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Monday 5 September 2011

क्या लोकपाल है भ्रष्टाचार का इलाज?

प्रणव प्रियदर्शी 
अन्ना ने जिस आंदोलन का अलख जलाया, उससे पूरा जनमानस आंदोलित  हो उठा. इसने वर्षों से सोयी पड़ी चेतना को पुनर्मंथन व स्वयं से प्रश्न करने का संबल प्रदान किया.जिसका उत्तर आंदोलन के दौरान भी खोजा जा रहा था और आज भी खोजा जा रहा है. कोई स्वयं को छिपाते हुए भ्रष्टाचार का कारण व्यक्तिगत मज़बूरी बताता है, तो कोई बढ़ती महंगाई, वहीं कोई सुविधा का हवाला देता है. इतना ही नहीं कोई सामाजिक मूल्यों के अवमूल्यन को जिम्मेवार ठहराता है, तो कोई अन्य कारण बताता है. दरअसल करप्शन का हाल कई मामलों में आपसी साझेदारी जैसा हो गया है. वहां जो ले रहा है, वह कायदे-कानून के बीच कुछ रियायतें बेच रहा है और जो देता है, वह रियायतों की कीमत चुकाता है. इस तरह दोनों ही फायदा उठा रहे हैं. चुना लग रहा है देश को, जो हवा की तरह अदृश्य ही होता है. कई चिंतकों का लोकपाल से कोई अपेक्षा नहीं है, क्योंकि वे मानतें हैं कि सिर्फ कानून बन जाने से किसी भी बुराई का अंत नहीं होता. कानून सिर्फ सजा देता है, अपराध को रोक नहीं सकता. कानून में इतनी सबलता होती तो भ्रष्टाचार का फन पसरता ही नहीं. बड़े करप्शन को तो लोकपाल या जन लोकपाल का डंडा दिखाया जा सकता है, लेकिन छोटे  करप्शन को  डराना बेहद मुश्किल है. कायदे या सिस्टम उसे मात  नहीं दे पाते, क्योंकि वह अनगिनत सुराखों से गुजर सकता है. इतना तो मानना हो पड़ेगा कि हमारा सुविधाभोगी जीवन जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, हमारे मानवीय मूल्य गिरते जा रहे हैं. स्वयं के लिए हर चीज न्यायसंगत है, वहीं कोई दूसरा करे तो वही चीज अन्याय हो जाता है. यह प्रवृति पता नहीं हमने कहाँ से सिखी है. भ्रष्टाचार के  अंत के लिए कोई लेनेवाले पक्ष के खिलाफ नहीं, बल्कि देनेवाले पक्ष के खिलाफ आंदोलन चलाने का आह्वान करता है, तो कोई सामाजिक मूल्यों को सहेजने की दुहाई देता है, वहीं कोई मनतंत्र को जीतने की बात करता है. हमें सोचना चाहिए कि  हम अपने स्तर से क्या प्रयास कर रहे हैं?

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