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Friday 11 May 2012

बढ़े-बढ़े से कदम रुक के बार-बार चले

प्रणव प्रियदर्शी 
कला आपको रुकने को मजबूर करती है। वह आपको कुछ देर ठहर कर विश्राम करने के लिए अपना आंचल देती है। कला हिसाब-किताब, हानि-लाभ, स्वार्थ-परमार्थ, दांव-पेंच से दूर एक ऐसा क्षण जीने को कहती है, जिसमें सिर्फ जीया ही न जाये, बल्कि बहा जाये। एक क्षण के लिए ही सही अनंत के छोर को चूम लिया जाये। इसलिए जो कला के पास अन्य कार्य की तरह कोई उद्देश्य, कोई स्वार्थ लेकर जाते हैं, वह कभी भी उसकी तह तक नहीं उतर पाते। कला के पास कुछ लोग कलाकार बनने के ख्याल से भी जाते हैं। इस महात्वाकांक्षा का कोई मूल्य नहीं है। कला की समझ ही अपने-आप में एक ऐसी उपलब्धि है, जो पर्याप्त है। कलाकार बनना दूसरी बात है। कोशिश कर कोई कलाकार नहीं बन सकता, वह बना-बनाया पैदा लेता है। अपने भीतर के कलाकार को किसी विधाओं का सहारा लेकर केवल निखारा-संवारा जा सकता है। कलाकार बनना प्रसाद है, कला समझना पूजा। प्रसाद के लोभ में पूजा की तमन्ना तो महज एक छलावा है। पूजा का प्रतिफल अगर प्रसाद में परिवर्तित हो जाये, तो वह स्वीकार्य शोभाजनक होता है।
      कला पर गणित या विज्ञान की तरह नहीं सोचा-समझा जा सकता। दुनियावी दांव-पेंच के सहारे उस तक पहुंचा भी नहीं जा सकता। क्रिकेट की तरह न तो उसके कोई सुनिश्चित नियम ही हैं, फिल्म की तरह कोई तयशुदा कहानी और न ही गणित की तरह कोई निर्धारित फार्मूला। यही कला का अंतर्द्वंद्व है और यही इसका अनोखापन भी। कला के प्रति लोगों का घटता रुझान बस यही दर्शाता है कि लोग रफ्तार में हैं और हर चीज में व्यापारिक दृष्टिकोण के नुमाइंदा हो गये हैं। लाभ-हानि के सीधा-सपाट गणित के सहारे वह समय को लांघ लेना चाहते हैं। कला एक साधारण आदमी के लिए फालतू चीज के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जिससे प्रत्यक्ष कोई लाभ न हो स्वभाविक है कि उसे फालतू माना जायेगा ही। कला किस रूप में हमें लाभ पहुंचाती है, इसे भी अभिव्यक्त करना एक जोखिम भरा काम है, क्योंकि हर व्यक्ति के कला ग्रहण के तरीके एक हो ही नहीं सकते। जितने उच्च स्तर की कला होती है, वह उसी स्तर के व्यक्ति को भी खोजती है।
    कला की खासियत यह है कि वह खुद अपनी विधा के अनुसार अपना पाठक या दर्शक खोजती है। सामान बेचने के लिए ग्राहक के पास कितने रुपये हैं, यह देखा जाता है। कला यह देखती है कि हमारे ग्रहणकर्ता के पास कितना बड़ा दिल है, कितना निर्मल और सधा हुआ मन है। यहीं आकर कला के रास्ते और अन्य दुनियावी रास्ते में दो फांक हो जाता है। जिसे सिर्फ भागने की ही जल्दी है, वह भला कला की इस चाल को कैसे पकड़ पायेगा? कला तो बलिदान चाहती है। जो धैर्य से किसी आंतरिक झुकाव के सहारे कला के पास जाता रहता है, वह एक दिन कला को भी समझ जाता है। फिर उसकी दृष्टि ही अलग हो जाती है। उसकी दुनिया ही बदल जाती है; कुछ ज्यादा सौंदर्यपरक, कुछ ज्यादा संवेदनापूर्ण, कुछ ज्यादा भावमयी हो जाती है। उसे अनायास यह आभास होता है कि इस दुनिया के कितने तह हैं? जितने खोलो और और गहरे होते जाते हैं। हर विमर्श के बाद एक प्रश्न हर हमेशा पीछे छूट जाता है कि कला के प्रति जिनका कोई झुकाव नहीं है, उन्हें इस ओर मोड़ा जाये?
      कला के प्रति लोगों का रुझान कम होने का एक कारण यह भी है कि अब घरों से सतसाहित्य की विदाई हो गयी है। एक सुंदर पेंटिंग सामान्य घर में तो शायद ही दिखे, यह नासमझ धनवानों की कूबत बताने की वस्तु बन गयी है। हस्त-शिल्प से बनी वस्तु को खरीदने के लिए लोग सौ बार सोचने लगे हैं। गीत-संगीत तो चहलकदमी मचा रहा है, पर यह एक बंधे-बंधाये दायरा में ही बंधने को विवश है। लोग गीत के बोल और लय पर ध्यान देने के बदले अपने एकांतिक ऊब को पाटने के लिए शोर तलाश रहे हैं। कहीं किसी घर में किसी संगीत के बोल और लय पर विमर्श होते हों, यह दुर्लभ हो गया है। हम हर चीजों को हर आदमी के लिए सुलभ तो करते जा रहे हैं, लेकिन आत्म परिष्कार की बातें नहीं कर रहे हैं। परिष्कृत व्यक्ति अपने आसपास की चीजों का भी परिष्कार करता चलता है। कला भी उन्हीं चीजों में से एक है। कोई भी कला निरुद्देश्य नहीं हो सकती, लेकिन जिस रूप में हम उससे लाभ लेना चाहते हैं, वह उस रूप में हमें लाभ नहीं पहुंचाती। वह हमारी आंतरिक समृद्धि और आत्मिक अहसास को सघन करती है। जिसे कुछ समय फालतू चीजों में गंवाने की हिम्मत नहीं है, वह भला कला क्या समझेगा? फिर भी कला को समझना जरूरी है, ताकि हमारा जीवन उच्चतर आयामों पर गति कर सके।

मेरे ब्रह्माण्ड के नक्षत्र