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Friday 30 November 2012

...इसे कहते हैं कलात्मक दृष्टि


...कहीं दाग न लग जाए!


तथाकथित सभ्य समाज में महिलाओं के प्रति भेदभाव, प्रताड़ना और हिंसा की लंबी कहानी है। युग प्रवाह में इन्होंने अपनी अपरिमित सहनशीलता के बल पर चुपचाप हर अनैतिक यातना सही है। पर, परिवेश में अब नयी बयार दस्तक दे चुकी है। महिलाओं के न्यायोचित हक में हजारों कानून बन चुके हैं। इसकी जानकारी जगह-जगह विभिन्न तरह के आयोजनों के माध्यम से भी सतत दी जा रही है। तदनुरूप वे जागरूक हो रही हैं, यकायक झनझना कर उठ खड़ी हुई हैं। अपने अनुसार अपनी दुनिया निर्मित करने की चाहत उनके भीतर हिलोरें मार रही है। आपसी अंतर्द्वंद्व को पास बैठ कर सुलझाने की प्रवृति के स्थान पर वे सीधे अदालत का दरवाजा खटखटा रही हैं। इस सबसे इतर उनके बढ़ते कदमों का दूसरा पक्ष, पर्दे के पार का सच भी जानना जरूरी है। प्रणव प्रियदर्शी की रिपोर्ट

किसी ने कहा था अब नारी वंचित होकर नहीं जिएगी। समझाया गया था नारी के हक में बन गये हैं हजारों कानून। दी गयी थी उसे उसकी जानकारी, किया गया था विश्लेषण। पर, उसे कहां पता था कि ऐसे कानून ही उसके जीवन के अनुराग को डंस लेगा और वह दोहरे जीवन जीने की वर्जनाओं में पिसने को विवश हो जाएगी। मजबूरी की बांध इतनी ऊंची हो जाएगी कि उसे लांघने की कोशिश में उसका वजूद ही बिखर जाएगा। यह सुनीता नंदी (बदला हुआ नाम) की आपबीती है, जिसे कहे तो जग हंसाई-छिपाये तो हो जाता है मन भारी। ऐसे ही न जाने कितनी सुनीता नंदी हमारे-आपके आसपास मौजूद है; अपने-आपको छिपाती, बहलाती, अच्छे दिनों की आस में आंखें बिछाई हुई। उनके मर्म को पोंछना चाहें तो उनका जख्म हरा हो जाता है, अगर रास्ता दिखायें तो जमाना कहता है-बहका रहा है।
        ऐसी ही होती है जीवन की कुछ सच्चाई। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। जिन्होंने जीवन की तासीर को अनुभव की भट्ठी में निखारा-संवारा था, उन्होंने कहा था-महत्वपूर्ण चीजें अगर गलत हाथों में पड़ जाए तो उसका गलत परिणाम ही सामने आता है और गलत चीजें भी महत्वपूर्ण हाथों में पड़ कर एक नयी महत्ता को प्राप्त कर लेती है। इसलिए कोई चीज हम किन हाथों को सौंप रहे हैं, इस पर विचार किया जाना चाहिए, उसको परखा जाना चाहिए।
        आजकल विधिक जागरूकता केंद्र या विधिक सेवा प्राधिकार के तहत विभिन्न गांव, कस्बा, स्कूल व कॉलेजों में कार्यशालाओं का आयोजन बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। जिसमें बालिग-नाबालिग, विवाहित-अविवाहित सभी को नारी उत्पीड़न व हिंसा से संबंधित विभिन्न तरह के कानूनों के बारे में जानकारी दी जाती है। नारी के कानूनन अधिकार व सुविधाओं से परिचित कराया जाता है। पर, जिसे इसके बारे में बताया जाता है; उसके व्यक्तिगत जीवन के उतार-चढ़ाव के बारे में कार्यशाला में बैठे किसी भी स्त्री-पुरुष वकीलों को पता नहीं होता। वे उनके व्यक्तित्व के किसी भी आयामों से परिचित नहीं होते। उपस्थित लोग किस परिस्थिति के किन पहलुओं से असंतुलित होकर कानून का सहारा लेंगे, इसकी कोई चिंता शायद ही उन्हें होती है। किसी में कानून का उपयुक्त उपयोग करने की पात्रता है भी या नहीं, इसकी परवाह आखिर कौन करेगा? सावधानी के नाम पर केवल इतना ही बता दिया जाता है कि मुकदमा सच्चाई पर आधारित हो। झूठा होने पर दायर करनेवालों पर ही सजा हो सकती है।
        हां; वे यह भी नहीं बताते कि इन कानूनों का जिन्होंने उपयोग किया है, उसका परिणाम क्या हुआ? उसकी स्थिति पहले से अच्छी हो गयी या पहले से भी खराब? शायद उन्हें भी नहीं पता हो, क्योंकि संभव है मुकदमा की लड़ाई लड़ने के बाद क्लाइंट से कोई संवेदनात्मक संबंध होने के अभाव में उनके व्यक्तिगत जीवन में झांकने की जहमत नहीं उठाते हों या अनुभव होता भी होगा तो वे अक्सर इसे बताने की जरूरत नहीं समझते होंगे। आखिर, यह दायित्व कौन उठाएगा? एक वकील जितनी अच्छी तरह से उठा सकता है, उतना दूसरा कोई नहीं। यह जरूरी भी है, कार्यशाला में उन तमाम अनुभवों को भी बांटा जाना चाहिए; क्योंकि कोई भी प्रश्न जीवन के प्रश्न से बड़ा नहीं होता और  कभी-कभी जीवन की एक छोटी सी गलती न जाने कितनी गलतियां करने के लिए आदमी को बाध्य कर देती है। इतना ही नहीं कभी-कभी तो ऐसा दाग लगा देती है, जिसे कितना भी हटाने-मिटाने की कोशिश की जाए, मिट नहीं पाता। अहसासों के बीच बैठ कर वक्त-बेवक्त खरोंचते रहता है।
        जरूरी यह भी है कि जिसे हम कानून की शिक्षा दे रहे हैं, हक और हुकूक के बारे में बता रहे हैं; उसकी चारित्रिक दृढ़ता, आत्मिक कौशल और निर्णय क्षमता भी परखी-जांची जाए। ताकि परिस्थितिनुकूल गलत निर्णय के साये में कानून का सहारा लेने पर जीवन कहीं गहरी खाई में न चला जाए। हम अपनी ऐतिहासिक परंपरा की ओर झांकें तो पता चलेगा कि गुरु अपने शिष्य को कोई अमोध शक्ति प्रदान करने से पहले उसे चरित्र और व्यक्तित्व के स्तर पर सक्षम बनाता था। उस पर विश्वास करने से पहले उसकी कई बार परीक्षा ली जाती थी। अब इतना संभव तो नहीं, लेकिन अपने स्तर से इस ओर कुछ प्रयास तो किया ही जा सकता है। बात-बात पर कानून का सहारा लेना डंवाडोल स्थिति का परिचायक होता है। इसे दुनिया की कोई अदालत भी सही नहीं मानती। बढ़ते एकल परिवार से इस तरह का चलन जोर पकड़ता   जा रहा है। इसी के मद्देनजर पहले हमारे यहां बहुत सारे विवादों का निपटारा आपसी बातचीत व मध्यस्थता से ही कर लिया जाता था। परंतु, अब यह दूसरे देशों की बात होती जा रही है। इसे अमल में लाने पर भी बल दिया जाना चाहिए। इसी परिप्रेक्ष्य में पिछले वर्ष दिल्ली में मध्यस्थता विषय पर आयोजित एक सेमिनार में यह बात कही गयी कि भारत के लोगों में झगड़े सुलझाने की प्रवृत्ति ही नहीं है। यही वजह है कि विवादों का निपटारा अदालत के बाहर नहीं हो पाता और अदालतों में मुकदमों का अंबार बढ़ता जा रहा है। मुख्य न्यायाधीश एस.एच. कपाड़िया के इस मत से दूसरे वक्ता जजों ने भी सहमति जताई। इन जजों ने अदालतों पर से मुकदमों का बोझ कम करने के लिए विवाद निपटाने के वैकल्पिक उपायों पर जोर देने की जरूरत बताई। जिस दिशा में धीरे-धीरे पहल हो रही है। हालांकि इसे और भी गति देने की जरूरत है।
        जीवन छोटी-छोटी बातों पर ही निर्भर करता है, छोटी-छोटी बातों से ही बनता-बिगड़ता है। अपना अधिकार हासिल करना, अनीति का प्रतिकार करना, अन्याय के प्रति आवाज उठाना और किसी की आवाज बन जाना अपने-आप में श्रेष्ठता का परिचायक है। पर, इस दौरान अपने-आप में ही टूट कर बिखर जाने की विवशता भी समझदारी की निशानी नहीं है। अत: हर स्तर पर हम इतना सबल बनें कि हमारे द्वारा उठाया गया हर कदम हमें नव उल्लास से भर कर अधिक से अधिक सुखद व आनंददायक बनाए।

Tuesday 27 November 2012

मिथिलांचल का लोक पर्व सामा-चकेवा


जीबऽ जीबऽ जीबऽ की मोर भैया जीव’



प्रणव प्रियदर्शी
रांची : झुंड में चंगेरा के साथ सामा की मूर्ति लिये मिथिलानियों की चहलकदमी और झारखंड मैथिली मंच के पारंपरिक आयोजन से मंगलवार को हरमू मैदान दमक उठा था। नारी मुक्ति व भाई-भहन के अटूट प्रेम का लोक पर्व सामा-चकेवा भातृ द्वितिया से प्रारंभ होकर मंगलवार को संपन्न हो गया। कॉलोनियों में भी कई जगह मिथिलानियां सामा-चकेवा का विधान करती दिखीं। झारखंड मैथिली मंच द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मैथिल भाषा-भाषियों ने सामूहिक रूप से सामा-चकेवा का विसर्जन किया। 200 से अधिक महिलाएं अपने घर से डाला-चंगेरा सजाकर लायी थी। सामा अदला-बदली के दौरान पारंपरिक मंत्र से भाइयों के दीर्घायु जीवन की कामना की गयी। जीबऽ जीबऽ जीबऽ की मोर भैया जीव’/ कि तोर भैया जीव’/ जैसन धोबियाक पाट तैसन भैयाक पीठ/जैसन करड़िक थम्ह तैसन भैयाक जांघ/जैसन पोखरि सेमार तैंसन भैयाक टीक। सामा-चकेवा पर धार्मिकता से अधिक समाजिकता का पक्ष भारी है। यही कारण है कि लोक आस्था का उक्त पर्व राजनीतिक संघर्ष एवं नारी मुक्ति से जुड़ी कई पौराणिक गाथाओं की याद ताजा करा जाता है। सामा-चकेवा धार्मिकता एवं सामाजिकता से जुड़ी नारी संघर्ष एवं उसकी मुक्ति की एक अजीबो-गरीब गाथा है। महिलाओं द्वारा इसकी महत्ता को उजागर करते हुए इसे भैया-दूज से शुरू कर कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में समापन किया जाता है। इस बीच प्रत्येक रात्रि में महिलाओं की टोली द्वारा नारी संघर्ष एवं मुक्ति से जुड़े उक्त पौराणिक कथाओं पर आधारित लोकगीत का गायन कर बिसरती यादों को ताजा किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान कृष्ण की बेटी सामा प्रतिदिन वृंदावन पूजा करने के लिए दासी बिहुला के साथ जाती थी। बिहुला ईर्ष्यालु महिला थी। वह सामा से जलती थी। एक दिन उसने भगवान से सामा की चुगली करते हुए कहा कि वह वहां ऋषियों और साधु-संतों के साथ रमण करती है। इस पर भगवान ने कुपित होकर अपनी पुत्री को शाप दे दिया, जिससे वह पक्षी बन गयी। पत्नी के वियोग में तपस्या कर सामा के पति भी पक्षी बन गये। भाई शाम्ब को इस प्रकरण का पता चला तो वह घोर तपस्या कर भगवान को प्रसन्न किया और सभी को शाप मुक्त करवाया। इसकी याद में हर साल भातृ द्वितिया के दिन से पूर्णिमा तक सामा-चकेवा पर्व मनाया जाता है। बुराई का प्रतीक चुगला(बिहुला) को जलाया जाता है। महिलाएं एक बड़े सूप में समा-चकेवा, शाम्ब, वृंदावन, चुगला बनाती हैं। इसी तरह हमारी लोक परंपरा में अधिकांश पर्व के पीछे कोई न कोई कहानी जुड़ी होती है, जो हमारे जीवन राग को आंदोलित करती रहती है। कहानियां न होती तो शायद हमारे जीवन में संवेदनात्म जुड़ाव और कल्पना का कोई विशाल आकाश न होता। किसी न किसी रूप में हमारे पास अगर कोई कहानियां न होती तो हमारा जीवन कैसा होता सोचा जा सकता है! कहानी की सत्यता अथवा असत्यता का विचार अलग बात है, उसका उद्देश्य महत्वपूर्ण होता है। इसी परिप्रेक्ष्य में सामा-चकेवा के अवसर पर झारखंड मैथिली मंच के साहित्याकारों का संकलित कथा संग्रह ‘आखरक इजोरिया’ का लोकार्पण किया गया। डॉ. कृष्ण मोहन झा ने कथा संग्रह की विशिष्टता से लोगों को परिचित कराया। इस अवसर पर झारखंड क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष अमिताभ चौधरी को ‘मैथिल पुत्र’ सम्मान से सुशोभित किया गया। सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान बबीता झा व पूनम मिश्रा के गीतों पर लोग खूब झूमे। कार्यक्रम का संचालन आभा झा ने किया। अतिथि के रूप में डॉ. करुणा झा ने लोगों का उत्साह बढ़ाया। कार्यक्रम के दौरान झारखंड मैथिली मंच के अध्यक्ष काशीनाथ झा, महासचिव कृष्ण कुमार झा, कोषाध्यक्ष प्रेमचंद्र झा, अरुण झा, सर्वजीत चौधरी, ब्रजकिशोर झा, मोहन झा, सतीश झा आदि उपस्थित थे।

Friday 23 November 2012

दिल मांगे मोर... पर हम जा रहे जा रहे किस ओर


एक कृत्रिम और भौंडी सभ्यता का शिकार आज सबसे अधिक हमारे किशोर ही हो रहे हैं
शिक्षा तो दुनिया को दिखाने के लिए महज एक दिखावा है, चरित्र और चिंतन से उसका कोई सामंजस्य नहीं
किशोरावस्था में आधे प्रश्नों का उत्तर मिलता है, पर आधा प्रश्न...प्रश्न बन कर ही मन में तैरता रह जाता है

प्रणव प्रियदर्शी
दौड़...दौड़...दौड़...बहुत तेजी से सरपट दौड़ रही है दुनिया। एक क्षण में हमारे हाथों में सिमट आती है पूरी दुनिया और दूसरे ही क्षण चुपके से किसी अनजाने रास्ते से निकल पड़ती है ये तिलस्मी दुनिया। कई सार्थक चीजों को पीछे छोड़ आज सरपट भाग रही है, तेज रफ्तार भरी ये दुनिया। न अतीत के प्रति मुंहताज, न वर्तमान के प्रति कोई सोच और न ही भविष्य के प्रति कोई ठोस दृष्टिकोण। आज कितनी अजीबोगरीब हो गई है, हमारी सजी-संवारी दुनिया। इसकी सबसे वीभत्स तस्वीर उस समय सामने आती है, जब कोई स्कूली छात्र अपने उम्र को धत्ता बताते हुए वह सब कर गुजरना चाहता है, जो हमारे परिवेश के बिल्कुल प्रतिकूल है और खुद उसके लिए भी सहज नहीं।
    ग्लोबल पहुंच से हस्तांतरित एक कृत्रिम और भौंडी सभ्यता का शिकार आज सबसे अधिक हमारे किशोर ही हो रहे हैं। मास कल्चर के आवोहवा में सांस लेते शहर के नामी स्कूल में पढ़नेवाले बच्चों की दुनिया अब बिल्कुल अलग ही हो गयी है। उन्हें अपना जन्म दिन अब घर में नहीं, बल्कि किसी बार या रेस्टोरेंट में दोस्तों के बीच फनीले विश्वास के साथ दिल मांगे मोर जैसे धुन पर मनाने में ज्यादा अच्छा लगता है। उनके भीतर पिता का दायित्वपूर्ण हाथ और मां के सूर्ख आंचल की छांव के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रह गयी है, जो कि उनके बढ़ती उम्र के लिए सही राह निर्मित करती है। उन्हें घर का भोजन बेस्वाद लगता है, भले ही स्वास्थ्य दांव पर लग जाये। शिक्षा तो दुनिया को दिखाने के लिए महज एक दिखावा है, चरित्र और चिंतन से उसका कोई सामंजस्य नहीं। यही कारण है कि स्कूल के समय में इन्हें स्कूल ड्रेस में सिनेमा हॉल में सहज ही देखा जा सकता है। इसी उम्र में सेक्स के प्रति अतिरिक्त जिज्ञासा यौन विकिृति के रूप में सामने आती है। घर के बाहर समय के इस बहाव में लड़कियां भी पीछे नहीं। आखिर, रहे भी क्यों उसे लड़कों के साथ हर स्तर पर कदम से कदम मिलाकर जो चलना है। शहर के अस्पतालों में गर्भपात करानेवाली स्त्रियों में स्कूल गोइंग गर्ल्स की बहुतायत संख्या इस वर्ग के छद्म स्वरूप का साफ-साफ गवाही दे जाता है। फिर भी दिल मांगे मोर... का स्लोगन इनके सर चढ़ कर बोलता है।
    ऊपर से स्मार्ट और कंफीडेंट दिखनेवाले उच्चवर्गीय या उच्च मध्यमवर्गीय परिवार के इन किशोरों का जीवन जब ऐसे ही लड़खड़ाती और बिखरती नींव पर खड़ा होता है तो आगे क्या हश्र होगा, यह परिणाम से पहले पता नहीं चलता। जब पता चलता है तो अफसोस करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। घटना का दुखद व दूसरा पहलू यह है कि इनके अनुकरण में मध्यमवर्गीय बच्चे भी दिशाहीन होते जा रहे हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे बच्चे अपने तीव्र बुद्धिमता से अभिभावक को भी अपने पक्ष में कर हर काम के लिए राजी कर लेते हैं। हवा के रुख के साथ उम्र के दो मुहाने पर खड़े ये गुलफरेब क्या जानें, पर जाननेवाले कहते हैं - किशोरावस्था जीवन की वह संवेदनशील अवस्था है, जहां मन में उठती लहरों के बीच आधे प्रश्नों का उत्तर इन्हें मिलता है, पर आधा प्रश्न...प्रश्न बन कर ही मन में तैरता रह जाता है। इसलिए जरूरी है कि ऐसी नजाकत भरी उम्र से ही हम अपने जीवन के प्रति एक निजी, बिल्कुल अपना, नितांत मौलिक दृष्टिकोण विकसित करें। एक ऐसा दृष्टिकोण, जिसमें हर चीज के लिए जरूरत के अनुकूल जगह हो, अतिरिक्त झुकाव नहीं। रफ्तार जरूर हो, पर भटकाव नहीं। सोचें, क्या सिर्फ खुद को जी लेना, खुद की जरूरतों में सिकुड़ सिमट कर वक्त गुजार लेना ही जीवन की सार्थकता है या कुछ और...। दिल जरूर मांगे मोर...पर इसका भी ख्याल रहे हम जा रहे किस ओर?

Friday 11 May 2012

बढ़े-बढ़े से कदम रुक के बार-बार चले

प्रणव प्रियदर्शी 
कला आपको रुकने को मजबूर करती है। वह आपको कुछ देर ठहर कर विश्राम करने के लिए अपना आंचल देती है। कला हिसाब-किताब, हानि-लाभ, स्वार्थ-परमार्थ, दांव-पेंच से दूर एक ऐसा क्षण जीने को कहती है, जिसमें सिर्फ जीया ही न जाये, बल्कि बहा जाये। एक क्षण के लिए ही सही अनंत के छोर को चूम लिया जाये। इसलिए जो कला के पास अन्य कार्य की तरह कोई उद्देश्य, कोई स्वार्थ लेकर जाते हैं, वह कभी भी उसकी तह तक नहीं उतर पाते। कला के पास कुछ लोग कलाकार बनने के ख्याल से भी जाते हैं। इस महात्वाकांक्षा का कोई मूल्य नहीं है। कला की समझ ही अपने-आप में एक ऐसी उपलब्धि है, जो पर्याप्त है। कलाकार बनना दूसरी बात है। कोशिश कर कोई कलाकार नहीं बन सकता, वह बना-बनाया पैदा लेता है। अपने भीतर के कलाकार को किसी विधाओं का सहारा लेकर केवल निखारा-संवारा जा सकता है। कलाकार बनना प्रसाद है, कला समझना पूजा। प्रसाद के लोभ में पूजा की तमन्ना तो महज एक छलावा है। पूजा का प्रतिफल अगर प्रसाद में परिवर्तित हो जाये, तो वह स्वीकार्य शोभाजनक होता है।
      कला पर गणित या विज्ञान की तरह नहीं सोचा-समझा जा सकता। दुनियावी दांव-पेंच के सहारे उस तक पहुंचा भी नहीं जा सकता। क्रिकेट की तरह न तो उसके कोई सुनिश्चित नियम ही हैं, फिल्म की तरह कोई तयशुदा कहानी और न ही गणित की तरह कोई निर्धारित फार्मूला। यही कला का अंतर्द्वंद्व है और यही इसका अनोखापन भी। कला के प्रति लोगों का घटता रुझान बस यही दर्शाता है कि लोग रफ्तार में हैं और हर चीज में व्यापारिक दृष्टिकोण के नुमाइंदा हो गये हैं। लाभ-हानि के सीधा-सपाट गणित के सहारे वह समय को लांघ लेना चाहते हैं। कला एक साधारण आदमी के लिए फालतू चीज के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जिससे प्रत्यक्ष कोई लाभ न हो स्वभाविक है कि उसे फालतू माना जायेगा ही। कला किस रूप में हमें लाभ पहुंचाती है, इसे भी अभिव्यक्त करना एक जोखिम भरा काम है, क्योंकि हर व्यक्ति के कला ग्रहण के तरीके एक हो ही नहीं सकते। जितने उच्च स्तर की कला होती है, वह उसी स्तर के व्यक्ति को भी खोजती है।
    कला की खासियत यह है कि वह खुद अपनी विधा के अनुसार अपना पाठक या दर्शक खोजती है। सामान बेचने के लिए ग्राहक के पास कितने रुपये हैं, यह देखा जाता है। कला यह देखती है कि हमारे ग्रहणकर्ता के पास कितना बड़ा दिल है, कितना निर्मल और सधा हुआ मन है। यहीं आकर कला के रास्ते और अन्य दुनियावी रास्ते में दो फांक हो जाता है। जिसे सिर्फ भागने की ही जल्दी है, वह भला कला की इस चाल को कैसे पकड़ पायेगा? कला तो बलिदान चाहती है। जो धैर्य से किसी आंतरिक झुकाव के सहारे कला के पास जाता रहता है, वह एक दिन कला को भी समझ जाता है। फिर उसकी दृष्टि ही अलग हो जाती है। उसकी दुनिया ही बदल जाती है; कुछ ज्यादा सौंदर्यपरक, कुछ ज्यादा संवेदनापूर्ण, कुछ ज्यादा भावमयी हो जाती है। उसे अनायास यह आभास होता है कि इस दुनिया के कितने तह हैं? जितने खोलो और और गहरे होते जाते हैं। हर विमर्श के बाद एक प्रश्न हर हमेशा पीछे छूट जाता है कि कला के प्रति जिनका कोई झुकाव नहीं है, उन्हें इस ओर मोड़ा जाये?
      कला के प्रति लोगों का रुझान कम होने का एक कारण यह भी है कि अब घरों से सतसाहित्य की विदाई हो गयी है। एक सुंदर पेंटिंग सामान्य घर में तो शायद ही दिखे, यह नासमझ धनवानों की कूबत बताने की वस्तु बन गयी है। हस्त-शिल्प से बनी वस्तु को खरीदने के लिए लोग सौ बार सोचने लगे हैं। गीत-संगीत तो चहलकदमी मचा रहा है, पर यह एक बंधे-बंधाये दायरा में ही बंधने को विवश है। लोग गीत के बोल और लय पर ध्यान देने के बदले अपने एकांतिक ऊब को पाटने के लिए शोर तलाश रहे हैं। कहीं किसी घर में किसी संगीत के बोल और लय पर विमर्श होते हों, यह दुर्लभ हो गया है। हम हर चीजों को हर आदमी के लिए सुलभ तो करते जा रहे हैं, लेकिन आत्म परिष्कार की बातें नहीं कर रहे हैं। परिष्कृत व्यक्ति अपने आसपास की चीजों का भी परिष्कार करता चलता है। कला भी उन्हीं चीजों में से एक है। कोई भी कला निरुद्देश्य नहीं हो सकती, लेकिन जिस रूप में हम उससे लाभ लेना चाहते हैं, वह उस रूप में हमें लाभ नहीं पहुंचाती। वह हमारी आंतरिक समृद्धि और आत्मिक अहसास को सघन करती है। जिसे कुछ समय फालतू चीजों में गंवाने की हिम्मत नहीं है, वह भला कला क्या समझेगा? फिर भी कला को समझना जरूरी है, ताकि हमारा जीवन उच्चतर आयामों पर गति कर सके।

मेरे ब्रह्माण्ड के नक्षत्र


Tuesday 20 March 2012

कला और कलाकार

 कला, कलाकार की विवशता है तो दूसरी तरफ अपनी एक अलग दुनिया निर्मित करने की चाहत। वह दुनिया इस दुनिया के पैरलल चलती है। पर, उसके नियम कुछ और ही होते हैं और उस दुनिया के होने पर इस दुनिया की बहुत सी खूबसूरती टिकी होती है। इस दुनिया से अलग एक नयी दुनिया निर्मित करने की चाहत कलाकार से बहुत कुछ छीन लेती है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसा बहुत कुछ छोड़ देना पड़ता है, जिसे छीनने पर भी सहज रह पाने... के बारे में नियम-कानून से निर्मित इस दुनिया के वासिंदों के लिए सिर्फ सोचने का ही विषय है। ‘कागज के फूल’ फिल्म में तभी तो सिन्हा साहब कहते हैं, ‘तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया। हां मैं जानती हूं दुनिया मेरे जैसी नहीं है, पर दुनिया ऐसी होती तो क्या बुरा था?’ गालिब कहते हैं - ‘न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता, मिटाया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता।’ इस सबसे अलहदा कला की विधाओं में भी अपना द्वंद्व है। सिनेमा और साहित्य का द्वंद्व जग जाहिर है। एक कला दूसरी कला को सींचती है तो समय की शिला पर कला और कलाकार के चरित्र भी बदलते रहते हैं। -प्रणव प्रियदर्शी 

 

Monday 13 February 2012

प्रेम पर्व, भावनाओं का उत्सव


प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो...


प्रणव प्रियदर्शी
प्यार, यानी चराचर जगत का सर्वोत्तम अहसास। वह जीवनदायिनी ऊर्जा, जो मन-प्राण को दिव्य अनुभूति से आलोकित कर जीने का संबल प्रदान करती है। हर आदमी किसी न किसी रूप में इसी के इर्द-गिर्द घूमने को मजबूर होता है। हर मानवीय गतिविधि का निचोड़ यहीं से शुरू होकर यहीं पर आकर समाप्त होता है। भला इससे इंकार किसे हो सकता है! पर, हर जीवंत अनुभूति को सामान बनाने की कोशिश को तो कोई नासमझ या फिर षड्यंत्र में शामिल हाथ ही गवारा कर सकता है। पर्दे के पार से बहुत ही सुक्ष्मता से हमारी नासमझी का मजाक उड़ा कर इसी षड्यंत्र को सह दिया जा रहा है। परिणाम सामने है। यह अचानक ही नहीं हुआ कि बीते गुरुवार को रांची के डोरंडा के कक्षा सात में पढ़नेवाले लड़के ने अपने ही घर से छह लाख रुपये चुराकर गर्ल फ्रेंड व अन्य दोस्त के साथ रेस्टोरेंट में पार्टी मना रहा था। पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने के बावजूद भी उसके चेहरे पर कोई सिकन तक नहीं थी, जैसे वह अपराध नहीं कोई सामान्य सी घटना को अंजाम दिया हो।
    आज वेलेंटाइन डे है। इस एक दिन के इंतजार में एक सप्ताह पहले से ही समृद्ध देश से आयातीत विभिन्न ‘डे’- रोज डे, चॉकलेट डे, टेडी डे, प्रामिस डे, किस डे आदि की शृंखला उत्तेजित भावना को मस्ती का आलम मयस्सर करता रहा है। यह सिहर कर सिमटने और रोमांच का क्षण है, जिसे कोई खोना नहीं चाहता। नये आवोहवा में पल-बढ़ रहे किशोर और युवा वर्ग हर गतिरोध को पार कर इसे जी लेना चाहता है। इसके लिए किसी भी हद तक जा सकता है। सही क्या, गलत क्या! उससे किसी विवशता को बर्दाश्त करने की कामना करना निरा मूर्खता के सिवा और कुछ भी नहीं। इन सब बातों की चिंता अभिभावक करें, उसे क्या लेना-देना!
कदम फलक ही पर अहले तलक के पड़ते हैं,
दयारे-इश्क में कोसों जमीं नहीं मिलती।

     यह समय है समृद्धि का, उम्र की फ्रिक छोड़ कामना जगते ही उसे पूरा कर लेने का, भोग की अंतहीन आलम में मचल कर जी लेने का, चाहे सही करने से हो या गलत करने से। परहेज करना, दूसरों की भी फिक्र करना, अपनी स्थिति-परिस्थिति के अनुकूल कदम बढ़ाना, ये सब अब पुराने जमाने की बातें हो चुकी हैं। जवान हो रही नयी पीढ़ी कुछ ऐसे ही फलसफा में जीने की उम्मीद लिये आगे बढ़ रही है। वह महंगे कपड़े, स्टाइलिश माबोइल, टेंडी कार और बाइक के सहारे जमीन छोड़ती रफ्तार को नाप लेना चाहता है। फलस्वरूप, उपर्युक्त घटना बड़े या छोटे स्वरूप में हमारे सामने दस्तक देती रहती है। पिछले सप्ताह ही शहर के कांटाटोली चौक के पास एक मोटरसाइकिल चोर गिरोह का पर्दाफाश हुआ, जिस गिरोह में भी एक सातवीं कक्षा में पढ़नेवाला छात्र शामिल था। बाह्य समृद्धि के लिए इन्हें अपराध तक करने से कोई गुरेज नहीं है। यह परिस्थिति हमारे द्वारा पैदा नहीं की गयी है, बल्कि संस्कृति की ग्लोबल लेवल पर आवाजाही के कारण विकसित हुई है। हमारे बच्चे तक हमारे संस्कार पहुंचने से पहले इंटरनेट, टेलिवीजन व अन्य डिजिटल माध्यमों की सवारी कर भावनाओं को भड़काती, लुभाती, कुछ सपने सी दिखाती, मखमली अरमानों से लबरेज उनको हकीकत से दूर करती अपसंस्कृति अपना कब्जा जमा लेती है। ‘यूज एण्ड थ्रो’ की उनकी हिंसक वृति सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जीना चाहती है। यह सब उस बाजारवादी संस्कृति की देन है, जो भारत को एक देश नहीं, एक प्रौढ़ संस्कति का केंद्र नहीं, बल्कि अपना उत्पाद खपाने के लिए एक बढ़िया बाजार समझता है। और, नया-नया फरेब रच बेसुमार कमाई कर हमें लूट कर अपनी बेहयाई का कीर्तिमान रचता है। हम बेअक्ल उसके इस जाल में फंस कर सब कुछ गंवाने के बाद भी होश में आने के काबिल नहीं रह पाते।
इक फरेबे - आरजू साबित हुआ
जिसको जौके-बंदगी समझा था मैं।

     वेलेंटाइन डे के साथ उसके एक सप्ताह पहले से एक सप्ताह बाद तक विभिन्न ‘डे’ की जुम्बिश इसी फरेब की पैदाइश है। प्रेम के प्रतीक के रूप में किसी एक ‘डे’ का होना कोई बुरी बात नहीं है। प्रेम की बूंदाबांदी हर किसी पर एक सी होती है। इसका गरीबी या अमीरी से कोई रिश्ता नहीं है। प्रेम कल-कल पारदर्शी भावनाओं में डुबकी लगाता है, जिसका स्वाद हर कोई चख कर अपने जीवन को सार्थक और स्वयं को धन्य कर सकता है। लेकिन, इस दिन को बाजार की स्वार्थी खुशी के नाम कर षड्यंत्र का शिकार होना, अपने निजी अहसास के एकाकी सौंदर्य को सामान में बदल देना, उसे बाहरी समृद्धि के सांचे में कसना, एक वस्तु की तरह प्रदर्शन का रंग देना, यहां तक कि किसी अपराध तक को अंजाम दे देना न्यायोचित तो कतई नहीं है। भला वह प्रेम किसी काम का जो हमें किसी षड्यंत्र का शिकार बनावे अथवा अपराध के निर्जन में धकेले। क्या ऐसे क्षणिक आवेग को हम प्रेम की संज्ञा से विभूषित करेंगे? कतई नहीं। फेनिल अहसास के सहारे बाग में फूलों को लगाया जा सकता है, उसकी प्रदर्शनी लगायी जा सकती है। लेकिन, उसे खिलाने के लिए बागबां जैसे एकांतिक धैर्य का होना जरूरी होता है। इसलिए कुछ चीजों के एकांत के आसरे जीते रहने से ही उसकी अर्थवत्ता बची रहती है, उसका सौंदर्य बचा रहता है। वह गहराता है और अपनी विशिष्टता को प्राप्त करता है। हम इस बात को बहुत पहले से जानते रहे हैं, जिसकी कहीं कोई सानी नहीं। प्यार भी शायद ऐसी ही चीज है, इसलिए तो कहा गया है :-
 सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।