कला, कलाकार की विवशता है तो दूसरी तरफ अपनी एक अलग दुनिया निर्मित करने
की चाहत। वह दुनिया इस दुनिया के पैरलल चलती है। पर, उसके नियम कुछ और ही
होते हैं और उस दुनिया के होने पर इस दुनिया की बहुत सी खूबसूरती टिकी
होती है। इस दुनिया से अलग एक नयी दुनिया निर्मित करने की चाहत कलाकार से
बहुत कुछ छीन लेती है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसा बहुत कुछ छोड़ देना
पड़ता है, जिसे छीनने पर भी सहज रह पाने...
के बारे में नियम-कानून से निर्मित इस दुनिया के वासिंदों के लिए सिर्फ
सोचने का ही विषय है। ‘कागज के फूल’ फिल्म में तभी तो सिन्हा साहब कहते
हैं, ‘तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया। हां मैं जानती हूं दुनिया
मेरे जैसी नहीं है, पर दुनिया ऐसी होती तो क्या बुरा था?’ गालिब कहते हैं
- ‘न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता, मिटाया मुझको होने ने,
न मैं होता तो क्या होता।’ इस सबसे अलहदा कला की विधाओं में भी अपना
द्वंद्व है। सिनेमा और साहित्य का द्वंद्व जग जाहिर है। एक कला दूसरी कला
को सींचती है तो समय की शिला पर कला और कलाकार के चरित्र भी बदलते रहते
हैं। -प्रणव प्रियदर्शी