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Saturday 18 July 2015

एक नये कैनवास पर मनुष्य को देखने की चेष्टा




प्रणव प्रियदर्शी
मनुष्य की प्यास क्या है? वस्तुतः वह क्या चाहता है? क्या सचमुच में वह जो चाहता है, वही उसकी प्यास होती है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनके जवाब ढूंढ़ने में पूरी उम्र खफ जाती है, फिर भी उत्तर नहीं मिल पाते। सदियाँ गुजर जाती हैं, सभ्यताएँ रीतती जाती हैं और मनुष्य हर बार वहीं खड़ा मिलता है, जहाँ से उसकी यात्राएँ शुरू हुई थीं। दरअसल, हमारी चाहतों के भीतर भी कुछ ऐसी चाह छिपी होती है, जिस तक पहुँचने के लिए बहुत गहरी समझ और व्यापक दृष्टिकोण की जरूरत पड़ती है। उस तक पहुंचने के लिए हमें संसार के बने-बनाये दायरे, मान्यताएँ, अपेक्षाएँ और उम्मीदों से ऊपर उठ कर मुक्त आकाश के सामने आकर खड़ा होना होता है। जहाँ शास्त्र, सिद्धांत और संस्कृति को बिना बीच में लाये ‘मैं’ को ‘मैं’ की नजरों से देख पाने में हम सक्षम हो सकें और चेतना के उस उजास में छिटकी अनुभूति पर विश्वास कर सकें।
       कवि विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास ‘कैनवास पर प्रेम’ उस मुक्ताकाश के सामने लाकर खड़ा करता है और उससे उत्पन्न अनुभूति पर अडिग रहने का संबल भी प्रदान करता है। कवि विमलेश त्रिपाठी इसलिए कि इस उपन्यास में उनकी काव्य चेतना ही प्रगट हुई है। तथाकथित कहानीकार किसी घटना को शुष्क शब्दों में पिरोकर पाठक के सामने उसे परोसने में ही अपनी प्रतिभा की पराकाष्ठा समझ लेते हैं। हकीकत यह है कि बिना काव्यानुभूति के साहित्य की कोई भी विधा अपनी पूर्णता के मापदंड पर खड़ी नहीं उतर सकती। विमलेश त्रिपाठी कविता तो लिखते ही हैं, कहानी में भी एक घटना को दूसरी घटना से जोड़ने और उसके साथ कई संदर्भों को बुनने में इन्हें महारथ हासिल है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए सहज ही ऐसा महसूस किया जा सकता है। कैनवास पर प्रेम शीर्षक से स्पष्टतः यह परीलक्षित होता है कि उपन्यास में प्रेम को अभिव्यक्ति मिली होगी और ऐसा है भी। प्रेम के साथ परेशानी यह भी है कि उसकी अभिव्यक्ति अगर काव्यात्मक शैली में न की गयी तो वह कुछ और ही अर्थ ग्रहण कर लेता है। लेखक को यह बात अच्छी तरह से पता है। इसलिए उपन्यास में जहां-जहां संदर्भ के अनुसार काव्यात्मक शैली की जरूरत पड़ी है, उन्होंने वहाँ से खुद को चूकने नहीं दिया है। यही कारण है कि यह उपन्यास पठनीयता के साथ प्रवाह भी बनाये रखता है और मन-मस्तिष्क पर अलग छाप छोड़ता है।
       अक्सर ऐसा देखा जाता है कि प्रेम के बहाने अश्लीलता को पड़ोस कर सस्ती लोकप्रियता बटोरने के फिराक में आज का लेखक लगा रहता है। इस उपन्यास में बहुत जगह ऐसी संभावनाएँ और संदर्भ बनते हैं, जिन्हें सेक्सुअल खुराक में तब्दील किया जा सकता था, लेकिन रचनाकार ने ऐसा नहीं होने दिया। जॉनस एरिकसन का एक कथन मुझे याद आ रहा है-‘बेचने के लिए नहीं बताने के लिए लिखें’। यह उपन्यास वृहतर उद्देश्य, प्रेम की दिव्य और पवित्र अनुभूति के साथ रचा गया है। यही कारण है कि उपन्यास का मुख्यपात्र सत्यदेव अपनी प्रेमिका में माँ की भूली-बिसरी, धुँधली तस्वीर को मुखर होता हुआ पाता है। प्रेमी-प्रेमिका का समागम दैहिक मिलन न होकर दैविक हो जाता है। उपन्यास में कुछ बानगी के साथ काव्यात्मक चेतना का सजल प्रवाह भी देखिए-
        “एक शांत और उजली नदी थी-जिसके अंदर मैं डूब रहा था। एक ऐसी नदी, जिसमें पहली बार डूबते हुए भी डूबने के डर से अलग था। यह डूबना एक नये रहस्य लोक की यात्रा थी-जो अनजान और एकदम नया था-अचंभित करनेवाला और अप्रत्याशित। वह एक बार दर्द से कांपती और उसके कंपन को सहेजता हुआ मैं दुनिया का सबसे बड़ा विजेता महसूस कर रहा था। दूर कहीं पहाड़ पर ग्लैशियर पिघल रहे थे। कहीं तेज बारिश हो रही थी-एक जोड़ की आँधी उठी थी। उस आँधी में दो शरीर उड़कर किसी देवलोक तक पहुँचने की यात्रा कर रहे थे-दो आत्माएँ एक-दूसरे में अंतरित होकर नया जन्म ग्रहण कर रही थीं।’’
        “मैं कैनवास पर कूची से रंग भर रहा था। एक तस्वीर जो हिल रही थी-काँप रही थी और अपने दैवीय रूप में रंगों के बीच पवित्र हो रही थी, उसी तस्वीर के बीच मैं तस्वीर की शक्ल में जा मिला था। दो तस्वीरें साथ मिलकर एक तस्वीर हो गयी थीं और पूरी दुनिया में एक असंभव किस्म का रंगीन उजाला फैल गया था। बहुत देर के लिए...और शायद उस एक वक्त में सदियों के लिए...।”
         “मेरे अंदर कोई एक तूफान-सा उठा था-जिसको ठीक-ठाक बताने में मैं असमर्थ हूँ, लेकिन मैंने तब अपने होंठ उसकी गीली आँखों पर रख दिये थे-बहुत देर तक। जैसे एक गहरा रंग कागज पर जाकर एक सुंदर आकृति में ढल गया हो और वह रंग धीरे-धीरे दो होठों की शक्ल में बदलता गया हो-दो होंठ मिलकर एक नए रंग का नया चित्र आँक रहे हों। बहुत देर तक। अनबद्य और अशेष। और उस दिन वह लौट रही थी। एक नया चित्र बना था हमारे और उसके बीच की थोड़ी-सी जमीन पर। भाषा चूक गयी थी। सिरफ उसका खामोश लौटना हवा में गूँज रहा था-वह जा रही थी और मुझे लग रहा था कि बहुत दिनों बाद वह मेरे और पास और करीब आ रही थी।”
         हमारा समाज प्रेम की इजाजत नहीं देता, लेकिन प्राणों की प्यास और तलाश अंततः प्रेम के रूप में ही प्रगट होती है। यह मनुष्य की चेतना का सांस्कृतिक परिष्कार है। इसलिए मन की उदीप्त आकांक्षा और नैसर्गिक उहापोह के अधीन हो आदमी प्रेम तो कर बैठता है, लेकिन उसे मंजिल तक पहुँचाने में सभी कामयाब नहीं हो पाते। ऐसे मोड़ पर भी नहीं, जहाँ प्रेम घने पेड़ की तरह अविचल खड़ा हो और उससे आती हवा पूरे जीवन को अपनी बाँहों में समेट लेने का निमंत्रण देती हो। जीवन में असफलताओं का आना कोई नयी बात नहीं है। कुछ असफलताएँ हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं तो कुछ जीने का उत्साह ही खत्म कर देती हैं। जब असफलता जीने का उत्साह खत्म कर दे तो गतिशील संसार में भी हमारे लिए चारों तरफ एक धूसर सन्नाटा फैल जाता है। कई दिनों तक ऐसी ही भावदशा बनी रहने पर मन की जो सहज प्रक्रिया है, वह निष्क्रिय होकर आदमी को एक अलग ही उलझन में डाल देती है। ऐसी स्थिति से निजात पाना फिर असंभव-सा लगने लगता है।
        उपन्यास का मुख्य पात्र सत्यदेव का व्यक्तित्व इसी कारण अधिक जटिल है। इन जटिलताओं के भीतर दबी पड़ी संवेदनाओं की परतों को उघाड़ पाना बहुत कठिन काम है। बहुत ही मनोवैज्ञिनक ढंग से लेखक ने एक अनसुलझे व्यक्तित्व के एक-एक सिरे को सुलझाया है। अक्सर हम अपने संकीर्ण समझ व असमर्थता के
वशीभूत हो ऐसे व्यक्ति को पागल घोषित कर निश्चिंत हो जाते हैं। हम पागलों के व्यक्तित्व के बीहड़ जंगल के भीतर  संवेदनाओं की बहती नदी को खोजने की कोशिश नहीं करते। शायद इतिहास में ऐसा कभी हो पाता, तो पागलखाने में इतनी भीड़ नहीं उमड़ती। यह उपन्यास मनुष्य के एक नये मनोविज्ञान को खोजने के लिए प्रेरित करता है।
        लेखक ने कई जगहों पर यह संकेत भी दिया है कि अगर उनके भीतर कहानीकार की प्रेरणा न होती तो ये सब संभव नहीं हो पाता। यह उपन्यास इसलिए भी रोचक और अनुकरणीय बन पड़ा है कि इसमें कहानीकार की विवशता, श्रम, धैर्य और व्यक्तिगत उहापोह सबकुछ एकसाथ प्रगट हुआ है। ये सब कहानी के साथ-साथ चलता है। उपन्यास का मुख्यपात्र सत्यदेव को ही नहीं, उसके आसपास के एक-एक पात्र को भी लेखक ने बहुत करीने से गढ़ा है और उस पर सतर्कता के साथ मेहनत की है। अगर ऐसा न होता तो कहानी किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाती, क्योंकि सत्यदेव के आसपास गढ़े गये अन्य पात्र भी प्रेम की खालिश वेदना से व्यथित हैं। लेकिन वे किसी-न-किसी रूप में दुनिया से सामंजस्य बिठाए हुए हैं। भले ही उनकी आँखों में सूनापन और हृदय में अथाह मौन पसरा हुआ है। सत्यदेव ऐसा नहीं कर पाता। जब हम दुनिया से सामंजस्य नहीं बिठा पाते हैं तो
वह हमें धकेल कर आगे बढ़ जाती है। साहित्य ही है, जो यहीं से रचना का मर्म ढूंढ़ लेता है।
        लेखक ने उपन्यास में कला के द्वंद्व को भी समेटने का प्रयास किया है। कौन पढ़ता है साहित्य, क्यों पढ़ेगा, लोगों के पास अब समय कहाँ है? सुबह आठ से शाम आठ बजे तक दफ्तर। इसके बाद बच्चे-कच्चे, दुकान-दउरी और पत्नी की चख-चख। फिर भी सत्यदेव शर्मा ने बहुत सारी चीजों के बीच से पेंटिंग को क्यों चुना? कोई एक आदमी लेखन को क्यों चुनता है? कथाकार कहता है-असल में यह प्रश्न पूछना ही बेमानी है। कहना चाहिए और पूछना बहुत जरूरी हो तो पूछना चाहिए कि इतने लोगों के बीच से पेंटिंग ने सत्यदेव शर्मा को क्यों चुना या लेखन ने विमल बाबू को क्यों चुना? बावजूद इसके प्रश्न यह भी उठता है कि प्रेम पर इतनी सारी कहानी और कविताएँ लिखी गयी हैं, फिल्में बनी हैं, फिर प्रेम पर एक नयी पुस्तक क्यों? लेखक अपने पात्रों के माध्यम से इन बातों का जवाब बड़े ही खूबसूरती से देते हैं-
       “-मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती?
        यह एक ऐसा वाक्य था, जिसे सैकड़ों-हजारों लड़कियों ने सैकड़ों-हजारों बार अपने पसंद के लड़के के सामने दुहराया है, लेकिन फिर भी इसकी गंभीरता कम नहीं हुई थी। ...एक ऐसा आवेग उठा था मेरे अंदर कि मैंने उसे कसकर अपनी बाँहों में जकड़ लिया था और जो मैंने कहा था, वह भी एक बहुत बार दुहराई गयी बात थी। लेकिन उस समय उसकी पवित्रता के प्रति मैं उतना ही आश्वस्त और विश्वस्त था जितना कि आपके जैसा कोई लेखक हो सकता है या कोई एक इंसान जो सच पर यकीन रखता हो-जिसे समय के थपेड़ों ने मुर्दा न कर दिया हो।
       “ -मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।
      यह वाक्य हमारे बीच से होकर आकाश की ओर उड़ गया था-बिलकुल उस रंगीन तितली की तरह, जिसे बचपन से हम दोनोंपकड़ने की कोशिश करते खेतों में भटकते रहते थे। हवा में एक गूँज थी, जिसकी थर्राहट अंतरिक्ष तक पहुँच रही थी। और धरती पर दो मिट्टी के पुतले एक-दूसरे से गुँथे हुए एक नयी कविता लिख रहे थे-जिसका अर्थ इस देश के असंख्य लोगों को आज तक समझ में नहीं आया है’’।
      कथा का कोई अंत नहीं होता। एक कथा खत्म होती है और वहीं से दूसरी कथा चल पड़ती है। इसलिए मैं अपेक्षा करूँगा कि साहित्य में इस तरह की रचनाओं को बेझिझक प्रश्रय मिले, ताकि सभ्यता की संभावनाओं का नया द्वार खुल सके।


Thursday 19 February 2015

फिर चक्रव्यूह में फंसने को अभिशप्त है अभिमन्यु


प्रणव प्रियदर्शी
आज का युवा न सिर्फ देश की उत्पादन प्रक्रिया का महत्पूर्ण स्तंभ है, बल्कि उत्पादों का सबसे बड़ा कंज्यूमर भी है। देश के विकस में युवाओं का योगदान बढ़ रहा है। राजनीति में भी युवा सांसद और विधायकों की साझेदारी बढ़ी है। युवा वर्ग के लिए अलग से साहित्य लिखा जा रहा है। आज बॉलीवुड में बन रही दो तिहाई से अधिक फिल्में युवाओं पर फोकस्ड हैं। युवाओं को ध्यान में रख कर फैशन डिजाइनर्स नित नये फैशन ट्रेंड की शुरुआत कर रहे हैं। कंज्यूमर उत्पाद युवा पीढ़ी की पसंद के अनुसार बनाये जा रहे हैं। युवाओं की पसंद का हरेक क्षेत्र में ख्याल रखा जा रहा है।
         भारत विश्व का सबसे युवा देश है। लिहाजा हर ओर युवाओं के समर्थन की होड़ मची है। संपूर्णता में इसकी समीक्षा करने पर प्रायोजित सत्य से अलग कुछ और भी चीज दृष्टिगोचर होती है। सबसे पहले यह प्रश्न मुखर हो उठता है कि युवाओं की पसंद निर्मित कैसे हो रही है? युवाओं की शक्ति, ऊर्जा और उत्साह किस ओर लग रहे हैं। क्या इनकी क्षमता का वृहत स्तर पर स्वयं के परिष्कार या राष्ट्रहितार्थ पूरी तरह से उपयोग हो रहा है?
        आज के बाजारवाद के युग में युवा भारत को एक आर्थिक विश्व शक्ति बनाने में सहभागिता निभा रहा है। यह आज से ढाई दशक पहले की स्थिति से भिन्न है, जब युवा वर्ग सैद्धांतिक मुद्दों की लड़ाई लड़ता था। सामाजिक क्रांति की बातें करता था। तो क्या सिद्धांत और क्रांति से मुक्त होकर अपनी जिजीविषा में ही सिकुड़-सिमट कर समय गुजार देना जीवन का ध्येय होता है? किसी समाज या राष्ट्र की उन्नति वहां की आर्थिक प्रगति से ही नहीं आंकी जा सकती, बल्कि सामान्य मानवीय हालात और भविष्योन्मुखी दृष्टि इसका सबसे बड़ा पैमाना होता है।
         सार्थक जीवन जीने के लिए,  सार्थक विकास की ओर बढ़ने के लिए जीवन के हर स्तर को सार्थक दिशा देने की जरूरत पड़ती है। जिसके पास जीवन की कोई सार्थक सोच नहीं है, वह परिस्थिति का गुलाम बन कर षड्यंत्र का शिकार बन जाता है। धूमिल के शब्दों में कहें तो- जिंदा रहने के पीछे/अगर सही तर्क नहीं है/तो रामनामी बेचकर या रंडी की दलाली कर/जीने में कोई फर्क नहीं है।
         वर्तमान समय की सबसे बड़ी चिंता यह है कि युवाओं के चिंतन में जीवन का कोई सार्थक सोच नहीं है। बाजार युवाओं की इसी कमजोरी का सीधा लाभ उठा रहा है। वह चाहता ही है कि समाज में सोच नहीं पनपे, क्योंकि सोच क्रांति है, सोच बगावत है। सोच बंधे-बंधाये दायरे पर चलने से इनकार करता है।
          कौरवों ने जिस तरह सारे झूठ-सच, नियम-धर्म को ताक पर रख कर अभिमन्यु को चक्रव्यूह में फांस कर वध किया था, ठीक उसी तरह युवाओं के लिए तंत्र के शीर्ष पर बैठा हुआ कौरव रोज नया-नया चक्रव्यूह रच रहा है। विडंबना यह है कि युवा इन सबसे अनभिज्ञ होकर चक्रव्यूह को जयमाला समझ रहा है। युवाओं की स्थिति मालगोदाम में लटकी हुई उन बालटियों की तरह हो गयी है, जिस पर आग लिखा है और उसमें भरा है बालू और पानी।
          पश्चिमी संस्कृति की आबोहवा में ढाल कर जिन चीजों को निर्मित किया जाता है, वही उसकी पसंद बन जाती हैं। मॉडर्न कहलाने की ललक में या जिस कारण से भी शक्ति, समय और जो सामर्थ्य खुद के नव निर्माण में लगनी चाहिए थी, वह बाजार के अनुकूल स्वयं को ढालने में लग जाती है। देश की प्रतिभा का देश के नव निर्माण में उपयोग होना चाहिए था, लेकिन सामान्यतः वह वैश्विक षड्यंत्र को दृढ़ बनाने में लग जाती है। सामाजिक समरसता और मानवीय मूल्य की समृद्धि होनी चाहिए थी, लेकिन सुविधाओं और साधनों की फूहड़ता में जीवन की जमीन तब्दील होती जा रही है। बौद्धिक जागृति के नाम पर बौद्धिक गुलामी पैदा हो रही है।
          हर राष्ट्र की स्थिति युवाओं की कर्मठता पर ही निर्भर करती है। आवश्यकता है राष्ट्र चिंतकों को युवाओं की स्थिति के बारे में अंतस की तलछट में बैठ कर सोचने की। जरूरत है एक सास्कृतिक जागरण की। युवाओं का भी यह दायित्व है कि खुद को खंगाला करें। ऐसी दृष्टि विकसित करें, जिससे कि हर तरह के चक्रव्यूह को पहचान कर उसे तोड़ा जा सके - एक नयी सुबह, नये सूर्योदय के लिए।

संदेह को सदृढ़ आधार प्रदान करें

प्रणव प्रयदर्शी
स्वामी विवेकानंद ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था कि सफल जीवन शब्द का सही आशय जानने का प्रयास करो। जब तुम जीवन के संबंध में सफल होने की बात करते हो तो इसका मतलब मात्र उन कार्यों में सफल होना नहीं है, जिसे पूरा करने का बीड़ा तुमने उठाया है। इसका अर्थ सभी आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति कर लेना भर नहीं है। इसका तात्पर्य सिर्फ नाम कमाना या पद प्राप्त करना या आधुनिक दिखने के लिए फैशनेबल तरीकों की नकल या अप-टू-डेट होना ही नहीं है। सच्ची सफलता का सार यह है कि तुम स्वयं को कैसा बनाते हो। यह जीवन का आचरण है, जिसे तुम विकसित करते हो। यह चरित्र है, जिसका तुम पोषण करते हो और जिस तरह के व्यक्ति तुम बनते हो, यह जीवन का मूल अर्थ है।
         इस तरह के अनेक वैचारिक संदर्भों से विवेकानंद का साहित्य भरा-पड़ा है, जो युवा पीढ़ी को प्रेरणास्पद ऊर्जा प्रदान करता है। यह एक सुखद भविष्य की संतुलित अवधारणा ही है कि 12 जनवरी, विवेकानंद के जन्म दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है। इसी के साथ यह प्रश्न भी मुखर हो उठता है कि न्यू कंज्यूमरिज्म, इंटरनेट, फैशन, एमटीवी-वीटीवी और मॉडर्न फिल्मों के दौर में सुकून ढूंढ़ती युवा पीढ़ी, विवेकानंद की वैचारिक गहराई और उसकी उष्मा को समझ पाती है? क्या उसे आत्मसात करने के बारे में सोच पाती है?
        आज का युवा इलेक्टॉनिक गैजेट्स, ब्लू टूथ, मोबाइल, एमपी थ्री और आइपॉड के जंजाल में उलझा हुआ है। महानगरों में कॉल सेंटर ने जिस कल्चर को जन्म दिया है और फॉयर, बॉम्बे ब्याइज, मानसून वेडिंग, मेट्रो जैसी फिल्मों ने जो संबंध गढ़े हैं, उसका प्रभाव युवाओं के भावों-अनुभावों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ये एक अलग अंग्रेजीदां, मॉडर्न और अल्ट्रा मॉडर्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पूरे भारत का कोई वास्ता नहीं। ऐसे में विवेकानंद के आदर्श और विचार इनके लिए कल्पनात्मक सगल के सिवा और कुछ नहीं है।
       माडर्निटी में अपना आइडेंटिफिकेशन ढूंढ़नेवाले यूथ परंपरागत मूल्यों पर संदेह करना तो सीख गये हैं, लेकिन अपने संदेह को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए तत्पर नहीं दिखते। खोखले तर्क के सहारे युवा वर्ग जीवन को नाप डालना चाहता है। सच्चाई यह है कि वह जीवन के प्रति संदेह का भाव ही था, जिसने नरेंद्र को विवेकानंद और सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध बनाया। विडंबना यह है कि वैचारिक शून्यता से ग्रसित घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलते युवा वर्ग को जीवन की सफलता का अर्थ सिर्फ साधनों और सुविधाओं का उपभोग ही लगता है। उसे चरित्र, आचरण और जीवनानुभूति से क्या मतलब!
     यह विचारहीनता का ही परिणाम है कि युवा शक्ति का एक बहुत बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक तनाव, दंगे, बाहरी-भीतरी विवाद, जातिवादी हिंसा, सड़क जाम, बंदी, रंगदारी, आतंकवाद, अलगाववादी हिंसा, संगठित अपराध, ड्रग्स, इव टीजिंग, मॉलेस्टेशन और फिकरेबाजी में लग जाता है। क्या विवेकानंद ने उतिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत का उदघोष इसी दिन के लिए किया था?

Wednesday 18 February 2015

शक्ति का हनन कहां हो रहा है?




प्रणव प्रियदर्शी
आज का परिवेश इतने तरह की विकृतियों के साथ घुल-मिल गया है कि बुराई और अच्छाई का फर्क भी धीरे-धीरे मिटता चला जा रहा है। बुद्धिजीवी कहते हैं कि जितने तरह की बुराइयां अनगिनत रूपों में व्याप्त हैं, उन सबके निराकरण के लिए संविधान सम्मत नियम-कानून बने हुए हैं। प्रश्न उठता है कि क्या नियम-कानून बना देने से ही समाधान हो जाता है? अगर ऐसा है, तो फिर समस्याएं बढ़ती ही क्यों जा रही हैं? क्यों जिंदगी कई बार प्रश्नों में ही उलझ कर प्रश्नों के साथ ही दम तोड़ देती है।
अतीत की ओर झांकने पर ऐसा लगता है कि एक समुदाय एवं समाज को ढंग से चलाने के लिए कुछ नियमों की आवश्यकता अवश्य पड़ती है। मनुष्य ने जब संगठित रूप में रहना शुरू किया, तब से ही उसे कुछ नियम-कानून बनाने पड़े। उनका उल्लंघन होने पर दंड का भी प्रावधान करना पड़ा। ऐसा देखा जाता है कि एक ही परिवार में, एक ही परिवेश में रहने के बावजूद हर भाई-बहन अलग-अलग नियति से प्रेरित होते हैं। इसलिए एक ही दृष्टिकोण से हर किसी को आंकना सर्वथा सही नहीं होता। किसी को बात से ही चोट लग जाती है। कोई हल्के आघात से आहत हो उठता है। किसी को दंड दिये बिना सही रास्ते पर नहीं लाया जा सकता। कोई दंडित होने के बाद भी पहले जैसा ही बना रहता है। यही कारण है कि कानूनी दंड की व्यवस्था सर्वथा त्याज्य नहीं होती और न ही अनुकरणीय। द्रष्टव्य यह हो जाता है कि दंडित करनेवाले व्यक्ति की दृष्टि कितनी व्यापक अथवा संकुचित है? वह व्यक्ति भी कैसा है, जिसे दंडित किया जा रहा है?
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि दहेज के लिए कानून बनाये गये, लेकिन दहेज प्रथा खत्म नहीं हुई है। नारी मुक्ति संबंधी अनेक नियम-कानून बनाये गये हैं। अनेक संस्थाएं इसके नाम पर फलती-फूलती हैं, लेकिन नारी मुक्त नहीं हो पायी है। दुष्कर्म, अपहरण, यौन-शोषण और उत्पीड़न जैसी समस्याओं की लिस्ट बहुत बड़ी है। हाल ही में एक बच्चे की शिक्षक ने बेरहमी से पिटाई की। मीडियावालों ने इस घटना को बखूबी कवरेज दिया। ठीक दो दिनों बाद बाल अधिकार सुरक्षा आयोग का निर्देश समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ पर प्रथम समाचार के रूप में ही पढ़ने को मिला कि बच्चों को मूर्ख और बेदिमागी कहें, तो जेल जा सकते हैं टीचर। सोचनीय है कि क्या सिर्फ कानून बना कर ही अपने कर्तव्य और संवेदना से इतिश्री कर लेना, हमारे राष्ट्र के शुभचिंतकों की नियति बन गयी है अथवा रास्ते आगे और भी हैं? इस संघीय व्यवस्था में जब शक्ति का अंतरण राष्ट्र से लेकर पंचायत तक किया गया है, तब शक्ति का हनन कहां हो रहा है? कानून की मोटी-मोटी किताबें दिनानुदिन बढ़ती जा रही हैं। समस्याएं भी नये-नये आकार में सामने आ रही हैं। समस्या और समाधान में कोई तारतम्यता दिखने को नहीं मिलती है। आशंका, निराशा और यातना के माहौल में बार-बार एक अनबुझा तिनका आकर उलझ जाता है, जिससे परिस्थिति और भयावह हो उठती है। जब हम आधारभूत समस्याओं से ही नहीं उबर पा रहे हैं तो विकास की बात करना थोथी बयानबाजी ही होगी।
कुछ दिनों पहले ऐसी कुछ घटनाएं भी प्रकाश में आयीं और आती ही रहती हैं कि अपराधियों को रंगे हाथों पकड़ने पर आम लोगों ने उन्हें पुलिस के हवाले न कर अपने तरीके से दंडित किया। ऐसी घटनाएं उन व्यक्तियों के साथ कानून व्यवस्था पर भी प्रश्न चिह्न लगाती हैं। लोगों का विश्वास इस व्यवस्था पर से उठने लगा है। वे जानने लगे हैं कि जब राजनीति का ही अपराधीकरण हो गया है तो अपराध को अपराध कैसे समझा जायेगा? सरकारी तंत्र के अगुवा आम आदमी के प्रति प्रतिबद्ध न होकर अपने स्वार्थ की दीवार ऊंचा उठाने में लग गये हैं तो न्याय कैसे मिल पायेगा? समय की मांग है परिवेश को नूतन आयामों से संपृक्त कर नया जनमत बनाया जाए।