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Monday 13 February 2012

प्रेम पर्व, भावनाओं का उत्सव


प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो...


प्रणव प्रियदर्शी
प्यार, यानी चराचर जगत का सर्वोत्तम अहसास। वह जीवनदायिनी ऊर्जा, जो मन-प्राण को दिव्य अनुभूति से आलोकित कर जीने का संबल प्रदान करती है। हर आदमी किसी न किसी रूप में इसी के इर्द-गिर्द घूमने को मजबूर होता है। हर मानवीय गतिविधि का निचोड़ यहीं से शुरू होकर यहीं पर आकर समाप्त होता है। भला इससे इंकार किसे हो सकता है! पर, हर जीवंत अनुभूति को सामान बनाने की कोशिश को तो कोई नासमझ या फिर षड्यंत्र में शामिल हाथ ही गवारा कर सकता है। पर्दे के पार से बहुत ही सुक्ष्मता से हमारी नासमझी का मजाक उड़ा कर इसी षड्यंत्र को सह दिया जा रहा है। परिणाम सामने है। यह अचानक ही नहीं हुआ कि बीते गुरुवार को रांची के डोरंडा के कक्षा सात में पढ़नेवाले लड़के ने अपने ही घर से छह लाख रुपये चुराकर गर्ल फ्रेंड व अन्य दोस्त के साथ रेस्टोरेंट में पार्टी मना रहा था। पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने के बावजूद भी उसके चेहरे पर कोई सिकन तक नहीं थी, जैसे वह अपराध नहीं कोई सामान्य सी घटना को अंजाम दिया हो।
    आज वेलेंटाइन डे है। इस एक दिन के इंतजार में एक सप्ताह पहले से ही समृद्ध देश से आयातीत विभिन्न ‘डे’- रोज डे, चॉकलेट डे, टेडी डे, प्रामिस डे, किस डे आदि की शृंखला उत्तेजित भावना को मस्ती का आलम मयस्सर करता रहा है। यह सिहर कर सिमटने और रोमांच का क्षण है, जिसे कोई खोना नहीं चाहता। नये आवोहवा में पल-बढ़ रहे किशोर और युवा वर्ग हर गतिरोध को पार कर इसे जी लेना चाहता है। इसके लिए किसी भी हद तक जा सकता है। सही क्या, गलत क्या! उससे किसी विवशता को बर्दाश्त करने की कामना करना निरा मूर्खता के सिवा और कुछ भी नहीं। इन सब बातों की चिंता अभिभावक करें, उसे क्या लेना-देना!
कदम फलक ही पर अहले तलक के पड़ते हैं,
दयारे-इश्क में कोसों जमीं नहीं मिलती।

     यह समय है समृद्धि का, उम्र की फ्रिक छोड़ कामना जगते ही उसे पूरा कर लेने का, भोग की अंतहीन आलम में मचल कर जी लेने का, चाहे सही करने से हो या गलत करने से। परहेज करना, दूसरों की भी फिक्र करना, अपनी स्थिति-परिस्थिति के अनुकूल कदम बढ़ाना, ये सब अब पुराने जमाने की बातें हो चुकी हैं। जवान हो रही नयी पीढ़ी कुछ ऐसे ही फलसफा में जीने की उम्मीद लिये आगे बढ़ रही है। वह महंगे कपड़े, स्टाइलिश माबोइल, टेंडी कार और बाइक के सहारे जमीन छोड़ती रफ्तार को नाप लेना चाहता है। फलस्वरूप, उपर्युक्त घटना बड़े या छोटे स्वरूप में हमारे सामने दस्तक देती रहती है। पिछले सप्ताह ही शहर के कांटाटोली चौक के पास एक मोटरसाइकिल चोर गिरोह का पर्दाफाश हुआ, जिस गिरोह में भी एक सातवीं कक्षा में पढ़नेवाला छात्र शामिल था। बाह्य समृद्धि के लिए इन्हें अपराध तक करने से कोई गुरेज नहीं है। यह परिस्थिति हमारे द्वारा पैदा नहीं की गयी है, बल्कि संस्कृति की ग्लोबल लेवल पर आवाजाही के कारण विकसित हुई है। हमारे बच्चे तक हमारे संस्कार पहुंचने से पहले इंटरनेट, टेलिवीजन व अन्य डिजिटल माध्यमों की सवारी कर भावनाओं को भड़काती, लुभाती, कुछ सपने सी दिखाती, मखमली अरमानों से लबरेज उनको हकीकत से दूर करती अपसंस्कृति अपना कब्जा जमा लेती है। ‘यूज एण्ड थ्रो’ की उनकी हिंसक वृति सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जीना चाहती है। यह सब उस बाजारवादी संस्कृति की देन है, जो भारत को एक देश नहीं, एक प्रौढ़ संस्कति का केंद्र नहीं, बल्कि अपना उत्पाद खपाने के लिए एक बढ़िया बाजार समझता है। और, नया-नया फरेब रच बेसुमार कमाई कर हमें लूट कर अपनी बेहयाई का कीर्तिमान रचता है। हम बेअक्ल उसके इस जाल में फंस कर सब कुछ गंवाने के बाद भी होश में आने के काबिल नहीं रह पाते।
इक फरेबे - आरजू साबित हुआ
जिसको जौके-बंदगी समझा था मैं।

     वेलेंटाइन डे के साथ उसके एक सप्ताह पहले से एक सप्ताह बाद तक विभिन्न ‘डे’ की जुम्बिश इसी फरेब की पैदाइश है। प्रेम के प्रतीक के रूप में किसी एक ‘डे’ का होना कोई बुरी बात नहीं है। प्रेम की बूंदाबांदी हर किसी पर एक सी होती है। इसका गरीबी या अमीरी से कोई रिश्ता नहीं है। प्रेम कल-कल पारदर्शी भावनाओं में डुबकी लगाता है, जिसका स्वाद हर कोई चख कर अपने जीवन को सार्थक और स्वयं को धन्य कर सकता है। लेकिन, इस दिन को बाजार की स्वार्थी खुशी के नाम कर षड्यंत्र का शिकार होना, अपने निजी अहसास के एकाकी सौंदर्य को सामान में बदल देना, उसे बाहरी समृद्धि के सांचे में कसना, एक वस्तु की तरह प्रदर्शन का रंग देना, यहां तक कि किसी अपराध तक को अंजाम दे देना न्यायोचित तो कतई नहीं है। भला वह प्रेम किसी काम का जो हमें किसी षड्यंत्र का शिकार बनावे अथवा अपराध के निर्जन में धकेले। क्या ऐसे क्षणिक आवेग को हम प्रेम की संज्ञा से विभूषित करेंगे? कतई नहीं। फेनिल अहसास के सहारे बाग में फूलों को लगाया जा सकता है, उसकी प्रदर्शनी लगायी जा सकती है। लेकिन, उसे खिलाने के लिए बागबां जैसे एकांतिक धैर्य का होना जरूरी होता है। इसलिए कुछ चीजों के एकांत के आसरे जीते रहने से ही उसकी अर्थवत्ता बची रहती है, उसका सौंदर्य बचा रहता है। वह गहराता है और अपनी विशिष्टता को प्राप्त करता है। हम इस बात को बहुत पहले से जानते रहे हैं, जिसकी कहीं कोई सानी नहीं। प्यार भी शायद ऐसी ही चीज है, इसलिए तो कहा गया है :-
 सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।