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Wednesday 18 September 2013

काम जब बनता है आराम

प्रणव प्रियदर्शी
कुछ दिनों पहले चीन के फैशन डिजाइनर ने कहा था कि मेरे लिए अच्छा दिखना ही सबसे बड़ा आराम है। कुछ देर के लिए मुझे यह अटपटा-सा बयान लगा, लेकिन  दूसरे ही पल मुझे इस बयान में एक गहरे जीवन-दर्शन की अनुभूति हुई। अस्तित्व ने या जीवन की परिस्थितियों ने हमारे जिम्मे जो काम सौंपा है, अगर वह हमारे लिए आराम बन जाये तो जीवन एक अलग ही आयाम में प्रवेश कर जायेगा। किंतु ऐसा कैसे हो? हमारी मन:स्थिति तो इसतरह से किसी को काम को स्वीकारती ही नहीं है।
      किसी दफ्तर में कंधा झुकाये, सिर थामे, फाइल में आंख गराये किसी व्यक्ति से जाकर पूछें कि आप क्या कर रहे हैं? वह मुंह उचका कर, भौंहें सिकोड़ वितृष्णा से भर कर सीधा कहेगा-काम कर रहा हूं। घर में पति के लिए ऑफिस जाना काम है तो पत्नी के लिए खाना बनाना काम है। स्कूल में शिक्षक पढ़ाने का काम कर रहे हैं तो छात्र पढ़ने का काम काम कर रहे हैं। इस काम के चलते हर कोई एक भारी बोझ के नीचे दबा मालूम पड़ता है।  कोई यह नहीं कहता कि मेरे लिए काम करना ऐसे ही है, जैसे मैं कोई गीत गुनगुना रहा हूं। कभी किसी ने मुझसे कहा था - मैंने साज पर हाथ रख दिया है, धुन अपने-आप निकल रहा है।
     हम आखिर इस तरह की बात करें भी तो कैसे? क्योंकि हम सप्ताह में एक दिन की छुट्टी की आस में छह दिन किसी तरह गुजार लेते हैं। हकीकत यह है कि छुट्टी के दिन हम अन्य दिनों से ज्यादा काम करते हैं, फिर भी थकते नहीं। वजह यह होती है कि वह काम हमारे आराम और अभिरुचि का होता है। दूसरी बात यह होती है कि उस दिन हम निर्भार और तनाव मुक्त होते हैं।
     इन दो बातों पर अमल करें तो हमारे लिए भी काम आराम बन सकता है। पहला, वह हमारी अभिरुचि का हो और दूसरा, उसे हम तनाव मुक्त होकर करें। ऐसा काम ही धीरे-धीरे ध्यान बन जाता है। ध्यान तो आराम की चरमावस्था है। हमारा हर काम, आराम और ध्यान की अभिव्यक्ति बन सके, तब ही जीवन का सही अर्थ प्रकट होता है। 

Friday 13 September 2013

विशेष राज्य का आंदोलन बने पुनरुत्थानवादी आंदोलन


प्रणव प्रियदर्शी
झारखंड के लिए विशेष दर्जे की मांग एक सामूहिक आवाज बनकर उभरी है। यह खुशी की बात है। किसी एक मुद्दे पर तो सभी राजनीतिक दल साथ दिख रहे हैं। किसी एक मुद्दे पर तो सभी ने साझा संस्कृति के संवाहक बन कर उपस्थिति दर्ज की है। खुशी परवान पर इसलिए है कि इस मामले में हम पड़ोसी राज्य बिहार से अधिक सामूहिक जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं। बिहार में विशेष दर्जे की मांग सिर्फ राजग अपने बूते बुलंद कर रहा है। हालांकि शुरुआत में राजद ने इसे अपने खेमे में लेना चाहा। उसका कहना था कि सर्वप्रथम उसने विशेष दर्जे की मांग उठायी। लेकिन इस दिशा में नीतीश कुमार के प्रयास के अंधर में उसकी आवाज कहीं गुम-सी हो गयी। गुमशुदगी के बियाबान में बिखर कर अब राजद-लोजपा साथ-साथ कहने को विवश हो उठी हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की विशेष दर्जे की मांग एक छलावा है, ढोंग है। विडंबना देखिए कि वही राजद -लोजपा झारखंड के विशेष दर्जे की मांग का समर्थन कर रहे हैं।
      इन सामूहिक आवाजों की जुगलबंदी के बीच से एक स्वर यह भी उभर रहा है कि अगर झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा मिल भी गया तो हित किसका सधेगा? इसतरह के स्वर इसलिए उभरे हैं कि झारखंड के अलग राज्य बनने से किनका हित हुआ? इसका माकूल जवाब सभी के पास है। कहीं वही हश्र विशेष दर्जा मिलने के बाद भी हुआ तो झारखंड की आम जनता डुगडुगी बजाती रह जायेगी। हरित भविष्य लुटता चला जायेगा। हमने जब अलग राज्य का दर्जा हासिल किया तो हमारे पास इस उद्देश्य से आगे का कोई मापदंड नहीं था कि प्रदेश को किस ओर उन्मुख करेंगे। किस दिशा में अपनी सामूहिक शक्ति लगायेंगे। फलस्वरूप यह प्रदेश लू़ट-खसोट का अड्डा बन गया। इस नव-सृजित प्रदेश की दशा-दिशा बदलने के लिए भी कोई ठोस रूप-रेखा नहीं तैयार की गयी। झारखंड राज्य के निर्माण के वक्त केंद्र सरकार को भी यहां की भौगोलिक और सांस्कृतिक संरचना के आधार पर आर्थिक विकास की रूप-रेखा तैयार करनी थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जब इन चीजों को लेकर राज्य प्रतिबद्ध नहीं था तो केंद्र क्यों प्रतिबद्धता दिखाये? जिस कारण परिणाम सिफर ही रहा। दरअसल झारखंड तो बन गया, लेकिन विकास की कोई अवधारणा अपनायी ही नहीं गयी। कोई आर्थिक ब्लू प्रिंट नहीं बना।
       इसी के मद्देनजर वरिष्ठ भाजपा नेता सरयू राय ने दो टूक कहा है - 'विशेष राज्य झुनझुना नहीं, जब चाहा बजा लिया और ना ही कोई निपुल है, जो मुंह में दबाये और सो गये।' हकीकत भी है कि सिर्फ यह कह देने से कि हम विशेष राज्य के हकदार हैं, इससे नहीं मिलेगा विशेष दर्जा। ये अलग बात है कि हम विशेष दर्जा पाने की सारी अर्हता पूरी करते हैं, लेकिन तर्क के साथ अपनी बात रखनी होगी। मुद्दे को लेकर पुख्ता कागजी दस्तावेज तैयार करना होगा। बिहार ने मांग के साथ-साथ अपनी प्रतिबद्धता भी दिखायी है, सिर्फ जुबानी राग नहीं अलापा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया। 1.18 करोड़ लोगों से हस्ताक्षर कराये। प्रतिनिधिमंडल लेकर प्रधानमंत्री से मिले। मीडिया को अपने इस मुहिम से जोड़ा। हर जिले में अधिकार यात्रा का आयोजन करवाया। पटना और दिल्ली में विशाल अधिकार रैली की। नीतीश सरकार ने आर्थिक विशेषज्ञों की सहायता से समर्थित दस्तावेज तैयार करवाया। उन्होंने साफ कहा - जो देगा विशेष दर्जा, उसी को देंगे समर्थन। तब उनकी बातें सुनी जा रही हैं।
        झारखंड ने अभी तक न तो इस तरह की प्रतिबद्धता दिखायी है और न ही ऐसा प्रयास ही किया है। सिर्फ बोल के ढोल ही पीटे जा रहे हैं, जबकि तीन वर्षों से रह-रह कर झारखंड को विशेष दर्जा प्रदान करने की मांग उठायी जाती रही है। सबसे पहले दिसंबर 2011 में कामेश्वर बैठा ने स्पेशल मेंशन के तहत लोकसभा में यह मुद्दा उठाया था। इसी वर्ष मई में झाविमो सांसद अजय कुमार ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर यही मांग फिर से उठायी। दिसंबर 2012 में पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में यह मामला जोर-शोर से उठाया था और केंद्र सरकार से औपचारिक रूप से आग्रह किया था। मार्च में लोकसभा में झारखंड के बजट प्रस्ताव पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए इंदर सिंह नामधारी, यशवंत सिन्हा, अजय कुमार व कामेश्वर बैठा ने विशेष दर्जे की मांग रखी। इस वर्ष जुलाई महीने में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने प्रधानमंत्री और केंद्रीय वित्त मंत्री से मुलाकात के दौरान झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग की। अगस्त में राज्य स्तर पर आजसू भी रैलियां आयोजित कर इस मुद्दे को प्रोत्साहित कर रहा है।
        जरूरी यह है कि हमारे लिए विशेष राज्य की मांग सिर्फ आर्थिक अनुदान तक ही नहीं सिमटे, बल्कि एक आत्मनिर्भर झारखंड की नीतियों के निर्माण और सांस्कृतिक विकास की अवधारणा भी इससे जुड़े। तभी विशेष दर्जा मिलने पर हम संतुलन साध सकेंगे। झारखंड का इतिहास भी बताता है कि 1857 के बाद यहां जो भी आंदोलन हुए उनमें अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आवाज जितनी मुखर हुई, उससे कहीं ज्यादा मुखरित हुई यहां की जन-जातियों में व्याप्त कुरीतियां, अभाव, अशिक्षा, मद्यपान आदि समस्याओं से मुक्ति की आवाज। चाहे वह सरदार आंदोलन हो या खरवार आंदोलन, बिरसा आंदोलन हो या टाना भगत आंदोलन। ठेकेदारों, जागीरदारों, बिचौलियों के कुचक्र में फंसी व्यवस्था से मुक्ति की आवाज ही सुधारवादी या पुनरुत्थानवादी आंदोलन का मुख्य स्वर रहा है। अत: झारखंड के विशेष राज्य का आंदोलन सुधारवादी या पुनरुत्थानवादी आंदोलन का भी रूप अख्तियार करे तब ही प्रदेश का कायकल्प संभव है। 

Wednesday 11 September 2013

धर्मांधता का हो अंत : स्वामी विवेकानंद

(शिकागो भाषण की वर्षगांठ पर विशेष) 

नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। भारतीय गौरव को जिन महापुरुषों ने देश की सीमा के बाहर ले जाकर स्थापित किया उनमें स्वामी विवेकानंद अग्रणी माने जाते हैं। पश्चिम बंगाल में 12 जनवरी, 1863 को जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद) ने अमेरिका के शिकागो में 11 सितंबर, 1893 को आयोजित विश्व धर्म संसद में भारतीय चिंतन परंपरा का जिन जोरदार शब्दों में परचम लहराया, उसकी प्रतिध्वनि युगों-युगों तक सुनाई देती रहेगी : मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों! आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूं। धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं। और सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिंदुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूं।
मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं।
मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं।
        मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीडि़तों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने महान जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है।
          भाइयों, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं जिसकी आवृत्ति मैं बचपन से कर रहा हूं और जिसकी आवृत्ति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं : रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
         अर्थात् जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं। यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वत: ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है : ये यथा मा प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम। मम वत्मार्नुवर्तंते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।।
अर्थात् जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूं। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते हैं।
सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मांधता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं।
         
यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियां न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है और मैं आंतरिक रूप से आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटाध्वनि हुई है वह समस्त धर्मांधता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।

Tuesday 3 September 2013

'रफ्तार हो, भटकाव नहीं'

(दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित मेरा बलॉग लेख)
भगतसिंह (1925)

युवक!


['युवक!’ शीर्षक से नीचे दिया गया भगतसिंह का यह लेख ‘साप्ताहिक मतवाला’ (वर्ष : 2, अंक सं. 36, 16 मई, 1925) में बलवन्तसिंह के नाम से छपा था। इस लेख की चर्चा ‘मतवाला’ के सम्पादकीय कर्म से जुड़े आचार्य शिवपूजन सहाय की डायरी में भी मिलती है। लेख से पूर्व यहाँ'आलोचना’ में प्रकाशित डायरी के उस अंश को भी उद्धृत किया जा रहा है।- स.]

सन्ध्या समय सम्मेलन भवन के रंगमंच पर देशभक्त की स्मृति में सभा हुई। ... भगतसिंह ने ‘मतवाला’ (कलकत्ता) में एक लेख लिखा था : जिसको सँवार-सुधार कर मैंने छापा था और उसे पुस्तक भण्डार द्वारा प्रकाशित ‘युवक साहित्य’ में संगृहीत भी मैंने ही किया था। वह लेख बलवन्तसिंह के नाम से लिखा था। क्रांतिकारी लेख प्राय: गुमनाम लिखते थे। यह रहस्य किसी को ज्ञात नहीं। वह लेख युवक-विषयक था। वह लाहौर से उन्होंने भेजा था। असली नाम की जगह ‘बलवंत सिंह’ ही छापने को लिखा था।
(आचार्य शिवपूजन सहाय की डायरी के अंश, 23 मार्च, पृष्ठ 28, आलोचना-67/वर्ष 32/अक्तूबर-दिसंबर, 1983)
युवावस्था मानव-जीवन का वसन्तकाल है। उसे पाकर मनुष्य मतवाला हो जाता है। हजारों बोतल का नशा छा जाता है। विधाता की दी हुई सारी शक्तियाँ सहस्र धारा होकर फूट पड़ती हैं। मदांध मातंग की तरह निरंकुश, वर्षाकालीन शोणभद्र की तरह दुर्द्धर्ष,प्रलयकालीन प्रबल प्रभंजन की तरह प्रचण्ड, नवागत वसन्त की प्रथम मल्लिका कलिका की तरह कोमल, ज्वालामुखी की तरह उच्छृंखल और भैरवी-संगीत की तरह मधुर युवावस्था है। उज्जवल प्रभात की शोभा, स्निग्ध सन्ध्या की छटा, शरच्चन्द्रिका की माधुरी ग्रीष्म-मध्याह्न का उत्ताप और भाद्रपदी अमावस्या के अर्द्धरात्र की भीषणता युवावस्था में निहित है। जैसे क्रांतिकारी की जेब में बमगोला, षड्यंत्री की असटी में भरा-भराया तमंचा, रण-रस-रसिक वीर के हाथ में खड्ग, वैसे ही मनुष्य की देह में युवावस्था। 16 से 25 वर्ष तक हाड़- चाम के सन्दूक में संसार-भर के हाहाकारों को समेटकर विधाता बन्द कर देता है। दस बरस तक यह झाँझरी नैया मँझधार तूफान में डगमगाती तहती है। युवावस्था देखने में तो शस्यश्यामला वसुन्धरा से भी सुन्दर है, पर इसके अन्दर भूकम्प की-सी भयंकरता भरी हुई है। इसीलिए युवावस्था में मनुष्य के लिए केवल दो ही मार्ग हैं- वह चढ़ सकता है उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर, वह गिर सकता है अध:पात के अंधेरे खन्दक में। चाहे तो त्यागी हो सकता है युवक, चाहे तो विलासी बन सकता है युवक। वह देवता बन सकता है, तो पिशाच भी बन सकता है। वही संसार को त्रस्त कर सकता है, वही संसार को अभयदान दे सकता है। संसार में युवक का ही साम्राज्य है। युवक के कीर्तिमान से संसार का इतिहास भरा पड़ा है। युवक ही रणचण्डी के ललाट की रेखा है। युवक स्वदेश की यश-दुन्दुभि का तुमुल निनाद है। युवक ही स्वदेश की विजय-वैजयंती का सुदृढ़ दण्ड है। वह महाभारत के भीष्मपर्व की पहली ललकार के समान विकराल है, प्रथम मिलन के स्फीत चुम्बन की तरह सरस है, रावण के अहंकार की तरह निर्भीक है, प्रह्लाद के सत्याग्रह की तरह दृढ़ और अटल है। अगर किसी विशाल हृदय की आवश्यकता हो, तो युवकों के हृदय टटोलो। अगर किसी आत्मत्यागी वीर की चाह हो, तो युवकों से माँगो। रसिकता उसी के बाँटे पड़ी है। भावुकता पर उसी का सिक्का है। वह छन्द शास्त्र से अनभिज्ञ होने पर भी प्रतिभाशाली कवि है। कवि भी उसी के हृदयारविन्द का मधुप है। वह रसों की परिभाषा नहीं जानता,पर वह कविता का सच्चा मर्मज्ञ है। सृष्टि की एक विषम समस्या है युवक। ईश्वरीय रचना-कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है युवक। सन्ध्या समय वह नदी के तट पर घण्टों बैठा रहता है। क्षितिज की ओर बढ़ते जानेवाले रक्त-रश्मि सूर्यदेव को आकृष्ट नेत्रों से देखता रह जाता है। उस पार से आती हुई संगीत-लहरी के मन्द प्रवाह में तल्लीन हो जाता है। विचित्र है उसका जीवन। अद्भुत है उसका साहस। अमोघ है उसका उत्साह।
वह निश्चिन्त है, असावधान है। लगन लग गयी है, तो रात-भर जागना उसके बाएं हाथ का खेल है, जेठ की दुपहरी चैत की चांदनी है, सावन-भादों की झड़ी मंगलोत्सव की पुष्पवृष्टि है, श्मशान की निस्तब्धता, उद्यान का विहंग-कल कूजन है। वह इच्छा करे तो समाज और जाति को उद्बुद्ध कर दे, देश की लाली रख ले, राष्ट्र का मुखोज्ज्वल कर दे, बड़े-बड़े साम्राज्य उलट डाले। पतितों के उत्थान और संसार के उद्धारक सूत्र उसी के हाथ में हैं। वह इस विशाल विश्व रंगस्थल का सिद्धहस्त खिलाड़ी है।
अगर रक्त की भेंट चाहिए, तो सिवा युवक के कौन देगा ?अगर तुम बलिदान चाहते हो, तो तुम्हें युवक की ओर देखना पड़ेगा। प्रत्येक जाति के भाग्यविधाता युवक ही तो होते हैं। एक पाश्चात्य पंडित ने ठीक ही कहा है- It is an established truism that youngmen of today are the countrymen of tomorrow holding in their hands the high destinies of the land. They are the seeds that spring and bear fruit. भावार्थ यह कि आज के युवक ही कल के देश के भाग्य-निर्माता हैं। वे ही भविष्य के सफलता के बीज हैं।
संसार के इतिहासों के पन्ने खोलकर देख लो, युवक के रक्त से लिखे हुए अमर सन्देश भरे पड़े हैं। संसार की क्रांतियों और परिवर्तनों के वर्णन छाँट डालो, उनमें केवल ऐसे युवक ही मिलेंगे,जिन्हें बुद्धिमानों ने ‘पागल छोकड़े’ अथवा ‘पथभ्रष्ट’ कहा है। पर जो सिड़ी हैं, वे क्या ख़ाक समझेंगे कि स्वदेशाभिमान से उन्मत्त होकर अपनी लोथों से किले की खाइयों को पाट देनेवाले जापानी युवक किस फौलाद के टुकड़े थे। सच्चा युवक तो बिना झिझक के मृत्यु का आलिंगन करता है, चौखी संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है, तोप के मुँह पर बैठकर भी मुस्कुराता ही रहता है, बेड़ियों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फाँसी के तख्ते पर अट्टहासपूर्वक आरूढ़ हो जाता है।फाँसी के दिन युवक का ही वजन बढ़ता है, जेल की चक्की पर युवक ही उद्बोधन मन्त्र गाता है,कालकोठरी के अन्धकार में धँसकर ही वह स्वदेश को अन्धकार के बीच से उबारता है। अमेरिका के युवक दल के नेता पैट्रिक हेनरी ने अपनी ओजस्विनी वक्तृता में एक बार कहा था- Life is a dearer outside the prisonwalls, but it is immeasurably dearer within the prison-cells, where it is the price paid for the freedom’s fight. अर्थात् जेल की दीवारों से बाहर की जिन्दगी बड़ी महँगी है,पर जेल की काल कोठरियो की जिन्दगी और भी महँगी है क्योंकि वहाँ यह स्वतन्त्रता-संग्राम के मूल्य रूप में चुकाई जाती है।
जब ऐसा सजीव नेता है, तभी तो अमेरिका के युवकों में यह ज्वलन्त घोषणा करने का साहस भी है कि, “We believe that when a Government becomes a destructive of the natural right of man, it is the man’s duty to destroy that Government."अर्थात् अमेरिका के युवक विश्वास करते हैं कि जन्मसिद्ध अधिकारों को पद-दलित करने वाली सत्ता का विनाश करना मनुष्य का कर्तव्य है।
ऐ भारतीय युवक! तू क्यों गफलत की नींद में पड़ा बेखबर सो रहा है। उठ, आँखें खोल, देख, प्राची-दिशा का ललाट सिन्दूर-रंजित हो उठा। अब अधिक मत सो। सोना हो तो अनंत निद्रा की गोद में जाकर सो रह। कापुरुषता के क्रोड़ में क्यों सोता है? माया-मोह-ममता का त्याग कर गरज उठ-
“Farewell Farewell My true Love
The army is on move;
And if I stayed with you Love,
A coward I shall prove.”
तेरी माता, तेरी प्रात:स्मरणीया, तेरी परम वन्दनीया, तेरी जगदम्बा, तेरी अन्नपूर्णा, तेरी त्रिशूलधारिणी, तेरी सिंहवाहिनी, तेरी शस्यश्यामलांचला आज फूट-फूटकर रो रही है। क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी चंचल नहीं करती? धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर! तेरे पितर भी नतमस्तक हैं इस नपुंसकत्व पर! यदि अब भी तेरे किसी अंग में कुछ हया बाकी हो, तो उठकर माता के दूध की लाज रख, उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आँसुओं की एक-एक बूँद की सौगन्ध ले, उसका बेड़ा पार कर और बोल मुक्त कण्ठ से- वंदेमातरम्।

Date Written: 1925
Author: Bhagat Singh
Title: Youth (Yuvak)
First Published: in Saptahik Matwala, Vol.2 ; No. 38, dated May 16, 1925.