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Wednesday 18 December 2013

बयान बहादुरी के बदले काम और भी हैं...

प्रणव प्रियदर्शी
रांची : झारखंड सरकार में कांग्रेस के मंत्री बयान बहादुर हैं. ये बात पूरी यकीन के साथ कहा जा सकता है. फिर भी किसकी मजाल कि इन्हें कोई किसी और काम की नसीहत दे. जब कांग्रेस अलाकमान की मर्जी को भी यहां शिकस्त दे दिया जाता है तो किसी और के क्या कहने! प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत और झारखंड प्रभारी बीके हरिप्रसाद की लाख मिन्नतें, आरजू और आदेश के बावजूद स्थिति जस की तस है. रूठने-मनाने का मुहूर्त बार-बार निकल आता है और जनाकांक्षाओं का सूरज छिप जाता है. कभी गधे को गुलकंद वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है तो कभी थोथा चना, बाजे घना का राग उभर अता है.
अभी झारखंड की सियासत में विभागीय अफसरों को आड़े हाथों लेने का नया प्रचलन शुरू हुआ है। भला इसमें विवादों से चोली दामन का साथ रखनेवाली शिक्षा मंत्री गीताश्री भी पीछे क्यों रहे! मियां की जूती, मियां के सिर। उन्होंने वरिष्ठ आइएएस आॅफिसर व योजना विकास सचिव डीके तिवारी को चपेटे में ले लिया. वह भी अनुसंधान और समीक्षा की पहलुओं में गोता लगाये बिना. उन्होंने सबसे पहले तो उनपर भाजपा के करीबी होने का आरोप लगाया. वहीं, दूसरी तरफ पारा शिक्षकों की फाइल पर कुंडली मार कर बैठने की बात कही. पहला आरोप उनकी व्यक्तिगत संकीर्णता का परिचायक है तो दूसरा आरोप उनकी पीडि़त मानसिकता का. मीडिया रिपोर्टों से खुलासा भी हो चुका है कि पारा शिक्षकों के मानदेय वृद्धि से संबंधित फाइल 29 अक्टूबर से ही मुख्यमंत्री सचिवालय में पड़ी है. उनके इस कारनामे से फिर कांग्रेस के माथे पर लकीर उभर आयी है. पार्टी कहती है कि कांग्रेस का एजेंडा लागू करने के लिए सरकार पर दबाव बनायें. लेकिन मंत्रियों का सुर्खियों में बने रहने का एजेंडा सब मट्यामेट कर देता है. कांग्रेस के मंत्रियों के फसाने और भी हैं. ग्रामीण विकास मंत्री ददई दुबे विभागीय सचिव के बदले जाने बिफर पड़ते हैं. मन्नान मल्लिक की कौन कहे वे तो कैबिनेट बंटवारे पर ही तन जाते हैं और मुख्यमंत्री को ही अलोचना के घेरे में ले लेते हैं. पश्ुपालन मंत्री योगेंद्र साव ताल ठोंक कर आईजी आरके मल्लिक और रांची एसपी साकेत सिंह के तबादले का श्रेय लेते हैं. 58 हजार का पेट्रोल जबरन भरवा कर होठ पसाड़ कर बेगुनाही का बयान दे देते हैं. डीएओ (जिला कृषि पदाधिकारी) के पास पेट्रोल पंप का नोटिस आता है और वह माथा पकड़ लेते हैं. पार्टी पीछे-पीछे अती है. जांच-पड़ताल की बात करती है. कार्रवाई का भरोसा देती है. दिन बीतते हैं और सभी सिरहाने सिमट जाते हैं.
इन्हें विधानसभा अध्यक्ष से सीखनी चाहिए कि उन्होंने प्रोटोकॉल के मामले पर अपनी सुरक्षा लौटायी. फिर आलाअधिकारियों के साथ बैठक की. उसके बाद बयान दिया. अपनी नाराजगी को तर्कसंगत पहलुओं से हल करने के बाद कहा कि सिर्फ सीएम की ही सुनते हैं अफसर. उन्होंने अधिकारियों की बातें भी स्वीकारी कि अध्यक्ष का प्रोटोकॉल यहां तय नहीं है. उन्होंने कहा कि जब प्रोटोकॉल ही तय नहीं है तो इस पर क्या कहना! उन्होंने जिलों में प्रोटोकॉल के उल्लंघन का मामला उठाया था. सुरक्षा को लेकर सवाल नहीं उठाया था. अब विस अध्यक्ष ने बिहार विधानसभा को पत्र लिख कर सुरक्षा के संदर्भ में जानकारी मांगी है.
कांग्रेस के मंत्रियों से लेकर पार्टी तक को यह समझना होगा कि अब फाकामस्ती से काम नहीं चलेगा. जनता का मिजाज बदल चुका है. उसे नित नूतन बयानों की फितरत से नहीं फुसलाया जा सकता. अपना ठीकरा दूसरे के सिर फोड़ने से बात नहीं बनेगी. नहीं तो झारखंड में भी कहीं वही हश्र न हो जाये जो मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में हुआ. आगे लोकसभा की रणभेड़ी बजनेवाली है. झारखंड में अब आम अदमी पार्टी भी अपनी भुजाएं उठा रही है. नये-नये कार्यकर्ता जुड़ कर इसकी सबलता सुदृढ़ कर रहे हैं. इसलिए झारखंड की सियासत को आधा तीतर आधा बटेर जैसी स्थिति से उबड़ कर अपनी करनी पार उतरनी जैसे हर्फ गढ़ने होंगे.

Saturday 19 October 2013

आतंकी पनाह से दहल रहा मिथिलांचल


प्रणव प्रियदर्शी 
विरल संस्कृति, सहजीवन पद्धति और सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश करनेवाला मिथिलांचल अब परेशान हो उठा है। आखिर हो भी क्यों नहीं; सहज जीवन का स्वर साधक मिथिला को आतंकियों की नजर डसती जा रही है। अमन-चैन की यह धरती आतंकी फसल को लहलहाते देख सतर्कता और सकुचाहट के साथ संशय में पड़ गयी है। मिथिला की विशेषता ही इसकी कमजोरी बन गयी है। आज यह भूमि आंतकियों का 'सेफ जोन' माना जा रहा है। बोधगया बम ब्लास्ट के बाद से बिहार भी पहली बार आतंकी हमला का केंद्र बिंदु बन गया। तिस पर से एक के बाद एक इंडियम मुजाहिदीन (आइएम), लश्कर-ए तैयबा जैसे आतंकवादी संगठन के आतंकवादियों की लगातार गिरप्तारी से यह अपने अस्तित्व का मुंह जोहने लगा है। ये धरती अब खुफिया एजेंसी और राष्ट्रीय जांच एजेंसी की नजरों में गर गयी है।
      पहली बार आतंकवादी गतिविधियों को लेकर मिथिलांचल के दरभंगा जिले का नाम वर्ष 2007 में पहली बार सामने आया था।  इस वर्ष अंडर वर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहीम के खासमखास फजलुर रहमान की गिरफ्तारी के लिए जाले थाना के देवरा बंधौली गांव में छापामारी की गयी। हालांकि वह पुलिस की पकड़ से बच निकला था। 17 अप्रैल 2010 बेंगलूर के चिन्ना स्वामी स्टेडियम में हुए धमाके को लेकर बाढ़ समैला गांव के मोहम्मद कफिल, मोहम्मद कतिल और मोहम्मद गौहर अजीज को गिरफ्तार किया जा चुका है। गिरफ्तार आतंकवादियों से मिली सूचना पर ही इसी गांव के दो आतंकी मोहम्मद सैफ और फसी अहमद महमूद को सउदी अरब से पिछले वर्ष गिरफ्तार किया गया था। इस वर्ष 21 जनवरी 2013 को भटकल के बेहद करीबी मोहम्मद दानिश को दरभंगा जिले के लहेरियासराय थाना के चकजोहरा गांव से जांच एजेंसी ने गिरफ्तार किया था। यहां इसके रहने की सारी व्यवस्था भटकल ने ही किया था।
     इसतरह छोटे-बड़े स्तर पर यह क्रम जारी है। इसी क्रम में पिछला महीना 29 अगस्त को नेपाल से सटा बिहार के रक्सौल शहर से इंडियन मुजाहिदीन सरगना और सह संस्थापक यासीन भटकल और उसका करीबी असदुल्ला अख्तर उर्फ हड्डी को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी बिहार पुलिस और एमआइए के सामूहिक सहयोग से हुई। शेष आतंकवादियों की गिरफ्तारी के लिए जांच एजेंसी लगातार अभियान चला रहा है। बिहार पुलिस का कहना है कि अपने मिशन को अंजाम देने की योजना पे बात करने के लिए यहां इकट्ठा हुए थे। भटकल देश के 12 सबसे अधिक वांछित आंतकवादी की सूची में शामिल था। इसे पकड़ने में खुफिया एजेंसी को छह महीना का समय लग गया।
     हैदराबाद में इस वर्ष फरवरी में हुए बम धमाके में उसका हाथ होने का पता लगने के बाद पूरा तंत्र उसकी गिरफ्तारी में जुटा था। और, वह अपनी पहचान छिपा-छिपा के बिहार के गांवों को अपना आसरा बना रहा था। कहा जा रहा है कि भटकल की गिरफ्तारी अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहीम एवं हाफिज सईद के करीबी आ लश्कर-ए-तैयबा का बम एक्सपर्ट आतंकवादी टुंडा के निशानदेही पर हुई। टुंडा की गिरफ्तारी पिछला महीना अगस्त में हुई। 70 वर्षीय अब्दुल करीम टुंडा को भारत-नेपाल सीमा पर बनबसा (महेंद्रनगर, उत्तराखंड) से दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया। 26 नवंबर (26/11) 2008 के चर्चित मुंबई आतंकी हमला के बाद भारत ने पाकिस्तान को जो 20 आतंकवादियों की सूची दी थी, उसमें टुंडा का नाम सबसे ऊपर था। टुंडा की गिरफ्तारी के एक ही सप्ताह बाद 24 अगस्त को बिहार के कटिहार जिला के कदवा थाना क्षेत्र के सिंगलपुर गांव से पुलिस ने टुंडा के सहयोगी मोहम्मद बशीर को गिरफ्तार किया।
     कनार्टक के भटकल गांव का रहनेवाला यासीन का ससुराल समस्तीपुर है। उसका लाभ उसे हरदम अपने काम को आगे बढ़ाने में मिलता रहा। गिरफ्तारी के बाद एनआइए उसे पूछताछ के लिए दरंभगा भी ले गयी थी। कड़ी सुरक्षा के बीच एनआइए की टीम भटकल को लेकर लेहरियासराय थानांतर्गत करमगंज मुहल्ला के पुस्तकालय ले गयी, जहां वह आया-जाया करता था। जमालचक गांव मंे जहां भटकल रहता था और अन्य जगहों से भी जानकारियां इकट्ठी की गयी। वर्ष 2010-12 के बीच भटकल डॉ. इमरान नाम से यूनानी चिकित्सक के रूप में यहां रहता था। इसके पीछे नवयुवकों को बहला-फुसला कर अपने संगठन का सदस्य बनाता था। इसी साल 21 जनवरी को भटकल का बेहद सहयोगी मोहम्मद दानिश को भी  दरभंगा के लेहरियासराय थाना के चकजोहरा से जांच एजेंसी ने गिरफ्तार किया था।
      इसतरह के आतंकी गतिविधियों के पद्चाप का मूल कारण है भारत-नेपाल की खुली सीमा। उत्तराखंड से बिहार तक नेपाल के साथ खली सीमा है। बिना अवरोध इस सीमा पर आवागमन जारी है। भारत-पाकिस्तान सीमा पर कड़ा पहड़ा है। इसलिए पाकिस्तानी आतंकवादी अपना मंसूबा पूरा करने के लिए बेधड़क इस सीमा का इसेतमाल कर रहे हैं। सैकड़ों कीलोमीटर इस सीमा पर प्रांतीय पुलिस और एसएसबी के जवान तैनात है, जिन पर सख्ती नहीं करने का दबाव है। धर्मावलंबियों के प्रति भारत में सदियों से उदारता का भाव है, जिसका लाभ आतंकवादी उठाते हैं।
      कहा जा रहा है कि बिहार के बॉर्डर इलाका मे पढे़-लिखे लोग और आम लोग जो कमाने के लिए बिहार से बाहर जा रहे हैं, उनकी जमीन एक समुदाय के लोग भारी संख्या में खरीद रहे हैं। विदेश से आये रुपये का निवेश जमीन-खेत-खलिहान-बगीचा खरीदने में किया जा रहा है। इलाका के ब्राह्मण, कायस्थ, भूमिहार और दूसरी जाति के लोग भी नौकरी के सिलसिले में गांव छोड़ रहे हैं। इसतरह के गांव छोड़नेवाले लोगों की जमीन पर असमाजिक गतिविधि चलानेवाले लोगों की नजर है। इस पर गौर करने की जरूरत है।
      देश भर में कहीं से अपराध कर बिहार आयें। बिहार से नेपाल और बंग्लादेश होकर बाहर निकल जायें। इसी कारण इंडियन मुजाहिदीन और दूसरे आतंकवादी संगठन मिथिला में अपनी पकड़ मजबूत बनाने में लगे हैं। आतंकी अभी पूरा उत्तर बिहार-मिथिला के इलाके पर अपना तंत्र मजबूत करने में लगा है। इसमें चंपारण, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, पूर्णिया, अररिया, सहरसा आौर दूसरे बॉर्डर इलाका के लोगों को संगठन से जोड़ा जा रहा है। ये इलाके पहले से ही स्मगलिंग के लिए बदनाम है। आम समान में तस्करी में तो कमी आयी है, लेकिन अब हवाला और दूसरे तरह की तस्करी बढ़ रही है। आतंकी नये-नये इलाकों की तलाश कर रहे हैं। उसमें मिथिला का इलाका सबसे अच्छा माना जा रहा है, आतंकी गतिविधि को चलाने के लिए।
         नेपाल के रास्ते पाकिस्तान से बड़ी संख्या में आतंकवादी भारत आ रहे हैं। आतंकवादी इसी रास्ते भारत आकर आत्मसमर्पण भी कर रहे हैं। वर्ष 2010 से अब तक 300 से अधिक आतंकवादी भारत में आकर आत्मसमर्पण कर चुके हैं। इनमें कई भारतीय युवा पाकिस्तान जाकर आतंकवाद का प्रशिक्षण हासिल करके जब नियंत्रण रेखा से भारत लौटने में कामयाब नहीं हुए तो उन्होंने वहीं शादी विवाह कर लिये। अब बाल-बच्चों को साथ लेकर भारत लौट रहे हैं। पूवार्ेत्तर के कई उग्रवादी भी नेपाल के रास्ते का इस्तेमाल करते हुए पकडे़ गये हैं।
इन सभ गतिविधियों पर अंकुश लगाने के मद्देनजर 2005 से भारत-नेपाल के बीच सीमा समझौता करने की बात शुरू हुई थी। लेकिन नेपाल अपनी राजनीतिक अस्थिरता का बहाना बना कर समझौता की बात टाल दिया, जो अभी भी टला हुआ है। एसएसबी कितनी बार कह चुका है कि भारत की सीमा पर कुकुरमुत्ता की तरह उगा मदरसा खतरनाक साबित हो रहा है। मिथिला के बॉर्डर वाले इलाके में बताया जा रहा है कि पिछले 15-20 साल में मस्जिद-मदरसा की संख्या 10 गुना से अधिक बढ़ गयी है। आइएम (इंडियन मुजाहिदीन) आओर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ (इंटर सर्विस इंटेलिजेंस) इसके माध्यम से युवकों को जेहाद के लिए भड़का रहे हैं।
          कहा जा रहा है कि नेपाल और अरब देश के जरिये आइएसआइ बिहार के बार्डर इलाकों में काफी पैसा भेज रहा है। इन इलाकों में बन रही बड़ी-बड़ी मस्जिद-मदरसा के लिए अरब से पैसे आ रहे हैं। लेकिन वोट का गणित भारत सरकार को इस दिशा में पैर उठाने के लिए रोक रहा है। आतंकवादी वोट के आधारवाले इस भाव को समझते हैं, इस कारण बेरोकटोक मदरसा खोल भारत को अस्थिर करने का मंसूबा पूरा कर रहे हैं। चिंता की बात यह भी है कि नीतीश सरकार इन सब समस्याओं को केंद्र सरकार और पुलिस प्रशासन का दायित्व समझ कर मौन साधे हुई है। आवश्यकता है मिथिला के आमजन के साथ पूरा बिहार और भारत को जागरूक होने की। दहशतगर्दियों के खिलाफ प्रतिबद्ध होकर शंखनाद करने की। 

Friday 18 October 2013

आंतकीक ठौर बनैत जा रहल अछि मिथिला

प्रणव प्रियदर्शी
अपन सांस्कृतिक छटा, सांप्रदायिक सौहार्द आ सहज जीवनक स्वर साधक मिथिला कें आब आतंकक गेहुमन डसि रहल अछि। अमन-चैनक ई धरती आतंकी फसल कें लहलहाइत देखि संशय मे परि गेल अछि। मिथिलाक बैशिष्टे एकर कमजोरी बनि रहल अछि। आइ मिथिलाक भूमि आतंकी कें 'सेफ जोन' मानल जा रहल अछि। ओना बोधगया बम ब्लास्ट कें बादे सं बिहारो पहिल बेर आतंकी हमला कें केंद्र बनि गेल। ताहि मे मिथिला सं एक केर बाद एक इंडियन मुजाहिदीन (आइएम), लश्कर-ए-तैयबा सनहक आतंकवादी संगठनक आतंकवादी कें लगातार गिरफ्तारी सं ई अपन अस्तित्वक मुह जोहि रहल अछि। ई धरती आब खुफिया एजंसी आ राष्ट्रीय जांच एजेंसी कें नजरि मे गरि गेल अछि।
   पहिल बेर 2007 मे मिथिलांचलक दरभंगा जिला केर नाम आतंकी गतिविधिक कारण समक्ष आयल छल। एहि वर्ष अंडर वर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहीमक खासमखास फजलुर रहमानक गिरफ्तारी कें लेल दरभंगा कें जाले थानाक देवरा बंधौली गांव में छापामारी कएल गेल छल। मुदा ओ पुलिस कें हाथ मे नहि आयल छल। 17 अप्रैल 2010 कें बेंगलुरू कें चिन्ना स्वामी स्टेडियम मे भेल बम धमाकाक लेल दरभंगा कें बाढ़ समैला गाम कें मोहम्मद कफिल, मोहम्मद कतिल आर मोहम्मद गौहर अजीज गिरफ्तार भए चुकल अछि। गिरफ्तार आतंकी सं भेटल सूचना कें बल पर एहि गांव के दु गोट आर आतंकवादी मोहम्मद सैफ आर फसी अहमद महमूदक सउदी अरब से पिछला वर्ष गिरफ्तारी भेल छल। इएह साल 21 जनवरी 2013 कें भटकलक खासमखास मोहम्मद दानिश कें दरभंगे जिला कें लहेरियासराय थाना के चकजोहरा गाम सं जांच एजेंसी गिरफ्तार कयने छल। अहुठाम एकरा रहैक लेल भटकले बंदोबस्त केने छल।
  एहि तरहें छोट-पैघ स्तर पर ई क्रम जारि अछि। एहि क्रम मे पिछला महीना 29 अगस्त कें नेपाल सं लागल बिहारक रक्सौल शहर सं इंडियन मुजाहिदीन सरगना वा सह संस्थापक यासीन भटकल आ ओकर करीबी असदुल्ला अख्तर उर्फ हड्डीक गिरफ्तारी भेल। ई बिहार पुलिस आ एनआइए के सामूहिक सहयोग सं भेल। शेष आतंकवादीक गिरफ्तारी लेल जांच एजेंसी लगातार अभियान चला रहल अछि। बिहार पुलिस कें कहने छै जे दुनू आतंकवादी अपन मिशन कें अंजाम देबाक योजना पे बातचीतक लेल एतय आयल छल। भटकल देश कें 12 सभ सं अधिक वांछित आतंकवादी कें सूची मे शामिल अछि। ओकरा पकड़ए मे खुफिया एजेंसी कें छह महीना कें समय लागल।
    हैदराबाद मे एहि साल फरवरी मे भेल बम धमाका मे ओकर हाथ हेबोक बाद सं पूरा तंत्र ओकर गिरफ्तारी मे जुटि गेल छल। आओर, ओ अपन पहिचान छुपा-छुपा कें बिहारक गाम सभक अपन आसरा बनबैत छल। कहल जा रहल अछि जे भटकलक गिरफ्तारी अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहीम आ हाफिज सईद कें करीबी आओर लश्कर-ए-तैयबा कें बम एक्सपर्ट आतंकवादी टुंडा कें निशानदेही पर भेल। टुंडा कें गिरफ्तारी अगस्त मे भेल। 70 वर्षीय अब्दुल करीम टुंडा कें भारत-नेपाल सीमा पर वनबसा (महेंद्रनगर, उत्तराखंड) सं दिल्ली पुलिस गिरफ्तार कएलक। 26 नवंबर के चर्चित मुंबई आतंकी हमलाक बाद भारत पाकिस्तानक जे 20 आतंकवादी कें नामक सूची देलक ओहि मे टुंडाक नाम सभ सं ऊपर छल। टुंडाक गिरफ्तारीक एकहि सप्ताह बाद 24 अगस्त कें बिहारक कटिहार जिलाक कदवा थाना क्षेत्रक सिंगलपुर गांव सं पुलिस टुंडा कें सहयोगी मोहम्मद बशीर कें गिरफ्तार कएलक।
  कर्नाटक कें भटकल गामक रहनिहार यासीन कें सासुर समस्तीपुर अछि। ओकर लाभ ओकरा सदिखन अपन काज कें आगा बढ़यबा मे करए छल। गिरफ्तारीक बाद एनआइए ओकरा पूछताछक लेल दरभंगो लए गेल छल। कड़गर सुरक्षा मे एनआइए कें टीम भटकल कें लए कें लेहरियासराय थानांतर्गत करमगंज मुहल्लाक पुस्ताकलय गेल, जतए ओ पहिने जाइत-आबैत छल। जमालचक गाम मे भटकलक घर संगे आन-आन ठाम सं सहो जानकारी जुटायल गेल। साल 2010-2012 कें बीच भटकल डॉ. इमरान के नाम सं एक गोट युनानी चिकित्सिक के रूप मे दरभंगा मे रहैत छल। एहि क्रम मे नवतुरिया सभ के बहका कें अपन संगठनक सदस्य बनबैत छल। एहि साल 21 जनवरी कें भटकलक करीबी मोहम्मद दानिश के सेहो दरभंगाक लेहरियासराय थाना के चकजोहरा से जांच एजेंसी गिरफ्तार केने छल।
  ई सभ आतंकवादी गतिविधिक आहटक मूल कारण अछि भारत-नेपालक खुलल सीमा। उत्तराखंड सं बिहार तक नेपालक संग भारतक खुलल सीमा अछि आ दुनू देशक मध्य एहि सीमा सं बिना अवरोध आवागमन भए रहल अछि। भारत-पाकिस्तान सीमा पें करगर पहरा अछि। एहि कारण पाकिस्तानी आतंकवादी अपन मंसूबा कें पूरा करय लेल बेधड़क एहि सीमा के इस्तेमाल करि रहल अछि। सैकड़ो किलोमीटर नमहर एहि सीमा पर प्रांतीय पुलिस आ सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) के जवान तैनात अछि, जकरा पर सख्ती नहि करैक दबाव अछि। धर्मावलंबी कें प्रति भारत मे सदि काल सं उदारता कें भाव अछि, जकर लाभ आतंकवादी कें भेटैत अछि।
सुनबा मे आयल अछि जे बिहारक बॉर्डर इलाका के पढ़ल-लिखल लोक सभ आओर आम लोक जे कमाए-खाए लेल बिहार सं बाहर जा रहल छथि। हुनकर जमीन खास समुदाय के लोक भारी संख्या मे खरीद रहल अछि। विदेश सं आएल पाएक निवेश जमीन-खेत-खलिहान-गाछी मे भ' रहल अछि। एहि इलाका के ब्राह्मण, कायस्थ, भूमिहार आ दोसर जातिक लोको सभ नौकरी के सिलसिला मे गाम छोडि़ रहल छथि। एहन गाम छोड़य वाला लोक सभ के जमीन पर असामाजिक गतिविधि चलाबय वाला लोक के नजर अछि। ओ जमीनजथा खरीद सेहो रहल अछि। एहि पर ध्यान देब आवश्यक अछि।
    देश भरि मे कतहुं आतंकी वारदात कए आतंकी बिहार आबि जाइत अछि। किएक त' बिहार सं नेपाल आओर बांग्लादेश भ' बाहर निकलय लेल नीक रहैत छै। एहि लेल इंडियन मुजाहिदीन आओर दोसर आतंकी संगठन मिथिला मे अपन पकड़ मजबूत बना रहल अछि। आतंकी सभ एखन पूरा उत्तर बिहार-मिथिलाक इलाका पर अपन तंत्र मजबूत करय पर लागल अछि। एहि मे चंपारण, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, पूर्णिया, अररिया, सहरसा आओर दोसर बॉर्डर इलाका मे संगठन सं लोक सभ कें जोडि़ रहल अछि। ई इलाका ओहिना पहिने सं स्मगलिंगक लेल बदनाम रहल अछि। आम सामानक तस्करी मे ओना तह्ण कमी आएल अछि। मुदा आब हवाला आओर दोसर तरहक तस्करी बढि़ रहल अछि। आतंकी सभ नव-नव इलाका कें तलाश करि रहल अछि। ओहि हिसाब सं मिथिलाक ई इलाका सभ सं नीक मानल जा रहल अछि आतंकी गतिविधि के चलाबय लेल।
   नेपालक रस्ते पाकिस्तान सं ढेरे आतंकवादी भारत आबि रहल अछि। आतंकवाही एहि रस्ते भारत आबि के आत्मसमर्पण कए रहल अछि। साल 2010 सं अखन तक 300 सं बेसी आतंकवादी भारत आबि कें आत्मसर्पण कए चुकल अछि। एहि मे कतेक भारतक नवतुरिया पाकिस्तान जा कें आतंकवादक प्रशिक्षण लेला कें बाद जखन नियंत्रण रेखा सं भारत लौटबा मे कामयाब नहि भेल त' ओहि ठाम बियाह करि लेलेक। आब बाल-बच्चा सने भारत लौटि रहल अछि। पूर्वोत्तर के कतेक उग्रवादी सभ नेपालक रस्ताक उपयोग करैत पकड़ल गेल अछि।
   एहि सभ गतिविधि पर अंकुश लगाबय लेल 2005 सं भारत-नेपालक मध्य सीमा समझौता करैक बात शुरू भेल छल। मुदा नेपाल अपन राजनीतिक अस्थिरता कें बहाना बनाए समझौताक बात टालि देलक, जे एखनो लटकल अछि। एसएसबी कतेक बेर कहि चुकल अछि भारतक लेल नेपाल सीमा पर कुकुरमुत्ता जेना उगल मदरसा खतरनाक साबित भए रहल अछि। मिथिलाक बॉर्डर इलाका मे बताएल जा रहल अछि जे पिछला 15-20 साल मे मस्जिद-मदरसा के संख्या 10 गुना सं बेसि बढि़ गेल अछि। आइएम (इंडियन मुजाहिदीन) आओर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ (इंटर सर्विस इंटेलिजेंस) एकर मार्फत युवक सभ के जेहाद लेल भड़का रहल अछि।
   कहल त' इहो जे रहल अछि जे नेपाल आओर अरब देशक मार्फत आइएसआइ बिहार कें बार्डर इलाका मे काफी पैसा भेज रहल अछि। एहि इलाका मे बनि रहल बड़का-बड़का मस्जिद-मदरसा कें लेल अरब से पाई आबि रहल अछि। मुदा वोटक गणित भारत सरकार कें एहि दिशा मे पएर  उठाब' लेल रोकि रहल अछि। आतंकवादी वोटक आधारवला एहि भाव कें बुझैत अछि। ताहि कारण बेरोकटोक मदरसा खोलि भारत कें अस्थिर करैक मंसूबा पूरा कए रहल अछि। चिंताक गप इहो अछि जे नीतीश सरकार एहि सब अजगुतक संबंध में केंद्र सरकार आ पुलिस प्रशासनक दायित्व बुझैत मौन साधने अछि। आवश्यकता अछि जे मिथिलाक आमजन संगे पूरा बिहार आ भारत कें जागरूक हेबाक। दहशतगर्दी कें खिलाफ प्रतिबद्ध भए शंखनाद करै कें। 

एहि नव पीढ़ीक भविष्य कें सम्हारू

विषाक्त पीढ़ीक कुकृत्य भोगक लेल विवश अछि नेनपन

प्रणव प्रियदर्शी 
नेना सड़क पर नहि उतैर सकैत अछि। नेना स्वाद नहि पहिचान सकैत अछि। नेना सभ सं लडि़ नहि सकैत अछि। नेना प्रपंच नहि बुझि सकैत अछि। कि इएह कारण थिक 19 जुलाई कें सारण जिलाक दुर्घटना कें। जाहि मे 23 गोट नेना सभक मृत्यु भ' गेल। एहि घटना कें आरोपी प्रधानाध्यापिका मीना कुमारी कें गिरफ्तारी भए चुकल अछि। हुनक पति सेहो सरेंडर कए देलनि। आगुक कार्रवाई प्रशासनिक स्तर पर भए रहल छै। फांरेंसिक जांच रिपोर्ट में एहि बातक खुलासा भए गेल अछि जे स्कूलक ओहि दिनक मध्याहन  भोजन मे जरूरत सं अधिक कीटनाशक मिलाओल गेल छल। घटनाक 58 दिन बाद 16 सितंबर कें उ.म.वि. गंडामनक नेना सभ कें बहुत विश्वास मे लेलाक बाद एमडीएम कें स्वाद फेर सं चखलक। एहि बीच एक प्रश्न सदिखन मन मे उठैत रहल जे गंडामन गाम सं ल' क' पीएमसीएच तक बहल नोर आ हाहाकारक हिसाब के दए सकैत अछि। प्रश्न उठैत अछि एहि तरहक दानवीय कुकृत्य जाहि देश-समाज मे भए रहल हो कि ओहि देश-समाज कें मनुखक देश-समाज कहल जाए सकैत अछि।
       सभ सं आश्चर्यक बात ई छल जे एहि घटनाक समयए सं सियासत शुरू भए गल छल। ओ समय छल सोगाएल परिवार कें सांत्वना आ सहानुभूति देवाक। बीमार नेना सभ कें सही उपचार करबाक। राज्य मे भेल एहि दुर्घटनाक मंथन करबाक। मुदा चट्टान सभ पर पानि नहि ठहरैत छै। सियासत कें सूरमाक हृदय सेहो चट्टान बनि गेल अछि। ओकरा सभ कें अपन राजनीति चमकेबाक एहि सं नीक मौका आब कहिया भेटि सकैत छलै। घटनाक दोसरे दिन बंदी कें एलान कए देल गेल। ताहि मे पुलिसक चारिटा बाहनो कें जरा देल गेल। आरोप-प्रत्यारोपक खेल शुरू भेल। माहौलक इ मखौल घटना कें अलग रूप गढि़ देलक। निश्चय, एहि तरहक कारगुजारी संवेदनहीन आ क्रूर राजनीति केर परिचायक अछि।
        वाहन जरेबाक आरोप मे जकरा सभ पर प्राथमिकी दर्ज भेल छल, ओहि मे एकटा गंडामनक व्यक्ति सेहो छला। ग्रामीण सभ कहथि जे गांव कें लोक सभ तें एहि हादसा सं अपने दुखी छल। स्थानीय लोक मे सं कियो वाहन नहि जरेलक। बाहर कें शरारती तत्व राजनीतिक साजिश कें तहत एहि घटनाक अंजाम देलक। कोनो एक दल कें नेता कोनो दोसर दलक नेता पर एहि तरहक आरोप लगाबे त' ओकरा अनदेखा क' देल जा सकैछ। मुदा जखन शोक संतप्त ग्रामीण एहन गप कहथि त' बात विचारणीय भए जाइत छै।
        एहि घटना कें बाद लगातार गया, मधुबनी आ आन-आन ठाम सं सेहो जहर मिलबैक बारदात सामने आयल। गया मे अफबाहक पसाही पसारनाहर मे सं दू गोट भाजपा विधायक कें सहो गिरफ्तार कयल गेल। मुदा सभ ठाम अफबाह बला गप नहि छलै। एहि घटनाक एक सप्ताहो नहि बीतल छल की गोपालगंजक फुलवरिया प्रखंड कें सरकारी विद्यालयक चापाकल में जहरीला पदार्थ मिला देल गेल। गनीमत ई छलै जे एकटा छात्र जहन पानि पिबी लए गेल त' पानि कें रंग कारि देख एकर सूचना प्राचार्य कें देलक। विद्यालयक परिसर मे गड़ाओल तीनहुटा चापाकल कें सील कए देल गेल। पानि कें जांच करेबाक लेल लेबोरेटरी पठाओल गेल। जांच रिपोर्ट आबै तक अधिकारी सभ एडीएम बनाबए पर रोक लगा देलक। एहने घटना सीवान जिलाक दरैंदा में सेहो भेल। बांका मे सेहो एहन घटना भेल।
         घटना एहि ठाम नहि रुकल। सीवान मे हरदियां प्रखण्डक मिडिल स्कूल मे कीटनाशक मिलाबय गेल युवक कें लोक सभ खूब पीटलक। बाद में ओकरा पुलिस कें सौंपि देल गेल। लोक आक्रोश मे ओकर बाइक जरा देलक। ओकर बाद स्कूलो कें आगि लगा देल गेल। ओकरा बाइक सं कीटनाशक बोतल सेहो भेटल। ओना फॉरेसिंक विभाग मे जिला सभ सं एहि घटनाक मादे जे नमूना भेजल गेल छल ओहि मे कीटनाशक हेवाक पुख्ता प्रमाण नहि भेटल। मुदा एहि बीच राज्य भरक नेना डेराअल-सकुचायल जरूर रहल। स्कूली बच्चा कें भोजन-पानि दोनों पर ग्रहण लागि गेल छल।
         पहिलो मध्याहन भोजनक छिटपुट घटना सामने अबै छल। मुदा ऐते बच्चाक मृत्यु नहि भेल छल। ओकर बाद ओछ राजनीतिक तांडव, तकर बाद शृंखलाबद्ध घटनाक झड़ी नहि लागल छल। साजिशक शिकार बच्चा कें बनाओल जेबाक निकृष्टता एक गोट नव तरहक मानसिक विद्रूपताक दिस इंगित करैत अछि। ऐहन घटना साफ-साफ इंगित कए रहल अछि जे हमर समाज आब बच्चोक प्रति संवेदनहीन भ' गेल अछि।
         सुरक्षा कें मादे एहि घटना मे मारल गेल नेना सभक शव विद्यालय के चारूतरफ दफनाओल गेल। गंडामनक ग्रामीण कहैत छला जे ई भविष्यक संकेत होयत जे केहन अमानवीय घटना सं नेना सभहक प्राण-पखेरू उड़ल छल। एहि स्थान पर स्मारक बनत, ताकि लोक सभ कें स्मरण रहनि कि एहिठम एक बेर नृशंस घटना भेल छल। ई स्मरण दियाबैत रहत जे फेर एहि तरहक घटना दोबारा नहि हुए। तैयो एतबा काफी नहि अछि। हमरा सभ कें ई घटना सतर्कता केर संग ई सोचबाक लेल सेहो विवश कए रहल अछि जे कोना अपन नव पीढ़ी के सुरक्षित भविष्य देल जाए? 

Wednesday 9 October 2013

गांव से गायब होती कीर्तन मंडली

प्रणव प्रियदर्शी
घुप्प अंधेरा, स्तब्ध रात, डग भर की दूरी भी नहीं सूझती थी। कहीं दूर से आती कीर्तन की मद्धिम आवाज कोनों में उतरती थी। मन को यह भरोसा होता था कि कोई है...है कोई ... आसपास उत्साह की आंच सुलगाने के लिए। गांवों की वह सांस्कृतिक परिदृश्य ही उसकी पहचान थी। लेकिन अब वहां कीर्तन मंडली ही नहीं है तो भला कीर्तन कहां से होगा? गांव-घर में जब भी कोई धार्मिक अनुष्ठान होता था, कीर्तन मंडली भक्ति की ज्योत जगाने वहां पहुंच जाती थी। लोग उन्हें कुछ ले-देकर कृतार्थ का अनुभव करते थे। लेकिन अब न तो वैसे लोग रहे और न वैसी प्रांजल अनुभूति की दमक। यही कारण है कि कीर्तन मंडली अब विलुप्ति के कगार पर पहुंच गयी है। बदलती मानसिकता की तपिश के बीच उसकी जगह बैंड पार्टियों का कनफोड़ू संगीत ने ले लिया है।
        कीर्तन मंडलियों के गायब होने का एक कारण रोजगार के दबाव में गांव से शहर की तरफ पलायन भी है। कीर्तन मंडली में कम-से कम चार-पांच लोग अवश्य सम्मिलित होते थे। इतने लोगों का होना जरूरी था। बाकी साथ देनेवाले अन्य लोग तो आयोजन के दौरान अपने-आप मिल जाते थे। कीर्तन मंडली से जुड़े लोग गांव-घर में किसी-न-किसी छोटे-बड़े अन्य कामों से भी जुड़े होते थे। फुर्सत के पल में कीर्तन का अलख जगा आते थे। अब पलायन के कारण गांवों में एक साथ चार लोगों का रहना भी गंवारा नहीं है। एक उपस्थित रहता है तो दूसरा अनुपस्थित। ऐसे में कीर्तन का होना असंभव हो जाता है।
         ऐसा नहीं है कि कीर्तन मंडली में संगीत और आध्यात्म के बहुत बड़े जानकार लोग होते थे। बस काम भर अभ्यास के सहारे भक्ति के स्वर साध लेते थे। उनका गंवई अंदाज और  ज्ञान गुमान रहित सहजता ही बरबस मन को सम्मोहित करती थी। गांव में आकर शहर के बसने से धीरे-धीरे कीर्तन मंडली की तरह हमारी कई प्रमुख सास्कृतिक परंपराएं भी विलुप्त होती जा रही हैं। समय चक्र से बच कर उन्हें संवेदनशीलता के साथ सहेजने की जरूरत है। 

Tuesday 1 October 2013

मजधार है, भंवर है और दूर है किनारा

प्रणव प्रियदर्शी
सीबीआइ की विशेष अदालत ने सोमवार को राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और जगन्नाथ मिश्र समेत सभी 45 आरोपियों को दोषी करार दिया। यह चारा घोटाला से जुड़े सबसे बड़ा मामला था। अपने चुटीले अंदाज से वातावरण को खुशनुमा बनानेवाले लालू यादव इसबार रांची आगमन के समय से ही धीर-गंभीर थे। इस धीरता-गंभीरता में निराशा से उपजा सन्नाटा था। यह कोर्ट के फैसले के बाद मुखर हो उठा। लालू यादव ने जज से कहा कि जब आपने दोषी ठहरा ही दिया है तो सजा पर सुनवाई भी अभी ही कर लीजिए। हालांकि, जज ने लालू की मांग को खारिज करते हुए उन्हें हिरासत में लिये जाने का आदेश दे दिया। सजा तीन अक्टूर को सुनायी जायेगी। इस मामले में लालू यादव को तीन से सात साल तक की सजा हो सकती है। फैसले के बाद लालू यादव को सीधे बिरसा मुंडा जेल भेज दिया गया। 
             चारा घोटाले में दोषी करार दिये जाने के साथ ही लालू का राजनीतिक भविष्य खत्म होने की अटकलें शुरू हो गयी हैं। सुप्रीम कोर्ट के हाल में आये फैसले के मद्देनजर राजद सुप्रीमो के सामने लोकसभा सदस्य के रूप में अयोग्य ठहराये जाने का तत्काल खतरा पैदा हो गया है। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि अगर किसी सांसद या विधायक को किसी अदालत द्वारा दो साल या इससे अधिक की सजावाले किसी अपराध में दोषी ठहराया जाता है, तो वह तत्काल अयोग्य माना जायेगा। 
             संभावना इस बात की भी है कि वह अगला लोकसभा चुनाव भी नहीं लड़ पायेंंगे। लालू यादव की निराशा इन्हीं सब संभावनाओं के मद्देनजर ही होगी। और इन सारी संभावनाओं के पीछे है 27 सितंबर को राहुल गांधी का वह बयान, जिसमें उन्होंने कहा था कि दागी नेताओं से संबंधित सरकार द्वारा लाया गया अध्यादेश पूरी तरह बकवास है और इसे फाड़ कर फेंक देना चाहिए। यदि राहुल ने पिछले हफ्ते दोषी सांसदों को बचानेवाले अध्यादेश के खिलाफ अपनी राय नहीं दी होती तो अब तक अध्यादेश पर दस्तखत हो गये होते और उनकी सीट बच गयी होती। मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ने राहुल के कारनामे के एक दिन पहले ही राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से मुलाकात कर इस अध्यादेश पर हस्ताक्षर नहीं करने का आग्रह किया था। इसके बाद राष्ट्रपति ने इस अध्यादेश के बारे में स्पष्टीकरण लेने के लिए कानून मंत्री कपिल सिब्बल और गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे को तलब किया था।
             भाजपा लालू यादव को सजा मिलने से उत्साहित है। इस उत्साह का आभार उन्हें सबसे पहले राहुल गांधी को ही देना चाहिए। किसी मामले में एक ही राज्य के दो मुख्यमंत्रियों के एक साथ जेल जाने से भारतीय राजनीति   में शुद्धिकरण की शुरुआत मानी जा रही है। इसकी भी बलाइयां राहुल गांधी को ही मिलनी चाहिए। दरअसल शुद्धिकरण और शुचिता की शुरुआत निर्द्वन्द्व मन:स्थिति से ही हो सकती है। ऐसी ही मन:स्थिति और निर्विघ्न परिस्थिति के बीच राहुल गांधी ने दागी अध्यादेश के प्रति अपनी निजी राय व्यक्त की थी। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी बात कहने के लिए जो परिस्थिति चुनी, वह भी उस बात को कहने के लिए पूरी तरह उपयुक्त थी, वरना असर गहराई तक नहीं जाता। 
         राहुल गांधी ने प्रेस क्लब को उस समय चुना, जब कांग्रेस के संचार विभाग के प्रभारी अजय माकन इस क्लब में मीडिया को संबोधित कर रहे थे। इसी बीच राहुल ने खुद वहां आने का निर्णय लिया और मंच पर आते ही आनन-फानन में अध्यादेश के बारे में अपनी राय जाहिर कर सबको अवाक कर दिया। राहुल ने सबको सहज करने के लिए पहले माइक उठाते ही कहा, मैं कोई प्रेस कांफ्रेंस के लिए नहीं आया हूं। मैंने माकन जी को फोन मिलाया तो उन्होंने बताया कि आप उनसे अध्यादेश के बारे में सवाल पूछ रहे हैं। मैंने उनसे पूछा कि क्या लाइन ले रहे हो। उन्होंने मुझे पार्टी की लाइन बतायी। इसके बाद मैंने उनसे कहा कि मैं खुद ही आ रहा हूं और मैं अचानक यहां चला आया। राहुल गांधी ने कहा, अध्यादेश के बारे में मेरी निजी राय यह है कि यह पूरी तरह बकवास है और इसे फाड़ कर फेंक देना चाहिए। इसके पक्ष में तर्क यह दिया जाता है कि राजनीतिक कारणों से किया जा रहा है। उन्होंने कहा, हर पार्टी यही करती है, कांग्रेस यही करती है, भाजपा यही करती है, जनता दल, समाजवादी पार्टी सब यही करती हैं। मेरा कहना है कि मेरी पार्टी और बाकी सभी पार्टियों को इस तरह के समझौते नहीं कर इसतरह का बेहूदा निर्णय लेना बंद करना चाहिए।
          ऐसा कारनामा सिर्फ नायक जैसे फिल्म का नायक ही कर सकता है। असल जिंदगी में ऐसा इसलिए हुआ कि राहुल गांधी के भीतर सियासी दांव-पेंच के गुण नहीं आये हैं। वह अपनी कमजोरी भी समझते हैं और मजबूरी भी। राजनीति के तंग माहौल में वह अभी तक अपने-आप को समायोजित नहीं कर पाये हैं। उनके भीतर एक बेचैनी, एक छटपटाहट है; जो उनके युवा होने की प्रमाणिकता गढ़ती है। राहुल सियासत की दम तोड़ती अजान पर खुद को कुर्बान नहीं करना चाहते। लेकिन मजबूरियां हैं कि उनके पंख पकड़ लेते हैं। हालांकि भाजपा ने राहुल के इस कारनामे को नौटंकी करार दिया है, लेकिन सियासत के खिलाड़ी इसतरह की निर्दोष नौटंकी नहीं कर सकते। और यह कोई पहला मौका नहीं है कि राहुल के भीतर का मर्म जगा है। 
         याद कीजिए इसी वर्ष रविवार, 20 जनवरी का दिन जब राहुल ने सत्ता को जहर की संज्ञा दी थी। राहुल ने कहा था - आज सुबह मैं चार बजे ही उठ गया और बालकनी में गया। सोचा कि मेरे कंधे पर अब बड़ी जिम्मेदारी है। अंधेरा था, ठंड थी। मैंने सोचा कि आज मैं वह नहीं कहूंगा, जो लोग सुनना चाहते हैं। आज मैं वह कहूंगा जो मैं महसूस करता हूं। राहुल बोले, पिछली रात मेरी मां मेरे पास आयी और रो पड़ी, क्योंकि वो जानती हैं कि सत्ता जहर की तरह होती है। सत्ता क्या करती है। इसलिए हमें शक्ति का इस्तेमाल लोगों को सबल बनाने के लिए करना है। देश को राहुल जैसी ही मन:स्थिति और निष्कलंक काया रखनेवाले युवा नेताओं की जरूरत है।
ऐसी चर्चाएं इसलिए भी कि चर्चा है कि लालू के जेल जाने की स्थिति में उनकी पार्टी बिखर जायेगी। लेकिन लालू की दूरदर्शी सोच को पकड़ पाना सबके बस की बात नहीं। लालू जानते थे कि ऐसी स्थिति बन सकती है, इसलिए पहले ही वह अपने दोनों बेटे तेजस्वी और तेज प्रताप को राजनीति के मैदान में उताड़ चुके हैं। खुद राजद प्रमुख बहुत पहले ही यह संकेत दे चुके हैं कि उनकी गैरमौजूदगी में उनके बेटे पार्टी का नेतृत्व करेंगे। ये अलग बात है कि उनके पास कच्ची उम्र है और अनुभव की कमी है। राजनीति की पिच पर अपने पिता जैसा खिलाड़ी भले बन नहीं सकें, लेकिन राहुल गांधी का आदर्श तो है। 

Wednesday 18 September 2013

काम जब बनता है आराम

प्रणव प्रियदर्शी
कुछ दिनों पहले चीन के फैशन डिजाइनर ने कहा था कि मेरे लिए अच्छा दिखना ही सबसे बड़ा आराम है। कुछ देर के लिए मुझे यह अटपटा-सा बयान लगा, लेकिन  दूसरे ही पल मुझे इस बयान में एक गहरे जीवन-दर्शन की अनुभूति हुई। अस्तित्व ने या जीवन की परिस्थितियों ने हमारे जिम्मे जो काम सौंपा है, अगर वह हमारे लिए आराम बन जाये तो जीवन एक अलग ही आयाम में प्रवेश कर जायेगा। किंतु ऐसा कैसे हो? हमारी मन:स्थिति तो इसतरह से किसी को काम को स्वीकारती ही नहीं है।
      किसी दफ्तर में कंधा झुकाये, सिर थामे, फाइल में आंख गराये किसी व्यक्ति से जाकर पूछें कि आप क्या कर रहे हैं? वह मुंह उचका कर, भौंहें सिकोड़ वितृष्णा से भर कर सीधा कहेगा-काम कर रहा हूं। घर में पति के लिए ऑफिस जाना काम है तो पत्नी के लिए खाना बनाना काम है। स्कूल में शिक्षक पढ़ाने का काम कर रहे हैं तो छात्र पढ़ने का काम काम कर रहे हैं। इस काम के चलते हर कोई एक भारी बोझ के नीचे दबा मालूम पड़ता है।  कोई यह नहीं कहता कि मेरे लिए काम करना ऐसे ही है, जैसे मैं कोई गीत गुनगुना रहा हूं। कभी किसी ने मुझसे कहा था - मैंने साज पर हाथ रख दिया है, धुन अपने-आप निकल रहा है।
     हम आखिर इस तरह की बात करें भी तो कैसे? क्योंकि हम सप्ताह में एक दिन की छुट्टी की आस में छह दिन किसी तरह गुजार लेते हैं। हकीकत यह है कि छुट्टी के दिन हम अन्य दिनों से ज्यादा काम करते हैं, फिर भी थकते नहीं। वजह यह होती है कि वह काम हमारे आराम और अभिरुचि का होता है। दूसरी बात यह होती है कि उस दिन हम निर्भार और तनाव मुक्त होते हैं।
     इन दो बातों पर अमल करें तो हमारे लिए भी काम आराम बन सकता है। पहला, वह हमारी अभिरुचि का हो और दूसरा, उसे हम तनाव मुक्त होकर करें। ऐसा काम ही धीरे-धीरे ध्यान बन जाता है। ध्यान तो आराम की चरमावस्था है। हमारा हर काम, आराम और ध्यान की अभिव्यक्ति बन सके, तब ही जीवन का सही अर्थ प्रकट होता है। 

Friday 13 September 2013

विशेष राज्य का आंदोलन बने पुनरुत्थानवादी आंदोलन


प्रणव प्रियदर्शी
झारखंड के लिए विशेष दर्जे की मांग एक सामूहिक आवाज बनकर उभरी है। यह खुशी की बात है। किसी एक मुद्दे पर तो सभी राजनीतिक दल साथ दिख रहे हैं। किसी एक मुद्दे पर तो सभी ने साझा संस्कृति के संवाहक बन कर उपस्थिति दर्ज की है। खुशी परवान पर इसलिए है कि इस मामले में हम पड़ोसी राज्य बिहार से अधिक सामूहिक जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं। बिहार में विशेष दर्जे की मांग सिर्फ राजग अपने बूते बुलंद कर रहा है। हालांकि शुरुआत में राजद ने इसे अपने खेमे में लेना चाहा। उसका कहना था कि सर्वप्रथम उसने विशेष दर्जे की मांग उठायी। लेकिन इस दिशा में नीतीश कुमार के प्रयास के अंधर में उसकी आवाज कहीं गुम-सी हो गयी। गुमशुदगी के बियाबान में बिखर कर अब राजद-लोजपा साथ-साथ कहने को विवश हो उठी हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की विशेष दर्जे की मांग एक छलावा है, ढोंग है। विडंबना देखिए कि वही राजद -लोजपा झारखंड के विशेष दर्जे की मांग का समर्थन कर रहे हैं।
      इन सामूहिक आवाजों की जुगलबंदी के बीच से एक स्वर यह भी उभर रहा है कि अगर झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा मिल भी गया तो हित किसका सधेगा? इसतरह के स्वर इसलिए उभरे हैं कि झारखंड के अलग राज्य बनने से किनका हित हुआ? इसका माकूल जवाब सभी के पास है। कहीं वही हश्र विशेष दर्जा मिलने के बाद भी हुआ तो झारखंड की आम जनता डुगडुगी बजाती रह जायेगी। हरित भविष्य लुटता चला जायेगा। हमने जब अलग राज्य का दर्जा हासिल किया तो हमारे पास इस उद्देश्य से आगे का कोई मापदंड नहीं था कि प्रदेश को किस ओर उन्मुख करेंगे। किस दिशा में अपनी सामूहिक शक्ति लगायेंगे। फलस्वरूप यह प्रदेश लू़ट-खसोट का अड्डा बन गया। इस नव-सृजित प्रदेश की दशा-दिशा बदलने के लिए भी कोई ठोस रूप-रेखा नहीं तैयार की गयी। झारखंड राज्य के निर्माण के वक्त केंद्र सरकार को भी यहां की भौगोलिक और सांस्कृतिक संरचना के आधार पर आर्थिक विकास की रूप-रेखा तैयार करनी थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जब इन चीजों को लेकर राज्य प्रतिबद्ध नहीं था तो केंद्र क्यों प्रतिबद्धता दिखाये? जिस कारण परिणाम सिफर ही रहा। दरअसल झारखंड तो बन गया, लेकिन विकास की कोई अवधारणा अपनायी ही नहीं गयी। कोई आर्थिक ब्लू प्रिंट नहीं बना।
       इसी के मद्देनजर वरिष्ठ भाजपा नेता सरयू राय ने दो टूक कहा है - 'विशेष राज्य झुनझुना नहीं, जब चाहा बजा लिया और ना ही कोई निपुल है, जो मुंह में दबाये और सो गये।' हकीकत भी है कि सिर्फ यह कह देने से कि हम विशेष राज्य के हकदार हैं, इससे नहीं मिलेगा विशेष दर्जा। ये अलग बात है कि हम विशेष दर्जा पाने की सारी अर्हता पूरी करते हैं, लेकिन तर्क के साथ अपनी बात रखनी होगी। मुद्दे को लेकर पुख्ता कागजी दस्तावेज तैयार करना होगा। बिहार ने मांग के साथ-साथ अपनी प्रतिबद्धता भी दिखायी है, सिर्फ जुबानी राग नहीं अलापा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया। 1.18 करोड़ लोगों से हस्ताक्षर कराये। प्रतिनिधिमंडल लेकर प्रधानमंत्री से मिले। मीडिया को अपने इस मुहिम से जोड़ा। हर जिले में अधिकार यात्रा का आयोजन करवाया। पटना और दिल्ली में विशाल अधिकार रैली की। नीतीश सरकार ने आर्थिक विशेषज्ञों की सहायता से समर्थित दस्तावेज तैयार करवाया। उन्होंने साफ कहा - जो देगा विशेष दर्जा, उसी को देंगे समर्थन। तब उनकी बातें सुनी जा रही हैं।
        झारखंड ने अभी तक न तो इस तरह की प्रतिबद्धता दिखायी है और न ही ऐसा प्रयास ही किया है। सिर्फ बोल के ढोल ही पीटे जा रहे हैं, जबकि तीन वर्षों से रह-रह कर झारखंड को विशेष दर्जा प्रदान करने की मांग उठायी जाती रही है। सबसे पहले दिसंबर 2011 में कामेश्वर बैठा ने स्पेशल मेंशन के तहत लोकसभा में यह मुद्दा उठाया था। इसी वर्ष मई में झाविमो सांसद अजय कुमार ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर यही मांग फिर से उठायी। दिसंबर 2012 में पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में यह मामला जोर-शोर से उठाया था और केंद्र सरकार से औपचारिक रूप से आग्रह किया था। मार्च में लोकसभा में झारखंड के बजट प्रस्ताव पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए इंदर सिंह नामधारी, यशवंत सिन्हा, अजय कुमार व कामेश्वर बैठा ने विशेष दर्जे की मांग रखी। इस वर्ष जुलाई महीने में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने प्रधानमंत्री और केंद्रीय वित्त मंत्री से मुलाकात के दौरान झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग की। अगस्त में राज्य स्तर पर आजसू भी रैलियां आयोजित कर इस मुद्दे को प्रोत्साहित कर रहा है।
        जरूरी यह है कि हमारे लिए विशेष राज्य की मांग सिर्फ आर्थिक अनुदान तक ही नहीं सिमटे, बल्कि एक आत्मनिर्भर झारखंड की नीतियों के निर्माण और सांस्कृतिक विकास की अवधारणा भी इससे जुड़े। तभी विशेष दर्जा मिलने पर हम संतुलन साध सकेंगे। झारखंड का इतिहास भी बताता है कि 1857 के बाद यहां जो भी आंदोलन हुए उनमें अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आवाज जितनी मुखर हुई, उससे कहीं ज्यादा मुखरित हुई यहां की जन-जातियों में व्याप्त कुरीतियां, अभाव, अशिक्षा, मद्यपान आदि समस्याओं से मुक्ति की आवाज। चाहे वह सरदार आंदोलन हो या खरवार आंदोलन, बिरसा आंदोलन हो या टाना भगत आंदोलन। ठेकेदारों, जागीरदारों, बिचौलियों के कुचक्र में फंसी व्यवस्था से मुक्ति की आवाज ही सुधारवादी या पुनरुत्थानवादी आंदोलन का मुख्य स्वर रहा है। अत: झारखंड के विशेष राज्य का आंदोलन सुधारवादी या पुनरुत्थानवादी आंदोलन का भी रूप अख्तियार करे तब ही प्रदेश का कायकल्प संभव है। 

Wednesday 11 September 2013

धर्मांधता का हो अंत : स्वामी विवेकानंद

(शिकागो भाषण की वर्षगांठ पर विशेष) 

नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। भारतीय गौरव को जिन महापुरुषों ने देश की सीमा के बाहर ले जाकर स्थापित किया उनमें स्वामी विवेकानंद अग्रणी माने जाते हैं। पश्चिम बंगाल में 12 जनवरी, 1863 को जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद) ने अमेरिका के शिकागो में 11 सितंबर, 1893 को आयोजित विश्व धर्म संसद में भारतीय चिंतन परंपरा का जिन जोरदार शब्दों में परचम लहराया, उसकी प्रतिध्वनि युगों-युगों तक सुनाई देती रहेगी : मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों! आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूं। धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं। और सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिंदुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूं।
मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं।
मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं।
        मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीडि़तों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने महान जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है।
          भाइयों, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं जिसकी आवृत्ति मैं बचपन से कर रहा हूं और जिसकी आवृत्ति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं : रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
         अर्थात् जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं। यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वत: ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है : ये यथा मा प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम। मम वत्मार्नुवर्तंते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।।
अर्थात् जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूं। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते हैं।
सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मांधता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं।
         
यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियां न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है और मैं आंतरिक रूप से आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटाध्वनि हुई है वह समस्त धर्मांधता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।

Tuesday 3 September 2013

'रफ्तार हो, भटकाव नहीं'

(दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित मेरा बलॉग लेख)
भगतसिंह (1925)

युवक!


['युवक!’ शीर्षक से नीचे दिया गया भगतसिंह का यह लेख ‘साप्ताहिक मतवाला’ (वर्ष : 2, अंक सं. 36, 16 मई, 1925) में बलवन्तसिंह के नाम से छपा था। इस लेख की चर्चा ‘मतवाला’ के सम्पादकीय कर्म से जुड़े आचार्य शिवपूजन सहाय की डायरी में भी मिलती है। लेख से पूर्व यहाँ'आलोचना’ में प्रकाशित डायरी के उस अंश को भी उद्धृत किया जा रहा है।- स.]

सन्ध्या समय सम्मेलन भवन के रंगमंच पर देशभक्त की स्मृति में सभा हुई। ... भगतसिंह ने ‘मतवाला’ (कलकत्ता) में एक लेख लिखा था : जिसको सँवार-सुधार कर मैंने छापा था और उसे पुस्तक भण्डार द्वारा प्रकाशित ‘युवक साहित्य’ में संगृहीत भी मैंने ही किया था। वह लेख बलवन्तसिंह के नाम से लिखा था। क्रांतिकारी लेख प्राय: गुमनाम लिखते थे। यह रहस्य किसी को ज्ञात नहीं। वह लेख युवक-विषयक था। वह लाहौर से उन्होंने भेजा था। असली नाम की जगह ‘बलवंत सिंह’ ही छापने को लिखा था।
(आचार्य शिवपूजन सहाय की डायरी के अंश, 23 मार्च, पृष्ठ 28, आलोचना-67/वर्ष 32/अक्तूबर-दिसंबर, 1983)
युवावस्था मानव-जीवन का वसन्तकाल है। उसे पाकर मनुष्य मतवाला हो जाता है। हजारों बोतल का नशा छा जाता है। विधाता की दी हुई सारी शक्तियाँ सहस्र धारा होकर फूट पड़ती हैं। मदांध मातंग की तरह निरंकुश, वर्षाकालीन शोणभद्र की तरह दुर्द्धर्ष,प्रलयकालीन प्रबल प्रभंजन की तरह प्रचण्ड, नवागत वसन्त की प्रथम मल्लिका कलिका की तरह कोमल, ज्वालामुखी की तरह उच्छृंखल और भैरवी-संगीत की तरह मधुर युवावस्था है। उज्जवल प्रभात की शोभा, स्निग्ध सन्ध्या की छटा, शरच्चन्द्रिका की माधुरी ग्रीष्म-मध्याह्न का उत्ताप और भाद्रपदी अमावस्या के अर्द्धरात्र की भीषणता युवावस्था में निहित है। जैसे क्रांतिकारी की जेब में बमगोला, षड्यंत्री की असटी में भरा-भराया तमंचा, रण-रस-रसिक वीर के हाथ में खड्ग, वैसे ही मनुष्य की देह में युवावस्था। 16 से 25 वर्ष तक हाड़- चाम के सन्दूक में संसार-भर के हाहाकारों को समेटकर विधाता बन्द कर देता है। दस बरस तक यह झाँझरी नैया मँझधार तूफान में डगमगाती तहती है। युवावस्था देखने में तो शस्यश्यामला वसुन्धरा से भी सुन्दर है, पर इसके अन्दर भूकम्प की-सी भयंकरता भरी हुई है। इसीलिए युवावस्था में मनुष्य के लिए केवल दो ही मार्ग हैं- वह चढ़ सकता है उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर, वह गिर सकता है अध:पात के अंधेरे खन्दक में। चाहे तो त्यागी हो सकता है युवक, चाहे तो विलासी बन सकता है युवक। वह देवता बन सकता है, तो पिशाच भी बन सकता है। वही संसार को त्रस्त कर सकता है, वही संसार को अभयदान दे सकता है। संसार में युवक का ही साम्राज्य है। युवक के कीर्तिमान से संसार का इतिहास भरा पड़ा है। युवक ही रणचण्डी के ललाट की रेखा है। युवक स्वदेश की यश-दुन्दुभि का तुमुल निनाद है। युवक ही स्वदेश की विजय-वैजयंती का सुदृढ़ दण्ड है। वह महाभारत के भीष्मपर्व की पहली ललकार के समान विकराल है, प्रथम मिलन के स्फीत चुम्बन की तरह सरस है, रावण के अहंकार की तरह निर्भीक है, प्रह्लाद के सत्याग्रह की तरह दृढ़ और अटल है। अगर किसी विशाल हृदय की आवश्यकता हो, तो युवकों के हृदय टटोलो। अगर किसी आत्मत्यागी वीर की चाह हो, तो युवकों से माँगो। रसिकता उसी के बाँटे पड़ी है। भावुकता पर उसी का सिक्का है। वह छन्द शास्त्र से अनभिज्ञ होने पर भी प्रतिभाशाली कवि है। कवि भी उसी के हृदयारविन्द का मधुप है। वह रसों की परिभाषा नहीं जानता,पर वह कविता का सच्चा मर्मज्ञ है। सृष्टि की एक विषम समस्या है युवक। ईश्वरीय रचना-कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है युवक। सन्ध्या समय वह नदी के तट पर घण्टों बैठा रहता है। क्षितिज की ओर बढ़ते जानेवाले रक्त-रश्मि सूर्यदेव को आकृष्ट नेत्रों से देखता रह जाता है। उस पार से आती हुई संगीत-लहरी के मन्द प्रवाह में तल्लीन हो जाता है। विचित्र है उसका जीवन। अद्भुत है उसका साहस। अमोघ है उसका उत्साह।
वह निश्चिन्त है, असावधान है। लगन लग गयी है, तो रात-भर जागना उसके बाएं हाथ का खेल है, जेठ की दुपहरी चैत की चांदनी है, सावन-भादों की झड़ी मंगलोत्सव की पुष्पवृष्टि है, श्मशान की निस्तब्धता, उद्यान का विहंग-कल कूजन है। वह इच्छा करे तो समाज और जाति को उद्बुद्ध कर दे, देश की लाली रख ले, राष्ट्र का मुखोज्ज्वल कर दे, बड़े-बड़े साम्राज्य उलट डाले। पतितों के उत्थान और संसार के उद्धारक सूत्र उसी के हाथ में हैं। वह इस विशाल विश्व रंगस्थल का सिद्धहस्त खिलाड़ी है।
अगर रक्त की भेंट चाहिए, तो सिवा युवक के कौन देगा ?अगर तुम बलिदान चाहते हो, तो तुम्हें युवक की ओर देखना पड़ेगा। प्रत्येक जाति के भाग्यविधाता युवक ही तो होते हैं। एक पाश्चात्य पंडित ने ठीक ही कहा है- It is an established truism that youngmen of today are the countrymen of tomorrow holding in their hands the high destinies of the land. They are the seeds that spring and bear fruit. भावार्थ यह कि आज के युवक ही कल के देश के भाग्य-निर्माता हैं। वे ही भविष्य के सफलता के बीज हैं।
संसार के इतिहासों के पन्ने खोलकर देख लो, युवक के रक्त से लिखे हुए अमर सन्देश भरे पड़े हैं। संसार की क्रांतियों और परिवर्तनों के वर्णन छाँट डालो, उनमें केवल ऐसे युवक ही मिलेंगे,जिन्हें बुद्धिमानों ने ‘पागल छोकड़े’ अथवा ‘पथभ्रष्ट’ कहा है। पर जो सिड़ी हैं, वे क्या ख़ाक समझेंगे कि स्वदेशाभिमान से उन्मत्त होकर अपनी लोथों से किले की खाइयों को पाट देनेवाले जापानी युवक किस फौलाद के टुकड़े थे। सच्चा युवक तो बिना झिझक के मृत्यु का आलिंगन करता है, चौखी संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है, तोप के मुँह पर बैठकर भी मुस्कुराता ही रहता है, बेड़ियों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फाँसी के तख्ते पर अट्टहासपूर्वक आरूढ़ हो जाता है।फाँसी के दिन युवक का ही वजन बढ़ता है, जेल की चक्की पर युवक ही उद्बोधन मन्त्र गाता है,कालकोठरी के अन्धकार में धँसकर ही वह स्वदेश को अन्धकार के बीच से उबारता है। अमेरिका के युवक दल के नेता पैट्रिक हेनरी ने अपनी ओजस्विनी वक्तृता में एक बार कहा था- Life is a dearer outside the prisonwalls, but it is immeasurably dearer within the prison-cells, where it is the price paid for the freedom’s fight. अर्थात् जेल की दीवारों से बाहर की जिन्दगी बड़ी महँगी है,पर जेल की काल कोठरियो की जिन्दगी और भी महँगी है क्योंकि वहाँ यह स्वतन्त्रता-संग्राम के मूल्य रूप में चुकाई जाती है।
जब ऐसा सजीव नेता है, तभी तो अमेरिका के युवकों में यह ज्वलन्त घोषणा करने का साहस भी है कि, “We believe that when a Government becomes a destructive of the natural right of man, it is the man’s duty to destroy that Government."अर्थात् अमेरिका के युवक विश्वास करते हैं कि जन्मसिद्ध अधिकारों को पद-दलित करने वाली सत्ता का विनाश करना मनुष्य का कर्तव्य है।
ऐ भारतीय युवक! तू क्यों गफलत की नींद में पड़ा बेखबर सो रहा है। उठ, आँखें खोल, देख, प्राची-दिशा का ललाट सिन्दूर-रंजित हो उठा। अब अधिक मत सो। सोना हो तो अनंत निद्रा की गोद में जाकर सो रह। कापुरुषता के क्रोड़ में क्यों सोता है? माया-मोह-ममता का त्याग कर गरज उठ-
“Farewell Farewell My true Love
The army is on move;
And if I stayed with you Love,
A coward I shall prove.”
तेरी माता, तेरी प्रात:स्मरणीया, तेरी परम वन्दनीया, तेरी जगदम्बा, तेरी अन्नपूर्णा, तेरी त्रिशूलधारिणी, तेरी सिंहवाहिनी, तेरी शस्यश्यामलांचला आज फूट-फूटकर रो रही है। क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी चंचल नहीं करती? धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर! तेरे पितर भी नतमस्तक हैं इस नपुंसकत्व पर! यदि अब भी तेरे किसी अंग में कुछ हया बाकी हो, तो उठकर माता के दूध की लाज रख, उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आँसुओं की एक-एक बूँद की सौगन्ध ले, उसका बेड़ा पार कर और बोल मुक्त कण्ठ से- वंदेमातरम्।

Date Written: 1925
Author: Bhagat Singh
Title: Youth (Yuvak)
First Published: in Saptahik Matwala, Vol.2 ; No. 38, dated May 16, 1925.

Saturday 24 August 2013

झारखंड में भी अंधविश्वास पर हल्ला बोल

कार्य करने में अंतर जरूर है, लेकिन मकसद एक ही है, लोगों को जागरूक करना
वन देवी की आड़ में लोगों की बलि के पीछे के यथार्थ का पर्दाफाश 
प्रणव प्रियदर्शी
रांची। अंधविश्वास के खिलाफ लड़नेवाले नरेंद्र दाभोलकर की पुणे में हत्या के बाद पूरा देश आंदोलित है। लेकिन यह बहुत कम को पता है कि झारखंड में भी युवाओं की एक ऐसी टोली ऐसी है, जो अंधविश्वास के खिलाफ रणभेड़ी बजायी हुई है। इनके कार्य करने में अंतर जरूर है, लेकिन मकसद एक ही है, जागरूक करना। इस टोली में पांच सदस्य हैं। ये सभी ह्यझारखंड पारानार्मल सोसाइटीह्ण से जुड़े हुए हैं। यह संस्था अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका निभा रही है। विदित हो कि जीटीवी पर प्रसारित होनेवाले फियर फाइल की शरुआती तीन महीने के एपिसोड के लिए इनकी रिसर्च टीम व स्टोरी का सहारा लिया जा चुका है। सोनी टीवी पर भी इसीतरह की एक सीरियल आनेवाली है, जिसमें भी इनका काम हो रहा है। पारानार्मल (असामान्य, अलौकिक) से संबंधित जब कोई मामला इनके पास पहुंचता है, पूरी टीम वहां पहुंचती है। अपने यूनिक रिसर्च बाक्स के साथ घटना की तह तक जाती है। पूरे घटनाक्रम को बगैर किसी तर्क और बतकही के प्रमाणिकता के साथ लोगों के समक्ष रखा जाता है। जिससे सहज ही इन्हें  विश्वास हासिल हो जाता है।
        बहुत दिन नहीं हुए हैं, जब चाईबासा के सारंडा में डुम्भीशाही पहाड़ पर वन देवी की आड़ में लोगों की बलि के पीछे के यथार्थ का इन्होंने पर्दाफाश किया। यहां यह विश्वास कायम था कि हर वर्ष गोवर्धन पूजा के दौरान लगनेवाले मेले में वन देवी एक की बलि लेती है। सालों से ऐसा ही होता आ रहा था। आश्चर्य तो ये है कि इस मामले पर कोई पुलिस केस भी दर्ज नहीं किया जाता था। जहां लाश मिलती थी, लोग उस जगह पर दिन में भी जाने से कतराते थे। टीम बेझिझक वहां पहुंची और अपने रिसर्च के माध्यम से यह साबित किया कि वन देवी किसी की बलि नहीं लेती। यह किसी अपराधी गिरोह के सक्रिय होने की नुमाइंदगी है। गांव के लोगों ने रिसर्च को सराहा और अगली बार से सतर्क रहने का आश्वासन दिया। ऐसे कई छोटी-बड़ी व्यक्तिगत व सामूहिक समस्याओं पर इन्होंने काम किया है। कई लोगों की जिंदगियों को नव विहान से संपृक्त किया है।
       

भारत में यह संस्था 2009 से कार्य कर रही है, जबकि झारखंड में 2012 से सक्रिय है। भारत में ह्यइंडीयन पारानार्मल सोसाइटीह्ण नाम से चर्चित संस्था को लाने का श्रेय गौरव तिवारी को जाता है, जो कई राज्यों में संचिालित है। इसी से आबद्ध झारखंड में ह्यझारखंड पारानार्मल सोसाइटीह्ण शिशिर कुमार के संचालन में कार्य कर रहा है। इन्होंने अपनी पढ़ाई पारानार्मल से संबंधित विषय को लेकर आइएमएचएस, अमेरिका से भी की है। इस विषय से एम.ए. कर चुके हैं। फिलहाल पीएचडी की तैयारी में लगे हैं। इनसे झारखंड में आदेश कुमार, विद्युत सिंह राय, रंजीत कुमार, सागर मिश्रा और सौरभ जुड़े हुए हैं। इनके रिसर्च बॉक्स में डीजीटल इन्फरारेड थर्मोमीटर, केआइआइ मीटर, डीजीटल इएमएफ मीटर,ओवाइजा बोर्ड, घोस्ट मीटर प्रो आदि उपकरण रहते हैं। जिसके माध्यम से इनर्जी, स्ट्रेंथ, साउण्ड और आभासी दुनिया की हरकतों की पहचान करते हैं। और फिर अपने रिसर्च को अंजाम तक पहुंचाते हैं। 

Wednesday 14 August 2013

कोई हमें भी बताये देश प्रेम होता है क्या?


प्रणव प्रियदर्शी
स्वतंत्रता दिवस का नाम जेहन में गूंजते ही एक अलग ही रोमांच और खुशी से मन इठला उठता है। ऐसा किस कारण से होता है? कभी सोचा है हमने? स्वतंत्रता शब्द के स्वाद से या फिर दिवस के अनुराग से? स्वतंत्र फिजां में सांस लेने से या फिर किसी त्योहार के आगाज से? रविवार के अलावा सप्ताह में एक और छुप्ती जुड़ने के उत्साह से? वजह कई हो सकते हैं, लेकिन एक वजह शायद ही किसी के मन कुहुक उठती हो। वह ये कि स्वतंत्रता दिवस एक ऐसा महत्वपूर्ण दिन है, जिस दिन हमें मौका मिलता है अपने वीर शहीदों के अनुग्रह में नतमस्तक होने का।
     विडंबना यह है कि नतमस्तक होने पर भी सिर्फ हमारा मस्तक ही झुकता है, मन नहीं झुकता। और मन को झुकाने के लिए हम कोई पहल भी नहीं करते। आखिर करें भी कैसे? क्योंकि हमें न खुद से प्यार है, न अपनी जिंदगी से। जिस आबोहवा में रहते हैं, जिस सरोकार में सांस लेते हैं, उससे न कोई लगाव है। भारतीयता या राष्ट्रवाद क्या होता है, न उस तरफ कोई झुकाव है। हमें न अपनी संस्कृति का कोई मलाल है और न ही अपनी सामाजिक जीवन पद्धति से कोई आकर्षण। हमें अपनी विरासत के प्रति न मोह है और न भविष्य के प्रति कोई दृष्टि। 
       इसी का नतीजा है कि अभी स्वतंत्रता दिवस का समय है और पाकिस्तान ने जम्मु-काश्मीर के पुंछ में षड्यंत्र कर हमारे पांच जवानों की हत्या कर दी। जिसमें चार जवान बिहार के ही थे। पाकिस्तान के प्रति पूरे देश में आक्रोश दिखा। लेकिन बिहार ने सामूहिक रूप से इनके प्रति अनुग्रह का भाव नहीं दिखाया। उनके शव को जब पटना हवाई अड्डे पर लाया गया तो सत्ताधीन सरकार के किसी भी मंत्री को इतनी भी फुर्सत नहीं थी कि उनका सादा स्वागत भी कर पाते। इस कारगुजारी के बारे में जब उनसे पूछा गया तो उल्टे पूछनेवाले पर ही बरस पड़े। आक्रोश में मन का दबा रंग बाहर छिटक ही जाता है। ऐसा हुआ भी। तीन मंत्रियों के छिटके रंग ने सरकार का रंग उतार दिया। वे हमारे ही द्वारा चुने गये प्रतिनिधि हैं। उनके रंग में भी तो हमारा रंग घुला है। वे हमारे ही अच्छे-बुरे रंग का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए उनके दिये गये बयान के मर्ज को अपने मन के तराजू पर भी तौलना जरूरी है। मंत्रियों ने कोई नयी बात नहीं कही। उन्होंने हम सबकी बात कही है। देश प्रेम के नाम पर हमारे-आपके मन में क्या चलता है, उसका भेद खोला है।
      ग्रामीण विकास मंत्री भीम सिंह ने कह डाला- 'जवान शहीद होने के लिए ही होते हैं। लोग सेना और पुलिस में नौकरी क्यों लेते हैं?' भीम सिंह ने भीम की तरह मोटी बात कही। हम साधारण जन में भी क्या शहीदों के लिए ऐसी ही भावना नहीं है? सेना और पुलिस की नौकरी में सभी देश प्रेम से आप्लावित होकर ही तो नहीं जाते। अधिकांश के लिए ऐसी नौकरी देश सेवा नहीं विवशता है। इस तरह की नौकरी में हर समय मौत मौके के इंतजार में खड़ी रहती है, फिर भी रोटी की विवशता उससे टकरा देती है। अगर सिर्फ सेवा भाव से लोग इस ओर जाते तो नौकरी शब्द सेना और पुलिस के लिए अपमानित शब्द होता। 
     इसके बाद बिहार के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह ने पाकिस्तान का पक्ष लिया था। उन्होंने शहीद जवानों के परिजनों के अनशन को नाटक बताया था। क्या हमारे देश में ऐसे लोग नहीं हैं, जो खाते तो इस देश का हैं, लेकिन पक्ष पाकिस्तान का लेते हैं? क्या हमारे देश में अनशन अपने स्वार्थलोलुप इच्छाओं को मनवाने के लिए नहीं किया जाता?
    बात से बात निकली और शहीद जवान प्रेमनाथ सिंह के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होने के बारे में बिहार के विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्री गौतम सिंह ने कह डाला- 'क्या फर्क पड़ता है।' गौतम बुद्ध तो ये है नहीं कि इनकी बातों को अनासक्ति की साधना से उत्पन्न मध्यमा, बैखरी मान लिया जाता। बुद्ध की जगह सिंह हैं, इसलिए तूफान मचना ही था। लेकिन उन्होंने क्या गलत कहा! जवानों के शहीद होने से देश में कितने लोगों की भावुकता लिरजती है? कितने को फर्क पड़ता है कि इसकी पड़ताल करे कि कबतक सीमा पर हमारे देश के जवान खून बहाते रहेंगे और प्रतिफल कुछ नहीं निकलेगा। जिनसे इनकी उम्मीद की जाती है, वे भी तो दुश्मनों का रहनुमा बन कर बैठे हैं।
      बजाहिर, हमें स्वतंत्रता दिवस एक अवसर प्रदान करता है। एक ऐसा अवसर कि हम विचार कर सकें कि देश प्रेम की भावना हमारे भीतर कैसे पल्लवित-पुष्पित हो सके? कैसे अपने चारों ओर के फूल-पत्तों, भाव-भंगिमा के प्रवाह में सम्मलित होकर अपने प्रेम को विस्तार दे सकें। कैसे हम स्वतंत्रता के मूल्य को समझ कर उसे आत्मसात करने की ओर बढ़ सकें। कि कैसे निढाल होती जिंदगी के बीच मरते सपनों के बीज को फिर से जगा सकें।

Monday 29 July 2013

सियासत के दावों में जनता का बहाना

प्रणव प्रियदर्शी
सरकार कौन बनाती है, जनता। सरकार किसके लिए बनती है जनता के लिए। सरकार किसके द्वारा संचालित होती है, जनता के द्वारा। जब नेताओं को विरोधी दल पर हमला करना होता है तो वे जनता का ही सहारा लेते हैं। जब उन्हें बोलने के लिए कुछ भी नहीं सूझता तो जनता के कंधे पर ही हाथ घुमाते हैं। जनता फलां पार्टी या दल को माफ नहीं करेगी, जबकि माफ वो खुद नहीं करना चाहते। जनता चुनाव में बदला लेगी, जबकि वो खुद बदला लेना चाहते हैं। तथाकथित नताओं को जैसे जनता के मनोविज्ञान पर अधिकार है। जैसे वे जनता की भावनाओं के अनुसार ही हर काम करते हैं। हर घात में जनता, प्रतिघात में जनता। खोजें कहां है जन की सत्ता? अक्सर कहा जाता है- ये जो पब्लिक है, सब जानती है। सचमुच पब्लिक ही सब जान सकती है। उसे बहकाया भी नहीं जा सकता। लेकिन भारतीय लोकतंत्र में पब्लिक कहां है? जनता है। लोक है। इसी से जनमत है, लोकमत है। कारण जो भी हो, यहां की जनता अभी पब्लिक नहीं बन सकी है। इसलिए इसे मुर्ख समझा जाता है। मुर्ख बनाया जाता है। मुर्ख बनाने का हथकंडा अपनाया जाता है। मुर्ख बनाये रखने का षड्यंत्र किया जाता है।  सियासत के दो ही खिलाड़ी हैं-पक्ष और विपक्ष। पहला जो कुछ भी बोले, दूसरा उसका विरोध करे। अपवाद स्वरूप ही  बमुश्किल किसी मुद्दे पर दोनों को एक होते देखे जाते हैं। जनता तो एसे अफसाने का केवल बहाना है। वह इसलिए कि जनता की स्वतंत्र कोई आवाज नहीं है। अगर पत्रकारिता और साहित्य के माध्यम से कुछ बोल भी लेती है तो उसे रैला-रैली और नारेबाजी का जाल बुन कर चुग लिया जाता है। घास की मानिंद चर लिया करता है। जनता एकटक देखती रह जाती है और नेता चुपके से अपनी पीठ थपथपा फिर सामने आता है। फिर वही खेल होता है। फिर-फिर ऐसा ही किया जाता है। क्या जनता का अर्थ विकल्प की प्रतिबद्धता में किसी एक पर बटन दबाना है? क्या लोकतंत्र का अर्थ जनता को मुर्ख बनाना है? बहाना चाहे जो हो, लेकिन देश महज कागज पर बना नक्शा नहीं होता।   

Monday 22 July 2013

बुद्ध सुवास हैं, बारूदी गंध भी सोख लेंगे

प्रणव प्रियदर्शी
बोधगया में सात जुलाई को हुआ शृंखलाबद्ध बम विस्फोट कई मायने में अलग है। बिहार में यह अपने तरह की पहली घटना है। वहीं, दुनिया में किसी बौद्ध मंदिर पर हुए हमले में भी इसतरह की यह पहली घटना है। इसने यह साबित कर दिया है कि अब निर्मम समय की धार बांधना एक फरेबे-आरजू है। ऐसा इसलिए कि हम इस धरती को नर्क बनाने पर तुले हैं और स्वर्ग किसे कहते हैं, जानना नहीं चाहते। इस परिप्रेक्ष्य में मुझे आस्कर वाइल्ड की एक कहानी याद आ रही है। एक आदमी मरा। जिंदगी में जो अच्छा-बुरा करना था, सब करके मरा। परमात्मा के सामने न्यायालय में उपस्थित किया गया। परमात्मा नाराज था। उसने कहा, बहुत पाप किए तुमने। तुम्हारे पास अपने किए गये पापों का कोई उत्तर है? उस आदमी ने कहा, जो मैं करना चाहता था, वह किया। उत्तरदायी मैं किसी के प्रति नहीं हूं। परमात्मा थोड़ा चौंका। उसने कहा, तुमने हिंसा की, हत्याएं कीं, खून किये। आदमी ने कहा, निश्चित ही। तुमने धन के लिए लोगों की जानें लीं? तुमने व्यभिचार किया, दुष्कर्म किया? उसने कहा निश्चित ही। उस आदमी के चेहरे पर थोड़ी भी शिकन नहीं थी। न अपराध का कोई भाव था, न कोई चिंता थी। परमात्मा थोड़ा बेचैन होने लगा। अपराधी बहुत आए थे, लेकिन यह कुछ नए ही ढंग का आदमी था। परमात्मा ने कहा, जानते हो, तुमारा यह बार-बार कहना कि हां! निश्चित ही, मुझे संशय में डाल दिया है। मैं तुम्हें नर्क भेज दूंगा! उस आदमी ने कहा, तुम भेज न सकोगे। क्योंकि, मैं जहां भी रहा नर्क में ही रहा। अब तुम मुझे कहां भेजोगे?
        यह सुन कर परमात्मा के चेहरे पर पसीना छलक आया। उसने घबराहट में कहा कि फिर मैं तुम्हें स्वर्ग भेज दूंगा। उस आदमी ने कहा, यह भी न हो सकेगा। परमात्मा ने कहा - तुम आखिर हो कौन? मेरे ऊपर कौन है, जो मुझे रोक सके तुम्हें स्वर्ग भेजने से! उस आदमी ने कहा, मैं हूं, क्योंकि मैं सुख की कल्पना ही नहीं कर सकता। हर सुख को दुख में बदल लेने में मैं इतना निष्णात हो गया हूं कि तुम मुझे स्वर्ग न भेज सकोगे। तुम भेजोगे, मैं नर्क बना लंूगा। मैंने कभी सुख का स्वप्न नहीं देखा। सुख की कल्पना नहीं की। तुम मुझे स्वर्ग कैसे भेजोगे? और कहते हैं, मामला वहीं अटका है।
          यह किसी एक आदमी की कहानी नहीं है। यह विकृत होते मानव जाति की कहानी है। नर्क कहीं दूर आसमां में स्थित कोई उल्का पिंड नहीं है और न ही स्वर्ग किसी उद्यान में लिपटा अमरबेल। ये हमारे मन के भावों के दो पलड़े भर हैं। जो नर्क में जीने को बहुत दिनों तक अभिशप्त होता है, इससे उबरने का बहुत दिनों तक कोई रास्ता भी नहीं सूझता तो उसे फिर इसकी आदत पड़ जाती है। वह इससे एक रस ग्रहण करने लगता है। उससे नर्क से ही आसक्ति हो जाती है। वह नर्क को ही सत्य और स्वर्ग समझ बैठता है। फिर वह जहां जाता है, अपना नर्क निर्मित कर लेता है। जो सुख, स्वप्न और स्वर्ग की बातें करता है, वह उसे शत्रु जैसा प्रतीत होता है। उसकी दृष्टि स्वर्ग देखने की शक्ति खो बैठती है।
           ऐसे माहौल में अगर बौद्ध स्थल पर भी हमला होता है तो आश्चर्य की कोई बात नहीं। इस हमले के पीछे किसके हाथ हैं, इसका भी कोई मायने नहीं है। सोचने की बात है कि आखिर हम सभ्यता के किस बंजर में भूमि में आकर खड़े हो गए हैं? क्या मनुष्य जाति अपने आदम स्वरूप में लौटने को मजबूर हो गया है? हमारे विकास की उर्ध्व गति स्थूलता से उठा कर स्तुत्य द्वीप में ले जाने की समर्थता खो चुकी है? बुद्ध ने अपने समय की कुरूपता का रेचन कर मानवीय ऊंचाई का प्रतिमान गढ़ा था। अहिंसा, करुणा, शील, समर्पण जैसे मूल्यों को नये तरह से पुनरस्थापित किया था। उन्होंने पूरी मानव जाति को दुख से मुक्त रहने के उपाय सुझाए थे। बौद्ध धर्म की उदारता पूरी मनुष्यता को संरक्षित करती है। इसी से प्रभावित होकर डॉ. भीमराव आंबेडकर ने पूरी दलित जाति के उत्थान के उद्देश्य से बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। अगर हम इससे आगे का प्रतिमान नहीं गढ़ सकते तो उससे उसका संरक्षित रहने के अधिकार पर हमला बिलकुल अनिष्टकारी है।
            बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति की स्थली पर हमला कर हम बुद्ध या बौद्धों को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। क्योंकि; उन्होंने पहले से ही ऐसी संभावनाओं का उपाय कर निर्वाण लिया था। बुद्ध ने सर्वप्रथम परमात्मा को मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा परमात्मा है ही नहीं। जब परमात्मा नहीं है, तो पूजा किसकी? इसलिए उनके धर्म में मूर्ति पूजा की तिलांजलि हो गयी। आश्चर्य तो ये है, जो हमें मूर्ति से छुटकारा दिलाता है, उसकी ही मूर्ति बना कर पूजा शुरू हो जाती है। बुद्ध का सारा जोर मनुष्य पर था। परमात्मा मनुष्य के भीतर उठता वह सुवास है, जो संपूर्ण शृृष्टि अपने में व्याप्त कर लेता है। इसलिए अवतारवाद की धारणा भी यहां खंडित हो जाती है। बुद्ध के पास जो दीक्षा लेने जाता, कहता - बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। किसी ने बुद्ध से पूछा कि आप तो कहते हैं अभिवादन योग्य कोई नहीं, फिर कौन के प्रति लोग आकर कहते हैं बुद्ध के शरण जाता हूं? तो बुद्ध ने कहा, बुद्ध का अर्थ ही वही है, जिसने जान लिया कि मैं नहीं हूं। शून्य के प्रति शरण जाते हैं। मैं सिर्फ बहाना हूं।  मैं नहीं रहूंगा, तब भी यह पाठ जारी रहेगा। कहते हैं बुद्ध के मरने के पांच सौ वर्ष तक बुद्ध की कोई प्रतिमा नहीं बनायी गयी। बुद्ध ने कहा, जरूरत क्या है? मैं जिस वृक्ष के नीचे ज्ञान को उपलब्ध हुआ था, उसी की पूजा कर लेना। इसलिए बोधि वृक्ष की पूजा चली। परमात्मा के पास तो हर कोई झुक जाता है, वृक्ष के पास झुकना थोड़ी मुश्किल बात है। बुद्ध का जोर पूजा पर नहीं था, फिर भी उन्हें लगा होगा कि भारतीय मन पूजा के बिना नहीं मानेगा। इसलिए उन्होंने वृक्ष के रूप में एक प्रतीक दे दिया। पांच सौ वर्षों तक बुद्ध के जो मंदिर बने, उनमें सिर्फ बोधि वृक्ष का प्रतीक बना दिया जाता था। काफी था। वृक्ष जीवन का प्रतीक है। हालांकि बोधगया में मौजूद बोधि वृक्ष को नुकसान नहीं पहुंचा है। आगे भी नहीं पहंुचे कामना यही होगी। लेकिन नहीं पहुंचने की गारंटी कौन ले सकता है? हमले के मद्देनजर बिहार के अन्य ऐतिहासिक मंदिरों की सुरक्षा भी बढ़ा दी गयी है। लेकिन ऐसी व्यवस्था हर समय के लिए नहीं हो सकती। बुद्ध, महावीर, जीसस, कबीर, मुहम्मद सभी मानवीय चेतना की ऊंचाई और शिखर हैं। इन्हें नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता। ये सभी सुवास हैं, बारूदी गंध भी सोख लेते हैं। इनके कीर्ति स्थल को नुकसान पहुंचा कर हम अपने अस्तित्व पर कुठाराघात कर रहे हैं। अगर हम इन शिखरों के आदर्श को हमारे जीवन से हटा दें तो फिर जीवन यात्रा का अर्थ ही समाप्त हो जायेगा। इन्हें हमारे जीवन से, स्मृति से हटाने की साजिश चल रही है। ऐसी साजिश आतंकवाद, संप्रदायिकता, कट्टरता के साथ-साथ और भी कई स्तरों से की जा रही है। जिन्होंने अपने जीवन को नर्क बना लिया है, उन्हें दूसरे का स्वर्ग बर्दाश्त नहीं हो रहा। वे पूरी दुनिया को नर्क में तब्दील कर देना चाहते हैं। जीवन से जब संस्कृति, सौंदर्य और आदर्श खत्म होंगे तो मनुष्य एक चेतन पदार्थ के सिवा कुछ नहीं बचेगा। पदार्थ का स्वभाव है विचलन। एक जगह से दूसरी जगह तक, ऊपर  से नीचे की तरफ। पदार्थ शोर कर सकता है, खुद से बोल नहीं सकता। हाथ में जो दे दो ले लेगा, कोई विचार नहीं कर सकता। इससे बाजार सधता है। एकाधिकार बढ़ता है। पूंजी मुखर होती है। हैवानियत के सिपहसलार का हित सधता है। अगर इसतरह के षड्यंत्र का मुंहतोड़ जवाब देना है तो हमें अपने अंतस के उजास को तेजतर करना होगा। इतना कि किसी मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारे का मुंहताज न होना पड़े।
           हमारी कमजोरी ही षड्यंत्रकारियों का संबल बन जाती है। यह ठीक है कि अतीत के पदचिह्नों को भी सम्हालना है, उससे सीखना है। लेकिन किसी चीज के प्रति अतिरिक्त मोह हमारे सामने से वह आईना छीन लेता है, जिसमें हम अपनी गहराई देख सकें। बुद्ध ने भी तो कहा है-अप्प दीपो भव। हमारी सभ्यताएं फिर किसी बुद्ध को पैदा नहीं कर पा रही है, इसलिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। हम सभ्यता के वर्तमान मोड़ पर आकर रुक से गये हैं। प्रकृति रुकना बर्दाश्त नहीं करती। जो चीजें ऊपर नहीं उठतीं, वे नीचे की तरफ गिरने लगती हैं। यही कारण है कि हम चेतना के शिखर से लुढ़ कर मरघटी संत्रास में जीने को विवश हो गये हैं। अकारण बुद्ध ने  नहीं कहा है - सम्यक स्मृति। 

Tuesday 16 July 2013

...जहां साथ फहराते हैं तीन धर्मों के पताके!


कुछ जज्ब-ए-सादिक हो, कुछ इखलासो इरादत
हमें इससे क्या बहस वह बुत है कि खुदा है
प्रणव प्रियदर्शी
रांची : एक तरफ अजान के स्वर, दूसरी तरफ बौद्ध मंदिर से आती मृदंग की आवाज और कुछ ही देर बाद शिव मंदिर से उठती घंटे की ध्वनि। हर स्वर और ध्वनि में एक तारतम्यता, एक संदेश, फिर भी एक-दूसरे को पछाड़ने की प्रतिस्पर्धा से बहुत दूर। ऐसे ही आदर्शों का प्रतिमान गढ़ रहे हैं डोरंडा के जेएमपी कैंपस में एक  ही कतार में अगल-बगल अवस्थित  जामा मस्जिद, बौद्ध मंदिर और शिव मंदिर के प्रांगण। यही चीज यहां के जीवन व्यवहार में भी दिखती है। मस्जिद में रहनेवाले लोग हों अथवा मंदिरों की सुरक्षा में लगे लोग, सभी विद्वेष रहित भावना से अपने-अपने कार्य में लगे रहते हैं और सहयोग की घड़ी आने पर एक-दूसरे का संबल भी बनते हैं।
           कैंपस में प्रवेश करते ही प्रकृति का स्नेहिल स्पर्श अपने-आप मन की गांठें खोलना शुरू करा देता है। आगे बढ़ते ही मस्जिद का स्वच्छ वातावरण, बौद्ध मंदिर के चारों तरफ मंत्रों से सुसज्जित छोटे-बड़े पताके(लुङदर) और शिव मंदिर की विशिष्टता, आध्यात्मिकता के कई रंगों से एकसाथ साक्षात्कार करा देती है।  माहौल के इस अनुराग में मन की बेडि़यां तोड़ आत्मा कुछ क्षण के लिए अपने अनहद स्वरूप में अवस्थित न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता।  यहां सुबह का दृश्य तो और भी मनमोहक होता है। हिंदू, मुस्लिम और बौद्ध तीनों धर्मों के लोग यहां जुटते हैं और अलग-अलग पांत में अपने आराध्य के सानिध्य में पहुंचने के लिए बेसब्र होते हैं। लौटते वक्त मस्जिद से निकलते लोग मंदिर से नजर बचा कर नहीं निकल सकते और मंदिर से नतमस्तक होकर निकले लोग मस्जिद को नजरअंदाज नहीं कर सकते। बौद्ध गुम्बा दोनों के बीच में अवस्थित है। इसलिए कुछ क्षण के लिए अगर रुकना हो तो एडि़यां यहीं गड़ जाती हैं। जान-पहचान रहने पर सलाम-नमस्ते भी हो जाता है। फिर सभी अपने-अपने कारवां पर निकल पड़ते हैं। मन की दूरी छिटक जाती है, संवाद के दायरे बढ़ जाते हैं।
               तीनों आराध्य स्थल का एक ही साथ अवस्थित होना महज एक संयोग है या सोची-समझी योजनाओं का नतीजा, किसी को मालूम नहीं है। लेकिन इतना सभी जानते हैं कि जेएमपी में इन तीनों धर्मों के लोग रहते हैं। इसलिए जरूरत के अनुसार एक के बाद एक की स्थापना होती गयी। उन दिनों समाज में शायद सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने की न गुंजाइश होगी और न ही इसकी संभावना दिखी होगी। बाद में अलग-अलग जगहों पर भले ही कई सांप्रदायिक संकीर्णताएं उभरीं, लेकिन ये जगह आज भी उसी समासिक संस्कृति की वाहक बनने की परंपरा निभा रही है। ऐसा नहीं है कि जेएमपी कैंपस में अवस्थित होने के कारण यहां केवल जेएमपी के ही स्टाफ अराधना कर सकते हैं, बल्कि बाहर के लोग भी यहां आते हैं। ऐसा प्रचलन भी उसी परंपरा का हिस्सा है, जब धार्मिक स्थल किसी विशेष वर्ग का नहीं, बल्कि उसके द्वार सभी के लिए समान रूप से खुले रहते थे।
              जेएमपी कैंपस में अवस्थित मस्जिद, जामा मस्जिद के नाम से जाना जाता है। इसका स्थापना काल का सही समय वहां के लोगों को याद नहीं है। बस इतना ही कहते हैं यह डोरंडा का सबसे पुराना मस्जिद है। कुतुमुद्दीन रिसालदार बाबा यहीं पर पेड़ के नीचे इबादत करते थे। उन्हीं की याद में इस मस्जिद की नींव रखी गयी। मस्जिद के दूसरी तरफ अवस्थित शिव मंदिर का स्थापना काल 1770 ईस्वी बताया जाता है। कहा जाता है कि उस समय लखनऊ से यहां पर पुलिस बल की एक टुकड़ी आयी थी, उन्हीं लोगों ने इसकी नींव रखी। मंदिर-मस्जिद के बीच स्थित बौद्ध मंदिर (काग्यु समडुप लिङ बौद्ध गुम्बा) का स्थापना काल 2002 बताया गया। जेएमपी में कुछ बौद्ध धर्मावलम्बी भी हैं, उनकी सुविधा के मद्देनजर इसकी स्थापना की गयी। शिव मंदिर कैंपस में जमीन खाली होने के कारण यहीं पर इसकी नींव रखी गयी।

मो. नौसाद ( इंतजामिया, जामा मस्जिद) : इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता। यहां पर हम लोग एक-दूसरे का आदर करते हुए इसी भावना के साथ रहते हैं। इसलिए कभी कोई तनाव नहीं होता। जब से मैं यहां हूं, मुझे कभी भी किसी सांप्रदायिक विद्वेष सेे साबका नहीं पड़ा। हर जगह जब सांप्रदायिक सौहार्द का वातावरण बिगड़ता है, लोग यहां पूरी तरह से महफूज महसूस करते हैं।
भीमलाल पाठक (पुजारी, शिव मंदिर) : लोगों के पास जब अतिरिक्त समय होता है, तब संाप्रदायिक असहिष्णुता जैसे फिजूल चीजें दिमाग में जगह बनाती हैं। यहां पर सभी अपने-अपने कार्य में व्यस्त हैं। न तो उनके पास इतना समय है और न ही कोई संकीर्ण भावना।
सभी अपने-अपने आराध्य की पूजा करने के निमित्त से आते हैं और ध्येय पूरा होने पर शांतिपूर्वक चले जाते हैं। यही कारण है कि इस स्थान की सादगी बरकरार है और यही यहां की संपत्ति है।
टासी दोर्जे लामा (प्रमुख, बौद्ध मंदिर) : तीनों धर्म के मंदिर एक साथ अवस्थित होने के कारण मुझे बहुत ही अच्छी अनुभूति होती है। आराधना स्थल अलग-अलग हों, लेकिन लक्ष्य तो एक ही है। धर्म भी तो ऐसा ही कहता है। जीवन जीने के लिए मिला है, इसे फिजूल की बातों में उलझाने से क्या फायदा! एकता, करुणा, सहिष्णुता यही तो मनुष्य की थाती है, इसे सम्हाल कर रखने की जरूरत है। 

जिंदगी का तो एक अलग ही फसाना



प्रणव प्रियदर्शी
कल रात अचानक जिंदगी ने दिए थे मेरे हाथों में अपने हाथ। कहा था उसने यूं ही नहीं है जिंदगी में स्वर और साज। तू क्यों परेशान हुआ जाता है, देख कर सरोकारों का वीभत्स अंदाज। मैं हैरान रह गया, सुन कर बातें उसकी। हतप्रभ था, यह सोच कर कि कितने दिनों से मेरी आहटों में नहीं सधा है कोई राग, लेकिन क्यों इसे फुर्सत हुई पुचकारने की आज। भीतर कोई बांसुरी बजे तो बाहर के हर बिखरे स्वरों को भी आदमी गीत बना दे। पर ऐसी स्थिति मेरे भीतर इधर बहुत दिनों से नहीं बनी थी। फिर भी जब जिंदगी ने दो सहानुभूति के पल दिये तो मन को अलसाना लाजिमी था ही। मैंने अपने भीतर के हर बिखरे नक्षत्रों का एक साथ ही मुआयना किया। हर ज्वालामयी जलन को स्नेह का पारावार दिया। लेकिन कुछ दाग-धब्बों का तत्क्षण मिटना संभव नहीं था। गर्दिशें भी तो एक ही साथ किसी को नहीं ढकते। इसलिए इसे मिटने में भी समय तो लगता ही है। दुख का कीचड़ अगर वर्षों से मन में जमा हो तो सूखने में वक्त लगता ही है।  मन हल्का हो तो सबकुछ आसान लगता है। इसी मन:स्थिति में देर रात रहने के बाद नींद आगोश में लेना चाही। पर, सुबह उठने की जल्दी रात में और बेचैनी फैलाती है। नींद भी अतिथि की तरह आयी और सपनों में सुराख पैदा करने लगी। मेरी दृष्टि ओझल नहीं थी, इसलिए देख रहा था किस तरह हमारा आराम, हमारी नींद, हमारी खुशी भी हमारी नहीं रह गयी है। सब कुछ दूसरों का गुलाम बनती जा रही है। जरूरतें मुंह चिढ़ाते हुए आती हैं और अनुभति को समान में बदल कर चली जाती है। व्यवस्था सिर्फ सपने दिखाती है और भीड़ में बदल कर स्वत्व  छीन लेती है। सुरक्षा बाजार में खड़ा कर लूट लेती है। देख रहा था किस तरह अपनेपन के जाल में फांस कर हर कुरीति सिर चढ़़ कर बोल लेती है। किस तरह मंजिलों के गुंबद र्गिदशों में पड़ कर दम तोड़ देते है। इतना ही नहीं यह भी कि किस तरह स्वप्निल अनुराग सरे राह बिखर जाता है। कदम अहले तलक ही पड़ते हैं और कोसों जमीं नहीं मिलती।   

आज भी सिहर उठता है बथानी टोला

बिहार : 11 जुलाई, 1996 को भोजपुर में हुआ था बथानी टोला नरसंहार
पाश ने कहा है-सबसे खतरनाक वह चांद होता है/ जो हर हत्याकांड के बाद/ वीरान हुए आंगनों में चढ़ता है/ पर आपकी आंखों में/ मिर्ची की तरह नहीं गड़ता है। बिहार का र्चिचत बथानी टोला नरसंहार कुछ ऐसे ही मंजर को परिभाषित करता है। इसकी यादें आज भी जब जेहन में उतरती हैं तो सांसें थम जाती हैं। 11 जुलाई, 1996 को हुआ यह नरसंहार एक ऐसा आईना है, जिसमें राज्य ही नहीं संपूर्ण देश का सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पाखंड एक साथ दिखता है।



प्रणव प्रियदर्शी
बथानीटोला (भोजपुर) । नईमुद्दीन के छह परिजन बथानी टोला जनसंहार में मारे गए थे। नरसंहार की यादें जेहन में आज भी ताजा है। नईमुद्दीन बताते हैं कि बड़की खड़ांव गांव में जब रणवीर सेना ने मुस्लिम और दलित घरों पर हमले और लूटपाट किए, तब 18 मुस्लिम परिवारों सहित लगभग 50 परिवारों को वहां से विस्थापित होना पड़ा। उसी के बाद वे बथानी टोला आए। वहां भी रणवीर सेना ने लगातार हमला किया। जनता ने छह बार अपने प्रतिरोध के जरिए ही उन्हें रोका। पुलिस प्रशासन-सरकार मौन साधे रही। आसपास तीन-तीन पुलिस कैंप होने के बावजूद हत्यारे बेलगाम रहे और सातवीं बार वे जनसंहार करने में सफल हो गए।
         किसी खौफनाक दुस्वप्न से भी हृदयविदारक था जनसंहार का वह यथार्थ। 3 माह की आसमां खातुन को हवा में उछाल कर हत्यारों ने तलवार से उसकी गर्दन काट दी थी। एक गर्भवती स्त्री को उसके अजन्मे बच्चे सहित हत्या की गई थी। नईमुद्दीन की बहन जैगुन निशां ने उनके तीन वर्षीय बेटे को अपने सीने से चिपका रखा था, हत्यारों की एक ही गोली ने दोनों की जिंदगी छीन ली थी। 70 साल की धोबिन लुखिया देवी जो कपड़े लौटाने आई थीं और निश्चिंत थीं कि उन्हें कोई क्यों मारेगा, हत्यारों ने उन्हें भी नहीं छोड़ा था। श्रीकिशुन चौधरी जिनकी 3 साल और 8 साल की दो बच्चियों और पत्नी यानी पूरे परिवार को हत्यारों ने मार डाला था। कुल मिलाकर 8 बच्चों, 12 महिलाओं और 1 पुरुष को मार डाला गया था। जिनके परिजन बचे थे, वे इस आस पर टिके थे कि आरोपियों को सजा मिलेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
नरसंहार के सभी आरोपी बरी
हालांकि भोजपुर जिले के सहार ब्लाक के बथानी टोला में 11 जुलाई, 1996 को हुए दलित हत्याकांड के सभी 23 आरोपी 16 अप्रैल, 2012 को पटना उच्च न्यायालय द्वारा दोषमुक्त करार कर दिए गए। गौरतलब है कि मई, 2010 में आरा जिले के एक सत्र न्यायालय ने इन सबको दोषी ठहराते हुए इनमें से तीन को मृत्युदंड एवं बाकी के बीस लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
फैसले के बाद हुई थी राजनीति
सभी बिहार सरकार पर आरोप लगा रहे थे कि उसने इस मुकदमे पर ठीक से ध्यान नहीं दिया। बिहार में हाथ मिलाते हुए नीतीश और नरेंद्र मोदी की तस्वीर के छपने पर खूब हंगामा हुआ था। नीतीश कुमार गुजरात के कत्लेआम में बहे बेगुनाहों के लहू से अपने दामन को बचाने का नाटक कर रहे थे और बथानी टोला के वक्त रणवीर सेना को संरक्षण देने वाली राजद और दूसरी वर्गीय पार्टियां नीतीश के खिलाफ बयानबाजी करके अपने को सेकुलर साबित करने की जी तोड़ कोशिश कर रही थीं।
जमीन विवाद अभी भी अनसुलझा
दरअसल यह पूरा संघर्ष जमीन पर अधिकार, आपसी वर्चस्व और किसानों के हितों की रक्षा को लेकर चलता रहा और समय-समय पर इसने जातीय दायरा भी अख्तियार कर लिया था। सबसे गंभीर समस्या यह रही कि राज्य सरकारों और प्रशासन ने संघर्ष और समस्या के मूल बिंदुओं को तलाशने और उनका सर्वसम्मत समाधान ढूंढ़ने की अभी तक न तो कोई ठोस पहल की और न ही देश के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले इस राज्य के राजनीतिक दलों ने ही प्रबल इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है। सरकारों और राजनीतिक दलों ने इसे न तो कानून व्यवस्था की समस्या का मामला माना और न ही कोई ऐसी समस्या जिसको समझना जरूरी हो।
फिर खूनी संघर्ष होने की आशंका
रणवीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया की 1 जून 2012 की हत्या के बाद बिहार में एक बार फिर से खूनी संघर्ष शुरू होने की आशंका घिरने लगी है। जातीय युद्ध के बीज अब फिर से पकने लगे हैं। मुखिया को 2002 में पटना से गिरफ्तार किया गया था। उन पर नरसंहार के 22 मामले थे, जिसमें से 16 मामलों में वह बरी हो चुके थे। छह मामलों में वे जमानत पर थे। बीते जुलाई 2011 को उन्हें जमानत प्राप्त हुई थी। जानकारों का कहना है कि ब्रह्मेश्वर की हत्या बथानी टोला में किए गए नरसंहार का बदला था।

Sunday 12 May 2013

सभी सीमाओं को तोड़ घटता है संयोग


जीवन में कुछ चीजें हमारे चाहने से नहीं घटती, बस घटती हैं । कब, कैसे, किसतरह कुछ कहा नहीं जा सकता। इसकी भविष्यवानी नहीं की जा सकती। इसलिए इसका अहसास ही अलौकिक होता है। इसकी संजीदगी बहुत ही निर्दोष एवं निर्निमेषपूर्ण होती है, बिलकुल अनछुए हाथों का अविस्मरणीय स्पर्श जैसा।
प्रणव प्रियदर्शी
रास्ते में चलते हुए कभी-कहीं वर्षों पुराना कोई बिछड़ा साथी मिल जाता है, तो हम विस्मयपूर्ण ढंग से यकायक पूछ बैठते हैं-अरे तुम, यहां कैसे? कभी किसी अजनबी से अनजाने में एक मुलाकात के बाद धीरे-धीरे हम कैसे एक-दूसरे की पसंद बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता। जीवन में कभी-कभी अनचाहे ढंग से कुछ ऐसा घट जाता है, जिसके बारे में पहले हम कभी  सोचे ही नहीं होते और वही एक घटना हमारे समग्र जीवन की दिशा बदल कर रख देती है। हम इसे संयोग का नाम दें या  किसी अज्ञात शक्ति का हाथ मानें अथवा अनिश्चित जीवन का एक पहलू बात एक ही है।
         जीवन ऐसे ही छोटे-छोटे धागों से रचा-बुना होता है। कभी हमारी अपेक्षा के अनुकूल तो कभी प्रतिकूलता की नाव पर चढ़ कर बढ़ता जाता है। संयोग का इसमें अहम स्थान होता है, क्योंकि यह हमारे चाहने से नहीं घटता, बस घटता है। कब, कैसे, किस तरह कुछ कहा नहीं जा सकता। इसकी भविष्यवानी नहीं की जा सकती। इसलिए इसका अहसास ही अलौकिक होता है। इसकी संजीदगी बहुत ही निर्दोष एवं निर्निमेषपूर्ण होती है, बिलकुल अनछुए हाथों का अविस्मरणीय स्पर्श जैसा। इसलिए तो कहा गया है कि हमारे चाहने से जो घटित होता है, वह क्षुद्र ही हो सकता है।  जो चीज अचानक, अनायास, अपने-आप, अनअपेक्षित ढंग से समय के किसी ठहरे हुए पल में घट जाती है; वही महान, दिव्य और हमें सार्थकता प्रदान करनेवाली होती है।
           फिर भी गर्दिश के दिनों में अपनी हर कोशिशों से थक हार कर हम अंतत: ऐसे ही किसी संयोग, चमत्कार या अदृश्य हाथों का सहारा पाने के लिए विकल रहते हैं। कोई किसी धार्मिक स्थल में जाकर इसके लिए विनती करता है, तो कोई मन मसोस कर जीने के प्रतिबद्ध होता है। यहीं से तो आध्यात्म का प्रादुर्भाव होता है। भले ही हम अपने-आप को आध्यात्मिक या आस्तिक कहना पसंद न करें; लेकिन जो जीवन की हर संभावनाओं के प्रति खुला रहता है, वह प्राकृतिक रूप से आस्तिक होता ही है, हो ही जाता है। जीवन की समग्रता में आस्था रखनेवाला ही तो आस्तिक होता है, भले ही इस आस्था को कुछ भी नाम दे डालें या अनाम ही रहने दें, कुछ फर्क नहीं पड़ता।
           हां; हम बात कर रहे थे संयोग की। संयोग आपके जीवन में भी निश्चित रूप से घटा होगा, किसी-न-किसी रूप में। क्या आप बहुतों की तरह फिर से किसी संयोग के घटने की बात सोच रहे हैं, तो देर किस बात की है। अपने को अपने में कैद करना छोड़ आसपास के खुले वातावरण में स्वतंत्र रूप से सांस लें। स्वयं को जीवन की हर संभावनाओं के प्रति तैयार करें। सभी सीमाओं को तोड़, फिर देखिए कैसे घटता है संयोग।

Sunday 5 May 2013

असफलता की सीख बनी सफलता का सबब

 इंडियन स्कूल आफ माइन्स के दाखिले की परीक्षा  में पूरे भारत में प्रथम स्थान

इंडियन इंस्टिट्यूट आफ टेक्नोलॉजी, खड़गपुर में अपनी व्यापार नीति का लोहा मनवा

‘किसिंग आस्कर‘ नाम की वैज्ञानिक किताब 2012 में बेस्ट सेलर चुनी गयी

प्रणव प्रियदर्शी
रांची : प्रतिभा राहों की पहचान में मात भले खा जाए, लेकिन जब सही राह पर आती है तो प्रतिमान स्थापित करती है। कुछ ऐसा ही कर दिखाया है धनबाद के 27 वर्षीय श्री अभिनव कुमार श्रीवास्तव ने। इनकी शुरुआती असफलता ही सफलता का सबब बनी। अभिनव की कहानी किसी परिकथा से कम नहीं है, लेकिन ये कहानी शत प्रतिशत सत्य है। अभिनव किसी भी व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व के बारे में सब कुछ बता सकते हैं, उस व्यक्ति की लेखनी और हस्ताक्षर पढ़ कर। अत्यंत तेजस्वी, शांत और शर्मीले स्वाभाव के अभिनव की संघर्ष की कहानी प्रारंभ हुई 2003 से। जब अभिनव को बोर्ड परीक्षा में गणित में 100 में एक अंक आया था। अभिनव ने अपनी लेखनी देख कर आर्ट्स की पढ़ाई चालू कर दी और इग्नु से स्नातक किया। पांच वर्ष तक अभिनव अध्यन करते रहे और लेखनी कला अर्थात ‘ग्राफोलॉजी’ का भी शोध करते रहे।
  इसका निष्कर्ष ये निकला की सन 2008 में अभिनव ने इंडियन स्कूल आॅफ माइन्स के दाखिले की परीक्षा में पूरे भारत में प्रथम स्थान प्राप्त किया और इसके उपरांत अभिनव की अत्यंत ओजस्वी छवि दिन दूनी  और रात चौगुनी उभरती रही। कुशल नेतृत्व  में अत्यंत सक्षम अभिनव ने 2009 की जनवरी में इंडियन इंस्टिटयूट आॅफ टेक्नोलॉजी, खड़गपुर में अपनी व्यापार नीति का लोहा मनवाया और प्रोजेक्ट  प्रमुख के प्रभार में पूरे भारत में तीसरा स्थान प्राप्त किया। तदनुपरांत अभिनव ने एक ‘किसिंग आस्कर‘ नाम की एक वैज्ञानिक किताब लिखी, जो कि लंदन स्थित औथोर हाउस से प्रकाशित हुई है। 2012 में यह किताब बेस्ट सेलर में चुनी गई है। इनके तीन अनुसंधान पत्रिका ‘इन्स्टीट्यूट आफ पब्लिक एंटरप्राइज़स, हैदराबाद’ में प्रकाशित हो चुके हैं। ज्ञातव्य है कि यह संस्थान, इंडियन काउन्सिल आफ सोशल साइन्स एंड रिसर्च के द्वारा ‘सेंटर फॉर एक्सलेन्स इन डॉक्टोरल स्टडीस’ मान्यता प्राप्त है। ये अभी निम्स यूनिवसिर्टी, शोभनगर, जयपुर से मैनेजमेंट में डॉक्टोरेट आफ फिलॉसफी कर रहे हैं। अपनी ठोस अनुसंधान प्रक्रिया पर काम करने के कारण अभिनव को पड़ोसी मित्र देश श्री लंका की ‘मिनिस्ट्री आॅफ वॉटर सप्लाइ एंड ड्रेनेज’ ने आने का निमंत्रण दिया। अभिनव ने श्री लंका और भारत दोनों देशों में परस्पर सहयोग से पानी की समस्या कैसे दूर की जाए, जैसी समस्याओं का निदान अपने प्रॉजेक्ट के निष्कर्ष में दिया है।
  अभिनव की कार्यशैली को देखते हुए सितम्बर 2012 में इग्नु के कार्यक्रम ‘अप्रिसियेशन कोर्स इन एन्वाइरन्मेंट’ में उन्हें गेस्ट लेक्चर के रूप में आमंत्रित किया गया। इस कार्यक्रम में जल संकट और जल प्रलय की विभिन्न समस्याओं से निबटने की तकनीकों के बारे में विस्तार से बताया। इनकी लेखनी पहचानने की कला के विभिन्न पहलू पर आइआइटी, रूड़की और दिल्ली ने भी अपनी स्वीकृति दी। अभिनव ने अंतत: 1600 बच्चों की लेखनी पर शोध पूरा किया और उनके इस उत्कृष्ट कार्य को नटिओना रिसर्च यूनिवर्सिटी, हाइयर स्कूल आॅफ एकनॉमिक्स, मॉस्को, रशिया से निमंत्रण मिला। अभिनव इस कार्यक्रम में भारत से अकेले प्रतिभागी थे और नालेज मैनेजमेंट में पूरे विषय से केवल 6 प्रतिभागी निमंत्रित किए गये थे। इतनी सफलता पर अभिनव का कहना है कि ‘मैने ग्राफोलोजी से पहले अपनी जिंदगी बदली और अब दूसरों को रास्ता दिखा रहा हूं। बिना आत्मपरीक्षण का कोई भी ज्ञान व्यर्थ है। मेरी सारी सफलता का आधार ग्राफोलोजी है। अब मैं ग्राफोलोजी से सबकी सहायता करना चाहता हूं।’  अभिनव ‘सृजन 2013’ में ग्राफोलोजी पर वर्कशॉप करवाने के लिए आमंत्रित किए गये हैं। वो इस वर्कशॉप में आईएसएम, धनबाद में अपने जूनियर्स को ग्राफोलॉजी के विभिन्न पहलुओं से रुबरू करवाएंगे।

तूफान जब बैठा हुआ हो नाव में...

झारखंड हिंदी साहित्य विचार मंच ने किया कवि गोष्ठी का आयोजन

‘झारखंड के शब्द शिल्पी’ पुस्तक के प्रकाशन के संबंध में चर्चा की गई

गीतकार राम कृष्ण उन्नयन के निधन पर मौन रख कर श्रद्धा सुमन अर्पित किया गया

मंच की कुछ मांगों पर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराने की कोशिश की जाएगी

प्रणव प्रियदर्शी
रांची : धूप की अटखेलियों से परेशान हो भावनाओं की छांव की तलाश में रविवार को साहित्य प्रेमियों का जमघट प्रभात टॉवर में लगा। कवियों के बीच बैठे-बैठे लोग कब छांव को भी पीछे छोड़ चले, मुड़ कर देखने की फूर्सत नहीं बची थी। काव्य गोष्ठी नवोदित रचनाकारों से शुरू होकर वरिष्ठ रचनाकारों तक पहुंची। इस दरमियान पहचानो खुद को... नारी का सम्मान करो.. जैसी रचनाएं कवयित्री गौरी ने सुनायी। ललन चतुर्वेदी ने बदलते चेहरे की भावभंगिमा को काव्य शिल्प में पिरोकर सभी के सम्मुख रखा। धीरेंद्र विद्यार्थी ने ‘तूफान जब बैठा हो नाव में’ जैसी कविता सुना कर खूब तालियां बटोरी। शेली ने ‘किसने घर उजाड़ा मेरा’ जैसी संवेदनशील कविता से सभी को मोहित किया। प्रणव प्रियदर्शी वक्त की विडंबनाओं पर कविताओं में अपनी बात रखी- ‘बेजार होती जिंदगी/कहीं सिक्के की तरह/वक्त की कीमत भी न घटा दे।’ इनके अतिरिक्त डॉ. नीलम, डॉ. बसुदेव, डॉ अंजेश, सियाराम झा सरस, कुमार बृजेंद्र, प्रवीण परिमल, शंभु श्रीवास्तव, धीरेंद्र विद्यार्थी, कन्हैयालाल ओझा, कलावंती सुमन और बीना श्रीवास्तव आदि ने भी काव्य पाठ किया।
इससे पहले कार्यक्रम के प्रथम सत्र में डॉ दिग्विजय सहाय की अध्यक्षता में झारखंड के साहित्यकारों का परिचय कोश ‘झारखंड के शब्द शिल्पी’ पुस्तक के प्रकाशन के संबंध में चर्चा की गई। इस दौरान सर्व प्रथम कवि गीतकार राम कृष्ण उन्नयन के निधन पर दो मिनट का मौन रख कर श्रद्धा सुमन अर्पित किया गया। उनके कृतित्व व व्यक्तित्व की जानकारी कामेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव निरंकुश ने दी। उन्होंने कहा कि राम कृष्ण का निधन साहित्य जगत की अपूर्णनीय क्षति है। इसके साथ ही झारखंड के साहित्यकारों में चर्चित विदुषी कवयित्री डॉ लक्ष्मी विमल की तबीयत अचानक बिगड़ जाने के कारण उनके स्वस्थ होने की कामना भी ईश्वर से की गई। मंच की तरफ से साहित्य अकादमी का गठन करने, राधाकृष्ण पुस्तकालय स्थापित करने, चर्चित साहित्यकारों की जयंती मनाने संबंधी मांग पर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने की पुन: कोशिश करने की बात कही गई। बैठक में निर्णय लिया गया कि उपस्थित साहित्कार सम्पर्क अभियान के द्वारा अनेय साहित्यकारों से संपर्क कर प्रस्तावित परफार्मा भरवाकर तस्वीर के साथ कार्यालय में जमा करें, ताकि रांची जिला के हिंदी साहित्यकारों की परिचय पुस्तिका ‘झारखंड के शब्द शिल्पी’ का प्रकाशन यथाशीघ्र किया जा सके। कार्यक्रम

के दोनों सत्रों का संचालन विजय रंजन ने किया।

Thursday 21 February 2013

एक तरफ उसका घर, एक तरफ मैकदा...

इसबार वेलेंटाइन डे पर युवा प्रेम निमंत्रण में कम, पूजा की तैयारी में ज्यादा व्यस्त दिखे

युवाओं का अंतर्द्वंद्व और कसमसाहट उनके भीतर की सुप्त परतें उघाड़ कई बातें कह गईं 

प्रणव प्रियदर्शी
रांची : प्रेम का मुखर संदेश देने का सुअवसर वेलेंटाइन डे और एक दिन बाद ही सरस्वती पूजा का आगमन परिवर्तन की वासंती बयार के बीच हमें हमारी संस्कृति के प्रति युवाओं के रुझान का आभास दिला गया तो प्रेम के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी बतला गया। इसबार वैलेंटाईन डे की खुमारी पहले की तरह सर चढ़ कर बोलती नजर नहीं आई। आखिर, सरस्वती पूजा की तैयारी भी तो करनी थी। फूलों का गुच्छ प्रेमिका के हाथ की खूबसूरती बढ़ाए या मां सरस्वती के चरणों पर बिराजे इस कसमकश में उत्साही युवक उकता नहीं रहे थे, बल्कि धैर्य के साथ अपने अभ्यंतर में गोता लगा रहे थे। प्रेमिका के सामने प्रेम निमंत्रण करें या विद्यादायिनी से वर प्राप्त करें, यह द्वन्द्व उनके कदम खींच रहे थे। एक तरफ प्रेयसी तो दूसरी तरफ वाग्देवी। चुनाव बड़ा मुश्किल था। ‘एक तरफ उसका घर, एक तरफ मैकदा, मैं कहां जाऊं होता नहीं फैसला?’ फैसले की यह मश्किल घड़ी युवाओं के भीतर के कई परतें उकेर रही थी, क्योंकि यह प्रेम और भक्ति की परीक्षा की घड़ी थी।
    परिवर्तनशील स्याह समय के बीच प्रेम के प्रति उनके नजरिए को भी इसी अंतर्द्वन्द्व से अच्छी तरह समझा सकता है। प्रेम अब हृदय वीणा के तारों पर अहिर्निश बजनेवाला संगीत नहीं रहा। अब प्रेम की अभिव्यक्ति थोथे शब्दों से होने लगी है, वह संवेदना के झंकार से पैदा होकर गहन मौन में एक-दूसरे की बीच ठहर जाने का उद्यम नहीं रहा। प्रेम अब स्रिग्ध भावों के बीच एक-दूसरे के साथ कुछ दिन बिता कर अलग हो जाने का करतब बन गया है। इसके साथ ही गला काट प्रतिस्पर्द्धा और दूर हिचकोले भरते करियर के मध्य अब वह गहराई ही कहां आती कि प्रेम की निखालिस धुन हमें हमआगोश कर सके। हमारे देश के युवा प्रेम के इस उत्कृष्टतम आयाम को भले ही जी न सकें, लेकिन अपनी बेचारगी से परिचित हैं और अपनी संस्कृति की निष्कंप सच्चाई की भी समझ रखते हैं। इसलिए ‘वैलेंटाइन डे’ को उन्होंने ‘वर्सिप डे’ में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने सोचा हमारे प्रेम के लिए तो हर दिन है, लेकिन वीणावादिनी की समारोहपूर्वक पूजा करने का अवसर फिर साल भर बाद ही मिलेगा। और फिर उनके रुके-रुके से कदम रुक के किसी पार्क की तरफ नहीं पंडाल की तरफ चल पड़े। तैयारी शुरू हो गयी। किसी को मूर्ति लाने का काम मिला, किसी को पंडाल सजाने का तो किसी को पूजा के सामाना लाने का आदि। हममें से बहुत युवाओं के इस अदा पर रीझना चाहेंगे। लेकिन युवाओं के उपरोक्त अंतर्द्वद्व का दूसरा पहलू भी है।
    आखिर, हम प्रेम की लहर को किनारे से क्यों लगा दिए हैं। प्रेम का प्रतिफलन या विकसित रूप ही है भक्ति। एक तरफ संसार है, दूसरी तरफ परमात्मा और प्रेम की लहर दोनों के बीच में है। प्रेम संक्रमण की अवस्था है। जिसने लौकिक प्रेम में को न जिया, वह परमात्मा के प्रेम में भला कैसे पड़ेगा? जिसने प्रेम की पयोनिधि जाना ही नहीं, वह परमात्मा को जानने की संभावना अनायास ही खत्म कर लेता है। परंतु हमने तो प्रेम के बीज को विवशताओं के विष में घोल दिया है और फिर प्रेम के नाम पर कुछ और ही करने को मजबूर होते हैं या कुछ और ही कर रहे होते हैं। आहत संवेदना हमें जीवन का संतुलन साधने ही नहीं देती। नहीं तो प्रेम और परमात्मा को अलग-अलग कर सोचने को हम विवश ही नहीं होते। हम कह रहे होते- ‘इस द्वार जाऊं  या उस द्वार जाऊं, तुम्हें पा गया मैं घर बदल-बदलकर।’ अथवा यह कहते - ‘तुम्हारी जिक्र करें या खुदा की बात करें, हमें तो इश्क से मतलब है, किसी की बात करें।’