www.hamarivani.com

Friday 30 November 2012

...कहीं दाग न लग जाए!


तथाकथित सभ्य समाज में महिलाओं के प्रति भेदभाव, प्रताड़ना और हिंसा की लंबी कहानी है। युग प्रवाह में इन्होंने अपनी अपरिमित सहनशीलता के बल पर चुपचाप हर अनैतिक यातना सही है। पर, परिवेश में अब नयी बयार दस्तक दे चुकी है। महिलाओं के न्यायोचित हक में हजारों कानून बन चुके हैं। इसकी जानकारी जगह-जगह विभिन्न तरह के आयोजनों के माध्यम से भी सतत दी जा रही है। तदनुरूप वे जागरूक हो रही हैं, यकायक झनझना कर उठ खड़ी हुई हैं। अपने अनुसार अपनी दुनिया निर्मित करने की चाहत उनके भीतर हिलोरें मार रही है। आपसी अंतर्द्वंद्व को पास बैठ कर सुलझाने की प्रवृति के स्थान पर वे सीधे अदालत का दरवाजा खटखटा रही हैं। इस सबसे इतर उनके बढ़ते कदमों का दूसरा पक्ष, पर्दे के पार का सच भी जानना जरूरी है। प्रणव प्रियदर्शी की रिपोर्ट

किसी ने कहा था अब नारी वंचित होकर नहीं जिएगी। समझाया गया था नारी के हक में बन गये हैं हजारों कानून। दी गयी थी उसे उसकी जानकारी, किया गया था विश्लेषण। पर, उसे कहां पता था कि ऐसे कानून ही उसके जीवन के अनुराग को डंस लेगा और वह दोहरे जीवन जीने की वर्जनाओं में पिसने को विवश हो जाएगी। मजबूरी की बांध इतनी ऊंची हो जाएगी कि उसे लांघने की कोशिश में उसका वजूद ही बिखर जाएगा। यह सुनीता नंदी (बदला हुआ नाम) की आपबीती है, जिसे कहे तो जग हंसाई-छिपाये तो हो जाता है मन भारी। ऐसे ही न जाने कितनी सुनीता नंदी हमारे-आपके आसपास मौजूद है; अपने-आपको छिपाती, बहलाती, अच्छे दिनों की आस में आंखें बिछाई हुई। उनके मर्म को पोंछना चाहें तो उनका जख्म हरा हो जाता है, अगर रास्ता दिखायें तो जमाना कहता है-बहका रहा है।
        ऐसी ही होती है जीवन की कुछ सच्चाई। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। जिन्होंने जीवन की तासीर को अनुभव की भट्ठी में निखारा-संवारा था, उन्होंने कहा था-महत्वपूर्ण चीजें अगर गलत हाथों में पड़ जाए तो उसका गलत परिणाम ही सामने आता है और गलत चीजें भी महत्वपूर्ण हाथों में पड़ कर एक नयी महत्ता को प्राप्त कर लेती है। इसलिए कोई चीज हम किन हाथों को सौंप रहे हैं, इस पर विचार किया जाना चाहिए, उसको परखा जाना चाहिए।
        आजकल विधिक जागरूकता केंद्र या विधिक सेवा प्राधिकार के तहत विभिन्न गांव, कस्बा, स्कूल व कॉलेजों में कार्यशालाओं का आयोजन बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। जिसमें बालिग-नाबालिग, विवाहित-अविवाहित सभी को नारी उत्पीड़न व हिंसा से संबंधित विभिन्न तरह के कानूनों के बारे में जानकारी दी जाती है। नारी के कानूनन अधिकार व सुविधाओं से परिचित कराया जाता है। पर, जिसे इसके बारे में बताया जाता है; उसके व्यक्तिगत जीवन के उतार-चढ़ाव के बारे में कार्यशाला में बैठे किसी भी स्त्री-पुरुष वकीलों को पता नहीं होता। वे उनके व्यक्तित्व के किसी भी आयामों से परिचित नहीं होते। उपस्थित लोग किस परिस्थिति के किन पहलुओं से असंतुलित होकर कानून का सहारा लेंगे, इसकी कोई चिंता शायद ही उन्हें होती है। किसी में कानून का उपयुक्त उपयोग करने की पात्रता है भी या नहीं, इसकी परवाह आखिर कौन करेगा? सावधानी के नाम पर केवल इतना ही बता दिया जाता है कि मुकदमा सच्चाई पर आधारित हो। झूठा होने पर दायर करनेवालों पर ही सजा हो सकती है।
        हां; वे यह भी नहीं बताते कि इन कानूनों का जिन्होंने उपयोग किया है, उसका परिणाम क्या हुआ? उसकी स्थिति पहले से अच्छी हो गयी या पहले से भी खराब? शायद उन्हें भी नहीं पता हो, क्योंकि संभव है मुकदमा की लड़ाई लड़ने के बाद क्लाइंट से कोई संवेदनात्मक संबंध होने के अभाव में उनके व्यक्तिगत जीवन में झांकने की जहमत नहीं उठाते हों या अनुभव होता भी होगा तो वे अक्सर इसे बताने की जरूरत नहीं समझते होंगे। आखिर, यह दायित्व कौन उठाएगा? एक वकील जितनी अच्छी तरह से उठा सकता है, उतना दूसरा कोई नहीं। यह जरूरी भी है, कार्यशाला में उन तमाम अनुभवों को भी बांटा जाना चाहिए; क्योंकि कोई भी प्रश्न जीवन के प्रश्न से बड़ा नहीं होता और  कभी-कभी जीवन की एक छोटी सी गलती न जाने कितनी गलतियां करने के लिए आदमी को बाध्य कर देती है। इतना ही नहीं कभी-कभी तो ऐसा दाग लगा देती है, जिसे कितना भी हटाने-मिटाने की कोशिश की जाए, मिट नहीं पाता। अहसासों के बीच बैठ कर वक्त-बेवक्त खरोंचते रहता है।
        जरूरी यह भी है कि जिसे हम कानून की शिक्षा दे रहे हैं, हक और हुकूक के बारे में बता रहे हैं; उसकी चारित्रिक दृढ़ता, आत्मिक कौशल और निर्णय क्षमता भी परखी-जांची जाए। ताकि परिस्थितिनुकूल गलत निर्णय के साये में कानून का सहारा लेने पर जीवन कहीं गहरी खाई में न चला जाए। हम अपनी ऐतिहासिक परंपरा की ओर झांकें तो पता चलेगा कि गुरु अपने शिष्य को कोई अमोध शक्ति प्रदान करने से पहले उसे चरित्र और व्यक्तित्व के स्तर पर सक्षम बनाता था। उस पर विश्वास करने से पहले उसकी कई बार परीक्षा ली जाती थी। अब इतना संभव तो नहीं, लेकिन अपने स्तर से इस ओर कुछ प्रयास तो किया ही जा सकता है। बात-बात पर कानून का सहारा लेना डंवाडोल स्थिति का परिचायक होता है। इसे दुनिया की कोई अदालत भी सही नहीं मानती। बढ़ते एकल परिवार से इस तरह का चलन जोर पकड़ता   जा रहा है। इसी के मद्देनजर पहले हमारे यहां बहुत सारे विवादों का निपटारा आपसी बातचीत व मध्यस्थता से ही कर लिया जाता था। परंतु, अब यह दूसरे देशों की बात होती जा रही है। इसे अमल में लाने पर भी बल दिया जाना चाहिए। इसी परिप्रेक्ष्य में पिछले वर्ष दिल्ली में मध्यस्थता विषय पर आयोजित एक सेमिनार में यह बात कही गयी कि भारत के लोगों में झगड़े सुलझाने की प्रवृत्ति ही नहीं है। यही वजह है कि विवादों का निपटारा अदालत के बाहर नहीं हो पाता और अदालतों में मुकदमों का अंबार बढ़ता जा रहा है। मुख्य न्यायाधीश एस.एच. कपाड़िया के इस मत से दूसरे वक्ता जजों ने भी सहमति जताई। इन जजों ने अदालतों पर से मुकदमों का बोझ कम करने के लिए विवाद निपटाने के वैकल्पिक उपायों पर जोर देने की जरूरत बताई। जिस दिशा में धीरे-धीरे पहल हो रही है। हालांकि इसे और भी गति देने की जरूरत है।
        जीवन छोटी-छोटी बातों पर ही निर्भर करता है, छोटी-छोटी बातों से ही बनता-बिगड़ता है। अपना अधिकार हासिल करना, अनीति का प्रतिकार करना, अन्याय के प्रति आवाज उठाना और किसी की आवाज बन जाना अपने-आप में श्रेष्ठता का परिचायक है। पर, इस दौरान अपने-आप में ही टूट कर बिखर जाने की विवशता भी समझदारी की निशानी नहीं है। अत: हर स्तर पर हम इतना सबल बनें कि हमारे द्वारा उठाया गया हर कदम हमें नव उल्लास से भर कर अधिक से अधिक सुखद व आनंददायक बनाए।

No comments :

Post a Comment