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Thursday 19 February 2015

फिर चक्रव्यूह में फंसने को अभिशप्त है अभिमन्यु


प्रणव प्रियदर्शी
आज का युवा न सिर्फ देश की उत्पादन प्रक्रिया का महत्पूर्ण स्तंभ है, बल्कि उत्पादों का सबसे बड़ा कंज्यूमर भी है। देश के विकस में युवाओं का योगदान बढ़ रहा है। राजनीति में भी युवा सांसद और विधायकों की साझेदारी बढ़ी है। युवा वर्ग के लिए अलग से साहित्य लिखा जा रहा है। आज बॉलीवुड में बन रही दो तिहाई से अधिक फिल्में युवाओं पर फोकस्ड हैं। युवाओं को ध्यान में रख कर फैशन डिजाइनर्स नित नये फैशन ट्रेंड की शुरुआत कर रहे हैं। कंज्यूमर उत्पाद युवा पीढ़ी की पसंद के अनुसार बनाये जा रहे हैं। युवाओं की पसंद का हरेक क्षेत्र में ख्याल रखा जा रहा है।
         भारत विश्व का सबसे युवा देश है। लिहाजा हर ओर युवाओं के समर्थन की होड़ मची है। संपूर्णता में इसकी समीक्षा करने पर प्रायोजित सत्य से अलग कुछ और भी चीज दृष्टिगोचर होती है। सबसे पहले यह प्रश्न मुखर हो उठता है कि युवाओं की पसंद निर्मित कैसे हो रही है? युवाओं की शक्ति, ऊर्जा और उत्साह किस ओर लग रहे हैं। क्या इनकी क्षमता का वृहत स्तर पर स्वयं के परिष्कार या राष्ट्रहितार्थ पूरी तरह से उपयोग हो रहा है?
        आज के बाजारवाद के युग में युवा भारत को एक आर्थिक विश्व शक्ति बनाने में सहभागिता निभा रहा है। यह आज से ढाई दशक पहले की स्थिति से भिन्न है, जब युवा वर्ग सैद्धांतिक मुद्दों की लड़ाई लड़ता था। सामाजिक क्रांति की बातें करता था। तो क्या सिद्धांत और क्रांति से मुक्त होकर अपनी जिजीविषा में ही सिकुड़-सिमट कर समय गुजार देना जीवन का ध्येय होता है? किसी समाज या राष्ट्र की उन्नति वहां की आर्थिक प्रगति से ही नहीं आंकी जा सकती, बल्कि सामान्य मानवीय हालात और भविष्योन्मुखी दृष्टि इसका सबसे बड़ा पैमाना होता है।
         सार्थक जीवन जीने के लिए,  सार्थक विकास की ओर बढ़ने के लिए जीवन के हर स्तर को सार्थक दिशा देने की जरूरत पड़ती है। जिसके पास जीवन की कोई सार्थक सोच नहीं है, वह परिस्थिति का गुलाम बन कर षड्यंत्र का शिकार बन जाता है। धूमिल के शब्दों में कहें तो- जिंदा रहने के पीछे/अगर सही तर्क नहीं है/तो रामनामी बेचकर या रंडी की दलाली कर/जीने में कोई फर्क नहीं है।
         वर्तमान समय की सबसे बड़ी चिंता यह है कि युवाओं के चिंतन में जीवन का कोई सार्थक सोच नहीं है। बाजार युवाओं की इसी कमजोरी का सीधा लाभ उठा रहा है। वह चाहता ही है कि समाज में सोच नहीं पनपे, क्योंकि सोच क्रांति है, सोच बगावत है। सोच बंधे-बंधाये दायरे पर चलने से इनकार करता है।
          कौरवों ने जिस तरह सारे झूठ-सच, नियम-धर्म को ताक पर रख कर अभिमन्यु को चक्रव्यूह में फांस कर वध किया था, ठीक उसी तरह युवाओं के लिए तंत्र के शीर्ष पर बैठा हुआ कौरव रोज नया-नया चक्रव्यूह रच रहा है। विडंबना यह है कि युवा इन सबसे अनभिज्ञ होकर चक्रव्यूह को जयमाला समझ रहा है। युवाओं की स्थिति मालगोदाम में लटकी हुई उन बालटियों की तरह हो गयी है, जिस पर आग लिखा है और उसमें भरा है बालू और पानी।
          पश्चिमी संस्कृति की आबोहवा में ढाल कर जिन चीजों को निर्मित किया जाता है, वही उसकी पसंद बन जाती हैं। मॉडर्न कहलाने की ललक में या जिस कारण से भी शक्ति, समय और जो सामर्थ्य खुद के नव निर्माण में लगनी चाहिए थी, वह बाजार के अनुकूल स्वयं को ढालने में लग जाती है। देश की प्रतिभा का देश के नव निर्माण में उपयोग होना चाहिए था, लेकिन सामान्यतः वह वैश्विक षड्यंत्र को दृढ़ बनाने में लग जाती है। सामाजिक समरसता और मानवीय मूल्य की समृद्धि होनी चाहिए थी, लेकिन सुविधाओं और साधनों की फूहड़ता में जीवन की जमीन तब्दील होती जा रही है। बौद्धिक जागृति के नाम पर बौद्धिक गुलामी पैदा हो रही है।
          हर राष्ट्र की स्थिति युवाओं की कर्मठता पर ही निर्भर करती है। आवश्यकता है राष्ट्र चिंतकों को युवाओं की स्थिति के बारे में अंतस की तलछट में बैठ कर सोचने की। जरूरत है एक सास्कृतिक जागरण की। युवाओं का भी यह दायित्व है कि खुद को खंगाला करें। ऐसी दृष्टि विकसित करें, जिससे कि हर तरह के चक्रव्यूह को पहचान कर उसे तोड़ा जा सके - एक नयी सुबह, नये सूर्योदय के लिए।

संदेह को सदृढ़ आधार प्रदान करें

प्रणव प्रयदर्शी
स्वामी विवेकानंद ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था कि सफल जीवन शब्द का सही आशय जानने का प्रयास करो। जब तुम जीवन के संबंध में सफल होने की बात करते हो तो इसका मतलब मात्र उन कार्यों में सफल होना नहीं है, जिसे पूरा करने का बीड़ा तुमने उठाया है। इसका अर्थ सभी आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति कर लेना भर नहीं है। इसका तात्पर्य सिर्फ नाम कमाना या पद प्राप्त करना या आधुनिक दिखने के लिए फैशनेबल तरीकों की नकल या अप-टू-डेट होना ही नहीं है। सच्ची सफलता का सार यह है कि तुम स्वयं को कैसा बनाते हो। यह जीवन का आचरण है, जिसे तुम विकसित करते हो। यह चरित्र है, जिसका तुम पोषण करते हो और जिस तरह के व्यक्ति तुम बनते हो, यह जीवन का मूल अर्थ है।
         इस तरह के अनेक वैचारिक संदर्भों से विवेकानंद का साहित्य भरा-पड़ा है, जो युवा पीढ़ी को प्रेरणास्पद ऊर्जा प्रदान करता है। यह एक सुखद भविष्य की संतुलित अवधारणा ही है कि 12 जनवरी, विवेकानंद के जन्म दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है। इसी के साथ यह प्रश्न भी मुखर हो उठता है कि न्यू कंज्यूमरिज्म, इंटरनेट, फैशन, एमटीवी-वीटीवी और मॉडर्न फिल्मों के दौर में सुकून ढूंढ़ती युवा पीढ़ी, विवेकानंद की वैचारिक गहराई और उसकी उष्मा को समझ पाती है? क्या उसे आत्मसात करने के बारे में सोच पाती है?
        आज का युवा इलेक्टॉनिक गैजेट्स, ब्लू टूथ, मोबाइल, एमपी थ्री और आइपॉड के जंजाल में उलझा हुआ है। महानगरों में कॉल सेंटर ने जिस कल्चर को जन्म दिया है और फॉयर, बॉम्बे ब्याइज, मानसून वेडिंग, मेट्रो जैसी फिल्मों ने जो संबंध गढ़े हैं, उसका प्रभाव युवाओं के भावों-अनुभावों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ये एक अलग अंग्रेजीदां, मॉडर्न और अल्ट्रा मॉडर्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पूरे भारत का कोई वास्ता नहीं। ऐसे में विवेकानंद के आदर्श और विचार इनके लिए कल्पनात्मक सगल के सिवा और कुछ नहीं है।
       माडर्निटी में अपना आइडेंटिफिकेशन ढूंढ़नेवाले यूथ परंपरागत मूल्यों पर संदेह करना तो सीख गये हैं, लेकिन अपने संदेह को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए तत्पर नहीं दिखते। खोखले तर्क के सहारे युवा वर्ग जीवन को नाप डालना चाहता है। सच्चाई यह है कि वह जीवन के प्रति संदेह का भाव ही था, जिसने नरेंद्र को विवेकानंद और सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध बनाया। विडंबना यह है कि वैचारिक शून्यता से ग्रसित घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलते युवा वर्ग को जीवन की सफलता का अर्थ सिर्फ साधनों और सुविधाओं का उपभोग ही लगता है। उसे चरित्र, आचरण और जीवनानुभूति से क्या मतलब!
     यह विचारहीनता का ही परिणाम है कि युवा शक्ति का एक बहुत बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक तनाव, दंगे, बाहरी-भीतरी विवाद, जातिवादी हिंसा, सड़क जाम, बंदी, रंगदारी, आतंकवाद, अलगाववादी हिंसा, संगठित अपराध, ड्रग्स, इव टीजिंग, मॉलेस्टेशन और फिकरेबाजी में लग जाता है। क्या विवेकानंद ने उतिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत का उदघोष इसी दिन के लिए किया था?

Wednesday 18 February 2015

शक्ति का हनन कहां हो रहा है?




प्रणव प्रियदर्शी
आज का परिवेश इतने तरह की विकृतियों के साथ घुल-मिल गया है कि बुराई और अच्छाई का फर्क भी धीरे-धीरे मिटता चला जा रहा है। बुद्धिजीवी कहते हैं कि जितने तरह की बुराइयां अनगिनत रूपों में व्याप्त हैं, उन सबके निराकरण के लिए संविधान सम्मत नियम-कानून बने हुए हैं। प्रश्न उठता है कि क्या नियम-कानून बना देने से ही समाधान हो जाता है? अगर ऐसा है, तो फिर समस्याएं बढ़ती ही क्यों जा रही हैं? क्यों जिंदगी कई बार प्रश्नों में ही उलझ कर प्रश्नों के साथ ही दम तोड़ देती है।
अतीत की ओर झांकने पर ऐसा लगता है कि एक समुदाय एवं समाज को ढंग से चलाने के लिए कुछ नियमों की आवश्यकता अवश्य पड़ती है। मनुष्य ने जब संगठित रूप में रहना शुरू किया, तब से ही उसे कुछ नियम-कानून बनाने पड़े। उनका उल्लंघन होने पर दंड का भी प्रावधान करना पड़ा। ऐसा देखा जाता है कि एक ही परिवार में, एक ही परिवेश में रहने के बावजूद हर भाई-बहन अलग-अलग नियति से प्रेरित होते हैं। इसलिए एक ही दृष्टिकोण से हर किसी को आंकना सर्वथा सही नहीं होता। किसी को बात से ही चोट लग जाती है। कोई हल्के आघात से आहत हो उठता है। किसी को दंड दिये बिना सही रास्ते पर नहीं लाया जा सकता। कोई दंडित होने के बाद भी पहले जैसा ही बना रहता है। यही कारण है कि कानूनी दंड की व्यवस्था सर्वथा त्याज्य नहीं होती और न ही अनुकरणीय। द्रष्टव्य यह हो जाता है कि दंडित करनेवाले व्यक्ति की दृष्टि कितनी व्यापक अथवा संकुचित है? वह व्यक्ति भी कैसा है, जिसे दंडित किया जा रहा है?
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि दहेज के लिए कानून बनाये गये, लेकिन दहेज प्रथा खत्म नहीं हुई है। नारी मुक्ति संबंधी अनेक नियम-कानून बनाये गये हैं। अनेक संस्थाएं इसके नाम पर फलती-फूलती हैं, लेकिन नारी मुक्त नहीं हो पायी है। दुष्कर्म, अपहरण, यौन-शोषण और उत्पीड़न जैसी समस्याओं की लिस्ट बहुत बड़ी है। हाल ही में एक बच्चे की शिक्षक ने बेरहमी से पिटाई की। मीडियावालों ने इस घटना को बखूबी कवरेज दिया। ठीक दो दिनों बाद बाल अधिकार सुरक्षा आयोग का निर्देश समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ पर प्रथम समाचार के रूप में ही पढ़ने को मिला कि बच्चों को मूर्ख और बेदिमागी कहें, तो जेल जा सकते हैं टीचर। सोचनीय है कि क्या सिर्फ कानून बना कर ही अपने कर्तव्य और संवेदना से इतिश्री कर लेना, हमारे राष्ट्र के शुभचिंतकों की नियति बन गयी है अथवा रास्ते आगे और भी हैं? इस संघीय व्यवस्था में जब शक्ति का अंतरण राष्ट्र से लेकर पंचायत तक किया गया है, तब शक्ति का हनन कहां हो रहा है? कानून की मोटी-मोटी किताबें दिनानुदिन बढ़ती जा रही हैं। समस्याएं भी नये-नये आकार में सामने आ रही हैं। समस्या और समाधान में कोई तारतम्यता दिखने को नहीं मिलती है। आशंका, निराशा और यातना के माहौल में बार-बार एक अनबुझा तिनका आकर उलझ जाता है, जिससे परिस्थिति और भयावह हो उठती है। जब हम आधारभूत समस्याओं से ही नहीं उबर पा रहे हैं तो विकास की बात करना थोथी बयानबाजी ही होगी।
कुछ दिनों पहले ऐसी कुछ घटनाएं भी प्रकाश में आयीं और आती ही रहती हैं कि अपराधियों को रंगे हाथों पकड़ने पर आम लोगों ने उन्हें पुलिस के हवाले न कर अपने तरीके से दंडित किया। ऐसी घटनाएं उन व्यक्तियों के साथ कानून व्यवस्था पर भी प्रश्न चिह्न लगाती हैं। लोगों का विश्वास इस व्यवस्था पर से उठने लगा है। वे जानने लगे हैं कि जब राजनीति का ही अपराधीकरण हो गया है तो अपराध को अपराध कैसे समझा जायेगा? सरकारी तंत्र के अगुवा आम आदमी के प्रति प्रतिबद्ध न होकर अपने स्वार्थ की दीवार ऊंचा उठाने में लग गये हैं तो न्याय कैसे मिल पायेगा? समय की मांग है परिवेश को नूतन आयामों से संपृक्त कर नया जनमत बनाया जाए।