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Sunday 27 November 2011

मुख्यमंत्री दाल-भात योजना

बूंद चली है सागर लाने...
गरीबों का उत्थान व महिला सशक्तीकरण का अनूठा नमूना
राज्य का आधा से अधिक हिस्सा हर वर्ष सूखे की चपेट में आ जाता है। यहां की खनिज संपदा गिद्ध दृष्टि का शिकार हो जाती है। आदिवासी परतंत्रता के दंश से उबर नहीं पाये हैं। वन संपदा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भेंट चढ़ जा रही है। मनगा पूरी तरह से सफल नहीं हो पा रही है। पारंपरिक उद्योग ध्वस्त होते जा रहे हैं। ऐसी भयावह स्थिति के बीच ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ खाली घरे में एक बूंद ही सही बूंदाबांदी की शुरुआत  कर दी है। ऐसे ही तो सागर समेटा जाता है। इतना ही नहीं ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ झारखंड की बिखरी राजनीति के बारे में सोचने को विवश करती है। लूट की विद्रुप रणनीति और राजनीतिक अराजकता ढोता झारखंड से जहां देश की अपेक्षा और यहां की विशाल आबादी का भरोसा टूट गया था, ऐसे में इस योजना की शुरुआत से आशा की कोंपलें हरी हो उठी हैं।

प्रणव प्रियदर्शी
देश का योजना आयोग 32 रुपये से अधिक कमानेवाले को गरीब मानने को राजी नहीं है। देश की राजनीति बाहुबलियों और पूंजीपतियों के हाथों में सिमट कर कितना अधिक असंवेदनशील और आमजन से कट गयी है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण योजना आयोग की जारी विज्ञप्ति से स्पष्ट हो गया है। अब बीपीएल व अन्य गरीब परिवारों के सामने यह संकट खरा है कि अगर गरीबों को गरीब नहीं माना जायेगा तो उनकी गरीबी दूर करने का प्रयास कैसे हो सकेगा? देश की वर्तमान स्थिति तो यह है कि 32 रुपये में एक आदमी का पेट भरना  संभव  नहीं है, पूरे परिवार की बात तो छोड़ ही दीजिए। वर्तमान समय में पेट भरने के सिवा और भी कई जरूरतें हैं, जिसके बिना भी जिया नहीं जा सकता। उन जरूरतों का क्या होगा? क्या समय की रफ्तार में देश का अंतिम आदमी कदमताल कर पायेगा? क्या गरीबी मिटाने की बजाय गरीबों को ही मिटाने की साजिश रची जा रही है? यह तो पूरे देश की बात हुई, जिसकी स्थिति-परिस्थिति से झारखंड भी इतर नहीं है।
अगर सिर्फ झारखंड की ही बात की जाये  तो राज्य का आधा से अधिक हिस्सा हर वर्ष सूखे की चपेट में आ जाता है। यहां की खनिज संपदा गिद्ध दृष्टि  का शिकार हो जाती है। आदिवासी परतंत्रता के दंश से उबर नहीं पाये हैं। वन संपदा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भेंट चढ़ जा रही है। मनगा पूरी तरह से सफल नहीं हो पा रही है। पारंपरिक उद्योग ध्वस्त होते जा रहे हैं।  देश व राज्य की समस्या के इस सामूहिक जुगलबंदी के बीच ‘मुख्यमंत्री दाल-भात  योजना’ खाली घरे में एक बूंद ही सही बूंदाबांदी की शुरुआत कर दी है। ऐसे ही तो सागर समेटा जाता है। इतना ही नहीं ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ झारखंड की बिखरी राजनीति के बारे में सोचने को विवश करती है। लूट की विद्रुप रणनीति और राजनीतिक अराजकता ढोता झारखंड से जहां देश की अपेक्षा और यहां की विशाल आबादी का भारोसा टूट गया था, ऐसे में इस योजना की शुरुआत से आशा की कोंपलें हरी हो उठी हैं।
बहरहाल, झारखंड में 15 अगस्त 2011 को शुरू हुई ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ के केंद्र शहरी क्षेत्रों के कुछ सार्वजनिक जगहों पर खोले गये थे। पर, इसकी सफलता को देखते हुए 2 अक्टूबर गांधी जयंती के अवसर पर शहरों में केंद्रों की संख्या बढ़ा  दी गयी, तो गांवों की जमीं पर भी इसे उतारा गया। इसके साथ ही शहरी एवं ग्रामीण केंद्रों पर 5 रुपये में ही दाल-भात के साथ सब्जी भी शामिल की गयी। चना और सोयाबीन की सब्जी 5 रुपये में ही दी जा रही है। इसे चलाने की जिम्मेदारी स्वयंसेवी संगठन के लोगों को दी गयी है, जिसमें महिला स्वयं सेवी संगठनों को जुड़ने  के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है, ताकि उन्हें भी रोजगार का विकल्प मिल सके। ‘बुंडू’ के मौसीबाड़ी प्रांगण में ‘नारी उत्थान जन कल्याण महिला समिति’ की देखरेख  में मुख्यमंत्री दाल-भात  योजना संचालित की जा रही है। ‘बुढ़मू ’ के प्रखंड मुख्यालय में ‘सोनी स्वयं सहायता महिला समूह’ द्वारा संचालित की जा रही है। खलारी में मुख्यमंत्री दाल-भात योजना की शुरुआत खलारी स्टेशन के पास की गयी है। यह केंद्र डुहू कोचा महिला समूह के द्वारा संचालित किया जा रहा है।
शहरों में दस नये केंद्र : दाल-भात  योजना की सफलता को देखते हुए राज्य के तीन शहरों में 10 नये केंद्र खोले गये हैं। धनबाद में चार, रांची में तीन और जमशेदपुर में भी तीन नये दाल-भात  केंद्र खोले गये हैं। रांची के डोरंडा एजी मो़ड, पिस्का नगरी व रातू में केंद्र खोले गये हैं। रांची के पंडरा व कचहरी के पास 15 अगस्त से ही दाल-भात केंद्र चालू है।
269 प्रखंडों में शुरुआत : मुख्यमंत्री दाल-भात योजना की शुरुआत दो अक्टूबर को 269 प्रखंडों में की गयी है। एक प्रखंड में एक केंद्र बना है। प्रखंड के एक केंद्र पर एक दिन में 300 लोगों के भोजन की व्यवस्था, जबकि शहरी क्षेत्र के एक केंद्र पर 400  लोगों के भोजन की व्यवस्था का आदेश है। यह अलग बात है कि इतने लोग एक दिन में कभी पहुचते हैं तो कभी नहीं। किसी दिन बहुत कम लोग आते हैं, तो किसी दिन बहुत अधिक। इस हिसाब से भोजन की व्यवस्था करनी होती है और 300 या 400 से अधिक संख्या होने पर पिछले दिनों की कमी को प्रबंधित कर लिया जाता है।
कैसे मिलता है भोजन :भोजन  के लिए जानेवाले लोगों का पहले रजिस्टर पर नाम व जगह लिखे  जाते है। इसके बाद अंगूठा का निशान लगवाया जाता है और फिर 5 रुपये लेकर कूपन दिया जाता है, तब उन्हें भोजन प्राप्त  होता है। हर केंद्र का चोखा व सब्जी देने का दिन अपने-अपने हिसाब से है। सब्जी में सोयाबीन-आलू, आलू-चना व कभी-कभी हरी सब्जियां भी दी जाती हैं।
दाल-भात केंद्र सुबह 9 बजकर 30 बजे से अपराहन 4 बजे तक खुला रहता है। अलग-अलग केंद्रों के खुलने के समय में थो़डा -बहुत अंतर जरूर है। सरकारी सहायता के नाम पर खाद्य आपूर्ति मंत्री के निर्देश पर एमएफसी से एक रुपये किलो चावल सेंटर को दिया जा रहा है। केंद्र के लिए जगह व मकान की भी  व्यवस्था सरकार के स्तर से ही की गयी है। बाकी बची सारी व्यवस्था स्वयं स्वयंसेवी संस्थाओं को करनी है। किसी केंद्र में चार तो किसी में पांच कर्मचारी के मत्थे पर जिम्मेदारी होती है, इन्हें बकायदा वेतन दिया जाता है। संचालक केंद्र से हुए आमदनी के बारे  में स्पष्ट तो नहीं बताते, लेकिन भविष्य में कुछ अच्छा होने की आस लिये लगे हुए हैं। आईटीआई के पास स्थित ‘प्रज्ञारूपा विकास समिति’ द्वारा संचालित दाल-भात केंद्र के संचालक मनोज कुमार इस योजना के भविष्य को लेकर पूरी तरह आशान्वित हैं। रांची के टाउन हॉल में ‘डहर’ स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा संचालित केंद्र पर खाने के प्लेट लिए बैठे भादो महतो बतातें हैं कि इसतरह का खाना होटलों में खाने पर 10 रुपये लगते हैं। जगनू महतो का कहना है कि सरकार की इस योजना से हमलोगों को बहुत राहत पहुंची है। वहीं, रिक्शा चालक मंगरा बताते है कि जब से यहां केंद्र खुला है, कहीं और नहीं जाते। खाने की गुणवत्ता के संबंध में विभिन्न केंद्रों में खाने पहुंचे लोगों से पूछने पर रुख सकारात्मक ही दिखा। इन केंद्रों पर लेबर व रिक्शाचालक अधिक संख्या में पहुँचते हैं, जिनके लिए एक प्लेट प्रतिदिन पेट भरने  के लिए काफी नहीं होता। ऐसी स्थिति में वे 10 रुपये चुका कर दो प्लेट खाना एक साथ लेकर बैठते हैं। क्षुधा तृप्ति के बाद उनके हृदय से सरकार के प्रति धन्यवाद का स्वर जरूर उठता है, जिन्हें उनके चेहरे पर अंगराई लेते देखा जा सकता है।
इसतरह झारखंड में गरीबों के उत्थान एवं महिला सशक्तीकरण का यह अनूठा नमूना है। यहां गरीबों को एक पेट भोजन  की तलाश में दूसरे  राज्यों की तरफ पलायन जारी है और यहां की लड़कियां दूस प्रदेशों में रोजगार के नाम पर दैहिक शोषण का शिकार होती हैं। उस दशा पर पूर्ण रूप से नहीं तो कम-से-कम आंशिक विराम जरूर लगेगा। अब निराला की कविता ‘तोडती पत्थर’ की वह इलाहाबाद की महिला, जिनके बारे  में उन्होंने लिखा था - ‘श्याम तन, भर बंधा यौवन/नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन/गुरु हथौडा हाथ/करती बार-बार प्रहार/सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।’ अट्टालिका भले ही उसके सामने हो, लेकिन झारखंड में वह एक समय के भोजन  के लिए तरसेगी नहीं। और, जब पेट भरा रहेगा तो जिनके चूसे खून से अट्टालिकाएं खड़ी होती हैं, उनसे प्रतिकार की क्षमता भी बढ़ेगी। जनकल्याण की ऐसी योजनाएं किसी राजनीतिक मुगालते से नहीं, बल्कि संवेदना की झनझनाहट और अपने सरोकार की समझ से पैदा होती है। हालांकि, स्वार्थलोलुप राजनीति एक तरफ लोगों का हक छीनती है तो दूसरी तरफ भरोसे के पतले धागे को जोड़े  रखने के लिए कुछ कल्याणकारी योजनाएं भी  चला देती हैं। पर, गौर से देखने पर उससे बेगानेपन का भाव  साफ झलकता रहता है। तमाम पहलुओं पर विचार कर हमें यह मानना होगा कि झारखंड राज्य जिन हसरतों के साथ अपने-आप को 11 वर्ष पूर्व अस्तित्व में लाया था,  उस ओर ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ की शुरुआत एक सराहनीय कदम है। जिस तरह बिहार सरकार ने कई महत्वपूर्ण योजनाओं को अमलीजामा पहना कर विश्व के लिए अनुकरणीय बन खड़ा हुआ है, उसी तरह यह आशा करने में तनिक भी गुरेज  नहीं की जा सकती कि झारखंड सरकार का यह अनूठा कदम भी विश्व मानचित्र पर अपनी अलग पहचान दर्ज करायेगा।
जल, जंगल और जमीन के साथ सहअस्तित्व की जिजीविषा में अपने-आप को  ढालनेवाले झारखंड की संस्कृति से यहां के जनप्रतिनिधि भी विलग नहीं हुए हैं, इस भावना को ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ आधार प्रदान करती है। भारत में 20 रुपये प्रतिदिन पर गुजर कर रहे 83 करोड़  लोगों के कल्याण की दिशा में इस योजना को विस्तार देने की जरूरत है, ताकि व्यवस्था के दंश से मुफलिसी में जी रहे लोगों को राहत की थोड़ी छांव मिल सके। इसकी अगली कड़ी  में ‘मुख्यमंत्री लाडली-लक्ष्मी योजना’ भी  एक अलग सोपान बनाने की ओर चल पड़ी है। आनेवाले वक्त में यह कितने अरमानों को परवाज देने में सफल होगी, यह अभी भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। ऐसी और भी योजनाओं की जरूरत है। हम यह शुभकामना करते हैं कि झारखंड की जमीं पर ऐसी और भी योजनाएं उतरें, वे सफल भी हों, ताकि यहां की आवोहवा की सुरमयी ताजगी फिंजा में नयी रंगत घोल सके।

Friday 23 September 2011

विगत से सबक लेने का वक्त

प्रणव प्रियदर्शी 
बीते बुधवार 7 सितंबर को एक बार फिर दिल्ली दहल उठी। जैसा कि होता आया है; घटना के बाद नेताओं का मिमयाना और जांच का प्रभार सुरक्षा एजेंसियों पर थोप देना, यही हुआ। मृतकों और घायलों के लिए अलग-अलग मुआवजे की घोषणा की गयी। संदिग्धओं के स्केच जारी कर विस्पोट का सुराग देनेवालों के लिए पांच लाख रुपये इनाम की घोषणा कर दी गयी। बस और क्या! हो गयी जिम्मेदारियों की इतिश्री। यही तो है शीर्ष पर बने रहने के कायदे, कर्तव्य या फिर नुकसान कहें। तोते की तरह रटे-रटाये संवेदना और सहानुभूति के शब्दों से जनाक्रोश को मोड़ने की हुनर कोई इनसे सीखे! इतने से काम न चले तो कुछ अटपटा बयान देकर सुर्खियों में बने रहें। इससे ज्यादा इस देश में होता है कुछ? मेरी बातों पर यकीन न हो तो अभी तक जो होता आया, उसी का पुनरावलोकन कर लें।
      हमारी मूक एजेंसियां, विफल खुफिया तंत्र और नेताओं की चाकरी में चौबंद पुलिस महकमा कुछ की गिरफ्तारी करेगा, कुछ से पूछताछ और फिर सब कुछ भविष्य की रेत में समा जायेगा। कम-से-कम बीते वर्षों का लेखा-जोखा तो इतना ही है, जिसमें एक भी आतंकी घटनाओं के तह तक पहुंचने में हमारा सुरक्षा तंत्र नाकामयाब दिखा है। जब तक अतीत की समस्याओं की नब्ज टटोल कर उसका कारगर समाधान नहीं किया जाता है, तब तक समस्याएं अपने-आप को दुहराती रहती हैं। हम अभी तक आतंकी समस्याओं को दबाते रहे हैं। अपनी सौहार्दपूर्ण छवि का हवाला देकर किंकर्तव्यमूढ़ हो बैठ जाते हैं। इसी कमजोरी का फायदा हमारे आंतरिक और बाह्य षड्यंत्रकारी उठाते हैं। फिर भी हम अपनी छवि पर गर्व से फूले नहीं समाते। हम क्यों यह भूल जाते हैं कि आततायियों को कुचलने के लिए हमारे देश में भी महाभारत जैसे भीषण संग्राम हुए हैं। न जाने कितनी बार दुष्टों के दलन के लिए हमारे पूजित देवता अवतार लिए। यहां तक कि कूटनीतिक तरीके अपनाने में भी पीछ नहीं रहे। दरअसल, हमारी छवि एक कायर और कमजोर मानसिकता की ओर अग्रसित होती जा रही है। नहीं तो क्या मजाल कि एक बार दहशत फैलाने के बाद बार-बार ईमेल से धमकी दी जा रही है। अगले मंगलवार को किसी शॉपिंग मॉल में विस्फोट की चेतावनी देकर सुरक्षा एजेंसियों की नींद और हराम कर दी है। पहले ही अंधेरे में हाथ पैर मार रहीं लाचार जांच एजेंसियां और ज्यादा भ्रमित दिख रही हैं। कभी घटना की जिम्मेदारी हरकत-उल जेहादी(हूजी) लेता है, तो कभी इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठन। अफसोस कि भारत पर हमले की जिम्मेदारी लेने के लिए भी होड़ मचती है।
      संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को सिर्फ मौत की सजा सुनायी गयी है, अभी मौत नहीं हुई है। लेकिन, इस निर्णय के बदले में ताजे आंकड़े के अनुसार ग्यारह लोगों की जान ले ली गयी है। 86 घायल हैं, जिनमें 15 की हालत गंभीर बनी हुई है। बदले की यह कैसी भावना है? प्रधानमंत्री कहते हैं यह कायराना हरकत है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? क्या आतंकवादी संगठन अपने-आप को कायर मान लेते हैं? वे तो हमें कायर समझ कर अपने मनसूबे को बेखौफ पूरा करते हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यह भी कहते हैं कि हम कभी आतंकवाद के सामने घुटने नहीं टेकेंगे, बल्कि उसका उचित तरीके से जवाब देंगे। इस ‘उचित’ शब्द का उनकी नजरों में क्या मायने है, ये वह ही समझें। इस घटना में जिनकी जान गयी है, उनके परिजन ही इस शब्द के सही मायने बतायेंगे। घटनास्थल का दौरा करने के बाद जांच की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए) को सौंप दी गयी है। सरकार के सबसे मुखर चेहरे यानी गृह मंत्री पी. चिदंबरम के पास जनता को सुरक्षा का भरोसा दिलाने के लिए इसके सिवा अब शब्द नहीं बचे हैं। केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने एक बड़े पते की बात कही है कि लोग अब जीने के आदी हो चुके हैं। उन्होंने कहा कि मुंबई में विस्फोट के बाद भी लोग काम पर गये थे। दिल्ली में भी धमाके के दूसरे ही दिन कोर्ट चलती रही। लोग आदी हों या न हों, सुबोधकांत तो जरूर आदी हो चुके हैं। अकारण नहीं है कि वह मुंबई विस्फोट के वक्त फैशन शो देखने में मशगूल थे। निडर होकर काम पर लौटना मुंबई और दिल्ली की जिंदादिली जरूर है, पर अमानवीय घटना के प्रति आक्रोश और विरोध न होना, उसे एक रुटीन की तरह लेना; हमारी सूखती संवेदना का परिचायक है। इससे खतरे कम नहीं हो जाते, समस्याएं खत्म नहीं हो जाती, बल्कि और वीभत्स रूप लेकर सामने आती हैं। जिस तरह घटना के तार सीमा पार से लेकर देश के भीतर विभिन्न राज्यों से जुड़ रहे हैं, उसी तरह हमारी संवेदनाओं के तार भी जुड़े होते हैं। इस्रायली कवि येहुदा अखिमाई की एक कविता ‘बम का दायरा’ याद आ रही है- ‘तीस किलोमीटर था बम का व्यास/और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक/चार लोग मारे गये, ग्यारह घायल हुए/इनके चारों तरफ एक और बड़ा घेरा है – दर्द और समय का/दो अस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए/लेकिन वह जवान और जो दफनायी गयी शहर में/वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर दूर आगे कहीं/वह बना देती है घेरे को और बड़ा/ और वह अकेला शख्स जो समंदर पार किसी देश के सुदूर किनारों पर/उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था-समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में/और मैं अनाथ बच्चों के उस रूदन का जिक्र तक नहीं करूंगा/जो पहुंच   जाता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक।’
      दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर ही 25 मई को भी विस्फोट हुआ था, जो ज्यादा खतरनाक नहीं था, लेकिन एनएसजी की रिपोर्ट में यह साफ हो गया था कि आतंकवादियों की कोशिश एक बड़ा धमाका करने की थी, सौभाग्य से बम का डेटोनेटर जल गया और वह विस्फोटक पदार्थ को नहीं जला पाया। एनएसजी ने यह भी साफ कर दिया था कि यह कोई देसी बम नहीं था, बल्कि बेहद घातक सिद्ध हो सकनेवाला आधुनिक तकनीक से बना बम था। 7 सितंबर को हुए विस्फोट से यह साफ हो गया कि आतंकवादियों ने अपनी तकनीकी कमियां सुधार ली हैं। हम कब सुधरेंगे? हम कब अपनी विगत की गलतियों से सबक लेंगे?

Monday 5 September 2011

क्या लोकपाल है भ्रष्टाचार का इलाज?

प्रणव प्रियदर्शी 
अन्ना ने जिस आंदोलन का अलख जलाया, उससे पूरा जनमानस आंदोलित  हो उठा. इसने वर्षों से सोयी पड़ी चेतना को पुनर्मंथन व स्वयं से प्रश्न करने का संबल प्रदान किया.जिसका उत्तर आंदोलन के दौरान भी खोजा जा रहा था और आज भी खोजा जा रहा है. कोई स्वयं को छिपाते हुए भ्रष्टाचार का कारण व्यक्तिगत मज़बूरी बताता है, तो कोई बढ़ती महंगाई, वहीं कोई सुविधा का हवाला देता है. इतना ही नहीं कोई सामाजिक मूल्यों के अवमूल्यन को जिम्मेवार ठहराता है, तो कोई अन्य कारण बताता है. दरअसल करप्शन का हाल कई मामलों में आपसी साझेदारी जैसा हो गया है. वहां जो ले रहा है, वह कायदे-कानून के बीच कुछ रियायतें बेच रहा है और जो देता है, वह रियायतों की कीमत चुकाता है. इस तरह दोनों ही फायदा उठा रहे हैं. चुना लग रहा है देश को, जो हवा की तरह अदृश्य ही होता है. कई चिंतकों का लोकपाल से कोई अपेक्षा नहीं है, क्योंकि वे मानतें हैं कि सिर्फ कानून बन जाने से किसी भी बुराई का अंत नहीं होता. कानून सिर्फ सजा देता है, अपराध को रोक नहीं सकता. कानून में इतनी सबलता होती तो भ्रष्टाचार का फन पसरता ही नहीं. बड़े करप्शन को तो लोकपाल या जन लोकपाल का डंडा दिखाया जा सकता है, लेकिन छोटे  करप्शन को  डराना बेहद मुश्किल है. कायदे या सिस्टम उसे मात  नहीं दे पाते, क्योंकि वह अनगिनत सुराखों से गुजर सकता है. इतना तो मानना हो पड़ेगा कि हमारा सुविधाभोगी जीवन जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, हमारे मानवीय मूल्य गिरते जा रहे हैं. स्वयं के लिए हर चीज न्यायसंगत है, वहीं कोई दूसरा करे तो वही चीज अन्याय हो जाता है. यह प्रवृति पता नहीं हमने कहाँ से सिखी है. भ्रष्टाचार के  अंत के लिए कोई लेनेवाले पक्ष के खिलाफ नहीं, बल्कि देनेवाले पक्ष के खिलाफ आंदोलन चलाने का आह्वान करता है, तो कोई सामाजिक मूल्यों को सहेजने की दुहाई देता है, वहीं कोई मनतंत्र को जीतने की बात करता है. हमें सोचना चाहिए कि  हम अपने स्तर से क्या प्रयास कर रहे हैं?

Thursday 18 August 2011

वीर-बांकुरों की धरती पर धुआं-धुआं जिंदगी

प्रणव प्रियदर्शी 
हमारी जिन्दगी के रफ़्तार भरे दौर में बहुत चीजें छूट रही हैं. छूट रही हैं सफर में पीछे छूट चुके लोगों को खोजती निगाहें. छूट गयी है किसी को हाथ देकर अपने साथ खींच लेने की तमन्नाएँ. छोड़ चुके हैं हम किसी के इंतजार में मौन रह कर आँखों में ही बरस बिता देनेवाले लोगों की संवेदना पर मरहम लगाना. यह दौर कितना निष्ठुर है, कितना संवेदनहीन! हम देख नहीं पा रहे हैं कि इस दौर में खत्म होती जा रही है हमारे मनुष्य होने कि संभावनाएं भी. चेतते हैं तब, जब रफ़्तार में घट जाती है कोई दुर्घटना. ऐसा नहीं हो इसके लिए जरूरी है हम पहले से ही सावधानी बरतें. रफ़्तार कि गति थोड़ी सी धीमी कर अपने आसपास के सरोकार और पीछे छूट चुके लोगों की जिन्दगी को भी देखें. क्योंकि जब हम रफ़्तार में गिर कर पीछे छूट जाते हैं तो ऐसे लोग ही हमारा सहारा बन कर हमें चलने के काबिल बनाते हैं. इतना सब कहने का निहितार्थ यह है कि हमारे झारखण्ड कि बीरी मजदूरों की जिन्दगी बहुत पीछे छूट चुकी है. रफ़्तार तो दूर वे विकास की मुख्य धारा से भी नहीं जुड़ पाये हैं. अवसर की समानता व अपने अधिकारों से भी अनभिज्ञ हैं. इसके कई कारण हैं - राज्य सरकार की लापरवाही, पारंपरिक रुढी, अंधविशवास, व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा, संगठन व सशक्त आवाज का आभाव, राजनीतिक चेतना व सक्रियता की कमी. झारखण्ड के पाकुड़, चतरा, देवघर, साहबगंज, दुमका, गोड्डा, हजारीबाग, पूर्वी सिंघ्भूम, पलामू आदि जिले में लाखों की संख्या में बीरी मजदूर कार्यरत हैं. इनकी स्थिति आज भी वैसी ही है, जैसी आजादी के बाद के दिनों में थी. राज्य सरकार के पास इनकी संख्या का सही आंकड़ा भी नहीं है. दुर्भाग्य की बात है कि झारखण्ड राज्य गठन के ग्यारह साल बाद भी बीरी मजदूरों कि समस्या किसी राजनीतिक पार्टी का एजेंडा भी नहीं बना.