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Saturday 24 August 2013

झारखंड में भी अंधविश्वास पर हल्ला बोल

कार्य करने में अंतर जरूर है, लेकिन मकसद एक ही है, लोगों को जागरूक करना
वन देवी की आड़ में लोगों की बलि के पीछे के यथार्थ का पर्दाफाश 
प्रणव प्रियदर्शी
रांची। अंधविश्वास के खिलाफ लड़नेवाले नरेंद्र दाभोलकर की पुणे में हत्या के बाद पूरा देश आंदोलित है। लेकिन यह बहुत कम को पता है कि झारखंड में भी युवाओं की एक ऐसी टोली ऐसी है, जो अंधविश्वास के खिलाफ रणभेड़ी बजायी हुई है। इनके कार्य करने में अंतर जरूर है, लेकिन मकसद एक ही है, जागरूक करना। इस टोली में पांच सदस्य हैं। ये सभी ह्यझारखंड पारानार्मल सोसाइटीह्ण से जुड़े हुए हैं। यह संस्था अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका निभा रही है। विदित हो कि जीटीवी पर प्रसारित होनेवाले फियर फाइल की शरुआती तीन महीने के एपिसोड के लिए इनकी रिसर्च टीम व स्टोरी का सहारा लिया जा चुका है। सोनी टीवी पर भी इसीतरह की एक सीरियल आनेवाली है, जिसमें भी इनका काम हो रहा है। पारानार्मल (असामान्य, अलौकिक) से संबंधित जब कोई मामला इनके पास पहुंचता है, पूरी टीम वहां पहुंचती है। अपने यूनिक रिसर्च बाक्स के साथ घटना की तह तक जाती है। पूरे घटनाक्रम को बगैर किसी तर्क और बतकही के प्रमाणिकता के साथ लोगों के समक्ष रखा जाता है। जिससे सहज ही इन्हें  विश्वास हासिल हो जाता है।
        बहुत दिन नहीं हुए हैं, जब चाईबासा के सारंडा में डुम्भीशाही पहाड़ पर वन देवी की आड़ में लोगों की बलि के पीछे के यथार्थ का इन्होंने पर्दाफाश किया। यहां यह विश्वास कायम था कि हर वर्ष गोवर्धन पूजा के दौरान लगनेवाले मेले में वन देवी एक की बलि लेती है। सालों से ऐसा ही होता आ रहा था। आश्चर्य तो ये है कि इस मामले पर कोई पुलिस केस भी दर्ज नहीं किया जाता था। जहां लाश मिलती थी, लोग उस जगह पर दिन में भी जाने से कतराते थे। टीम बेझिझक वहां पहुंची और अपने रिसर्च के माध्यम से यह साबित किया कि वन देवी किसी की बलि नहीं लेती। यह किसी अपराधी गिरोह के सक्रिय होने की नुमाइंदगी है। गांव के लोगों ने रिसर्च को सराहा और अगली बार से सतर्क रहने का आश्वासन दिया। ऐसे कई छोटी-बड़ी व्यक्तिगत व सामूहिक समस्याओं पर इन्होंने काम किया है। कई लोगों की जिंदगियों को नव विहान से संपृक्त किया है।
       

भारत में यह संस्था 2009 से कार्य कर रही है, जबकि झारखंड में 2012 से सक्रिय है। भारत में ह्यइंडीयन पारानार्मल सोसाइटीह्ण नाम से चर्चित संस्था को लाने का श्रेय गौरव तिवारी को जाता है, जो कई राज्यों में संचिालित है। इसी से आबद्ध झारखंड में ह्यझारखंड पारानार्मल सोसाइटीह्ण शिशिर कुमार के संचालन में कार्य कर रहा है। इन्होंने अपनी पढ़ाई पारानार्मल से संबंधित विषय को लेकर आइएमएचएस, अमेरिका से भी की है। इस विषय से एम.ए. कर चुके हैं। फिलहाल पीएचडी की तैयारी में लगे हैं। इनसे झारखंड में आदेश कुमार, विद्युत सिंह राय, रंजीत कुमार, सागर मिश्रा और सौरभ जुड़े हुए हैं। इनके रिसर्च बॉक्स में डीजीटल इन्फरारेड थर्मोमीटर, केआइआइ मीटर, डीजीटल इएमएफ मीटर,ओवाइजा बोर्ड, घोस्ट मीटर प्रो आदि उपकरण रहते हैं। जिसके माध्यम से इनर्जी, स्ट्रेंथ, साउण्ड और आभासी दुनिया की हरकतों की पहचान करते हैं। और फिर अपने रिसर्च को अंजाम तक पहुंचाते हैं। 

Wednesday 14 August 2013

कोई हमें भी बताये देश प्रेम होता है क्या?


प्रणव प्रियदर्शी
स्वतंत्रता दिवस का नाम जेहन में गूंजते ही एक अलग ही रोमांच और खुशी से मन इठला उठता है। ऐसा किस कारण से होता है? कभी सोचा है हमने? स्वतंत्रता शब्द के स्वाद से या फिर दिवस के अनुराग से? स्वतंत्र फिजां में सांस लेने से या फिर किसी त्योहार के आगाज से? रविवार के अलावा सप्ताह में एक और छुप्ती जुड़ने के उत्साह से? वजह कई हो सकते हैं, लेकिन एक वजह शायद ही किसी के मन कुहुक उठती हो। वह ये कि स्वतंत्रता दिवस एक ऐसा महत्वपूर्ण दिन है, जिस दिन हमें मौका मिलता है अपने वीर शहीदों के अनुग्रह में नतमस्तक होने का।
     विडंबना यह है कि नतमस्तक होने पर भी सिर्फ हमारा मस्तक ही झुकता है, मन नहीं झुकता। और मन को झुकाने के लिए हम कोई पहल भी नहीं करते। आखिर करें भी कैसे? क्योंकि हमें न खुद से प्यार है, न अपनी जिंदगी से। जिस आबोहवा में रहते हैं, जिस सरोकार में सांस लेते हैं, उससे न कोई लगाव है। भारतीयता या राष्ट्रवाद क्या होता है, न उस तरफ कोई झुकाव है। हमें न अपनी संस्कृति का कोई मलाल है और न ही अपनी सामाजिक जीवन पद्धति से कोई आकर्षण। हमें अपनी विरासत के प्रति न मोह है और न भविष्य के प्रति कोई दृष्टि। 
       इसी का नतीजा है कि अभी स्वतंत्रता दिवस का समय है और पाकिस्तान ने जम्मु-काश्मीर के पुंछ में षड्यंत्र कर हमारे पांच जवानों की हत्या कर दी। जिसमें चार जवान बिहार के ही थे। पाकिस्तान के प्रति पूरे देश में आक्रोश दिखा। लेकिन बिहार ने सामूहिक रूप से इनके प्रति अनुग्रह का भाव नहीं दिखाया। उनके शव को जब पटना हवाई अड्डे पर लाया गया तो सत्ताधीन सरकार के किसी भी मंत्री को इतनी भी फुर्सत नहीं थी कि उनका सादा स्वागत भी कर पाते। इस कारगुजारी के बारे में जब उनसे पूछा गया तो उल्टे पूछनेवाले पर ही बरस पड़े। आक्रोश में मन का दबा रंग बाहर छिटक ही जाता है। ऐसा हुआ भी। तीन मंत्रियों के छिटके रंग ने सरकार का रंग उतार दिया। वे हमारे ही द्वारा चुने गये प्रतिनिधि हैं। उनके रंग में भी तो हमारा रंग घुला है। वे हमारे ही अच्छे-बुरे रंग का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए उनके दिये गये बयान के मर्ज को अपने मन के तराजू पर भी तौलना जरूरी है। मंत्रियों ने कोई नयी बात नहीं कही। उन्होंने हम सबकी बात कही है। देश प्रेम के नाम पर हमारे-आपके मन में क्या चलता है, उसका भेद खोला है।
      ग्रामीण विकास मंत्री भीम सिंह ने कह डाला- 'जवान शहीद होने के लिए ही होते हैं। लोग सेना और पुलिस में नौकरी क्यों लेते हैं?' भीम सिंह ने भीम की तरह मोटी बात कही। हम साधारण जन में भी क्या शहीदों के लिए ऐसी ही भावना नहीं है? सेना और पुलिस की नौकरी में सभी देश प्रेम से आप्लावित होकर ही तो नहीं जाते। अधिकांश के लिए ऐसी नौकरी देश सेवा नहीं विवशता है। इस तरह की नौकरी में हर समय मौत मौके के इंतजार में खड़ी रहती है, फिर भी रोटी की विवशता उससे टकरा देती है। अगर सिर्फ सेवा भाव से लोग इस ओर जाते तो नौकरी शब्द सेना और पुलिस के लिए अपमानित शब्द होता। 
     इसके बाद बिहार के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह ने पाकिस्तान का पक्ष लिया था। उन्होंने शहीद जवानों के परिजनों के अनशन को नाटक बताया था। क्या हमारे देश में ऐसे लोग नहीं हैं, जो खाते तो इस देश का हैं, लेकिन पक्ष पाकिस्तान का लेते हैं? क्या हमारे देश में अनशन अपने स्वार्थलोलुप इच्छाओं को मनवाने के लिए नहीं किया जाता?
    बात से बात निकली और शहीद जवान प्रेमनाथ सिंह के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होने के बारे में बिहार के विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्री गौतम सिंह ने कह डाला- 'क्या फर्क पड़ता है।' गौतम बुद्ध तो ये है नहीं कि इनकी बातों को अनासक्ति की साधना से उत्पन्न मध्यमा, बैखरी मान लिया जाता। बुद्ध की जगह सिंह हैं, इसलिए तूफान मचना ही था। लेकिन उन्होंने क्या गलत कहा! जवानों के शहीद होने से देश में कितने लोगों की भावुकता लिरजती है? कितने को फर्क पड़ता है कि इसकी पड़ताल करे कि कबतक सीमा पर हमारे देश के जवान खून बहाते रहेंगे और प्रतिफल कुछ नहीं निकलेगा। जिनसे इनकी उम्मीद की जाती है, वे भी तो दुश्मनों का रहनुमा बन कर बैठे हैं।
      बजाहिर, हमें स्वतंत्रता दिवस एक अवसर प्रदान करता है। एक ऐसा अवसर कि हम विचार कर सकें कि देश प्रेम की भावना हमारे भीतर कैसे पल्लवित-पुष्पित हो सके? कैसे अपने चारों ओर के फूल-पत्तों, भाव-भंगिमा के प्रवाह में सम्मलित होकर अपने प्रेम को विस्तार दे सकें। कैसे हम स्वतंत्रता के मूल्य को समझ कर उसे आत्मसात करने की ओर बढ़ सकें। कि कैसे निढाल होती जिंदगी के बीच मरते सपनों के बीज को फिर से जगा सकें।