अपने-आप को कायर मान लेते हैं? वे तो हमें कायर समझ
कर अपने मनसूबे को बेखौफ पूरा करते हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यह भी
कहते हैं कि हम कभी आतंकवाद के सामने घुटने नहीं टेकेंगे, बल्कि उसका उचित
तरीके से जवाब देंगे। इस ‘उचित’ शब्द का उनकी नजरों में क्या मायने है, ये
वह ही समझें। इस घटना में जिनकी जान गयी है, उनके परिजन ही इस शब्द के सही
मायने बतायेंगे। घटनास्थल का दौरा करने के बाद जांच की जिम्मेदारी
राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए) को सौंप दी गयी है। सरकार के सबसे मुखर
चेहरे यानी गृह मंत्री पी. चिदंबरम के पास जनता को सुरक्षा का भरोसा
दिलाने के लिए इसके सिवा अब शब्द नहीं बचे हैं। केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत
सहाय ने एक बड़े पते की बात कही है कि लोग अब जीने के आदी हो चुके हैं।
उन्होंने कहा कि मुंबई में विस्फोट के बाद भी लोग काम पर गये थे। दिल्ली
में भी धमाके के दूसरे ही दिन कोर्ट चलती रही। लोग आदी हों या न हों,
सुबोधकांत तो जरूर आदी हो चुके हैं। अकारण नहीं है कि वह मुंबई विस्फोट के
वक्त फैशन शो देखने में मशगूल थे। निडर होकर काम पर लौटना मुंबई और दिल्ली
की जिंदादिली जरूर है, पर अमानवीय घटना के प्रति आक्रोश और विरोध न होना,
उसे एक रुटीन की तरह लेना; हमारी सूखती संवेदना का परिचायक है। इससे खतरे
कम नहीं हो जाते, समस्याएं खत्म नहीं हो जाती, बल्कि और वीभत्स रूप लेकर
सामने आती हैं। जिस तरह घटना के तार सीमा पार से लेकर देश के भीतर विभिन्न
राज्यों से जुड़ रहे हैं, उसी तरह हमारी संवेदनाओं के तार भी जुड़े होते
हैं। इस्रायली कवि येहुदा अखिमाई की एक कविता ‘बम का दायरा’ याद आ रही है-
‘तीस किलोमीटर था बम का व्यास/और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक/चार लोग
मारे गये, ग्यारह घायल हुए/इनके चारों तरफ एक और बड़ा घेरा है – दर्द और
समय का/दो अस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए/लेकिन वह जवान और जो दफनायी
गयी शहर में/वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर दूर आगे कहीं/वह बना देती है घेरे
को और बड़ा/ और वह अकेला शख्स जो समंदर पार किसी देश के सुदूर किनारों
पर/उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था-समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे
में/और मैं अनाथ बच्चों के उस रूदन का जिक्र तक नहीं करूंगा/जो पहुंच
जाता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक।’
दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर ही 25 मई
को भी विस्फोट हुआ था, जो ज्यादा खतरनाक नहीं था, लेकिन एनएसजी की रिपोर्ट
में यह साफ हो गया था कि आतंकवादियों की कोशिश एक बड़ा धमाका करने की थी,
सौभाग्य से बम का डेटोनेटर जल गया और वह विस्फोटक पदार्थ को नहीं जला
पाया। एनएसजी ने यह भी साफ कर दिया था कि यह कोई देसी बम नहीं था, बल्कि
बेहद घातक सिद्ध हो सकनेवाला आधुनिक तकनीक से बना बम था। 7 सितंबर को हुए
विस्फोट से यह साफ हो गया कि आतंकवादियों ने अपनी तकनीकी कमियां सुधार ली
हैं। हम कब सुधरेंगे? हम कब अपनी विगत की गलतियों से सबक लेंगे?