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Monday 29 July 2013

सियासत के दावों में जनता का बहाना

प्रणव प्रियदर्शी
सरकार कौन बनाती है, जनता। सरकार किसके लिए बनती है जनता के लिए। सरकार किसके द्वारा संचालित होती है, जनता के द्वारा। जब नेताओं को विरोधी दल पर हमला करना होता है तो वे जनता का ही सहारा लेते हैं। जब उन्हें बोलने के लिए कुछ भी नहीं सूझता तो जनता के कंधे पर ही हाथ घुमाते हैं। जनता फलां पार्टी या दल को माफ नहीं करेगी, जबकि माफ वो खुद नहीं करना चाहते। जनता चुनाव में बदला लेगी, जबकि वो खुद बदला लेना चाहते हैं। तथाकथित नताओं को जैसे जनता के मनोविज्ञान पर अधिकार है। जैसे वे जनता की भावनाओं के अनुसार ही हर काम करते हैं। हर घात में जनता, प्रतिघात में जनता। खोजें कहां है जन की सत्ता? अक्सर कहा जाता है- ये जो पब्लिक है, सब जानती है। सचमुच पब्लिक ही सब जान सकती है। उसे बहकाया भी नहीं जा सकता। लेकिन भारतीय लोकतंत्र में पब्लिक कहां है? जनता है। लोक है। इसी से जनमत है, लोकमत है। कारण जो भी हो, यहां की जनता अभी पब्लिक नहीं बन सकी है। इसलिए इसे मुर्ख समझा जाता है। मुर्ख बनाया जाता है। मुर्ख बनाने का हथकंडा अपनाया जाता है। मुर्ख बनाये रखने का षड्यंत्र किया जाता है।  सियासत के दो ही खिलाड़ी हैं-पक्ष और विपक्ष। पहला जो कुछ भी बोले, दूसरा उसका विरोध करे। अपवाद स्वरूप ही  बमुश्किल किसी मुद्दे पर दोनों को एक होते देखे जाते हैं। जनता तो एसे अफसाने का केवल बहाना है। वह इसलिए कि जनता की स्वतंत्र कोई आवाज नहीं है। अगर पत्रकारिता और साहित्य के माध्यम से कुछ बोल भी लेती है तो उसे रैला-रैली और नारेबाजी का जाल बुन कर चुग लिया जाता है। घास की मानिंद चर लिया करता है। जनता एकटक देखती रह जाती है और नेता चुपके से अपनी पीठ थपथपा फिर सामने आता है। फिर वही खेल होता है। फिर-फिर ऐसा ही किया जाता है। क्या जनता का अर्थ विकल्प की प्रतिबद्धता में किसी एक पर बटन दबाना है? क्या लोकतंत्र का अर्थ जनता को मुर्ख बनाना है? बहाना चाहे जो हो, लेकिन देश महज कागज पर बना नक्शा नहीं होता।   

Monday 22 July 2013

बुद्ध सुवास हैं, बारूदी गंध भी सोख लेंगे

प्रणव प्रियदर्शी
बोधगया में सात जुलाई को हुआ शृंखलाबद्ध बम विस्फोट कई मायने में अलग है। बिहार में यह अपने तरह की पहली घटना है। वहीं, दुनिया में किसी बौद्ध मंदिर पर हुए हमले में भी इसतरह की यह पहली घटना है। इसने यह साबित कर दिया है कि अब निर्मम समय की धार बांधना एक फरेबे-आरजू है। ऐसा इसलिए कि हम इस धरती को नर्क बनाने पर तुले हैं और स्वर्ग किसे कहते हैं, जानना नहीं चाहते। इस परिप्रेक्ष्य में मुझे आस्कर वाइल्ड की एक कहानी याद आ रही है। एक आदमी मरा। जिंदगी में जो अच्छा-बुरा करना था, सब करके मरा। परमात्मा के सामने न्यायालय में उपस्थित किया गया। परमात्मा नाराज था। उसने कहा, बहुत पाप किए तुमने। तुम्हारे पास अपने किए गये पापों का कोई उत्तर है? उस आदमी ने कहा, जो मैं करना चाहता था, वह किया। उत्तरदायी मैं किसी के प्रति नहीं हूं। परमात्मा थोड़ा चौंका। उसने कहा, तुमने हिंसा की, हत्याएं कीं, खून किये। आदमी ने कहा, निश्चित ही। तुमने धन के लिए लोगों की जानें लीं? तुमने व्यभिचार किया, दुष्कर्म किया? उसने कहा निश्चित ही। उस आदमी के चेहरे पर थोड़ी भी शिकन नहीं थी। न अपराध का कोई भाव था, न कोई चिंता थी। परमात्मा थोड़ा बेचैन होने लगा। अपराधी बहुत आए थे, लेकिन यह कुछ नए ही ढंग का आदमी था। परमात्मा ने कहा, जानते हो, तुमारा यह बार-बार कहना कि हां! निश्चित ही, मुझे संशय में डाल दिया है। मैं तुम्हें नर्क भेज दूंगा! उस आदमी ने कहा, तुम भेज न सकोगे। क्योंकि, मैं जहां भी रहा नर्क में ही रहा। अब तुम मुझे कहां भेजोगे?
        यह सुन कर परमात्मा के चेहरे पर पसीना छलक आया। उसने घबराहट में कहा कि फिर मैं तुम्हें स्वर्ग भेज दूंगा। उस आदमी ने कहा, यह भी न हो सकेगा। परमात्मा ने कहा - तुम आखिर हो कौन? मेरे ऊपर कौन है, जो मुझे रोक सके तुम्हें स्वर्ग भेजने से! उस आदमी ने कहा, मैं हूं, क्योंकि मैं सुख की कल्पना ही नहीं कर सकता। हर सुख को दुख में बदल लेने में मैं इतना निष्णात हो गया हूं कि तुम मुझे स्वर्ग न भेज सकोगे। तुम भेजोगे, मैं नर्क बना लंूगा। मैंने कभी सुख का स्वप्न नहीं देखा। सुख की कल्पना नहीं की। तुम मुझे स्वर्ग कैसे भेजोगे? और कहते हैं, मामला वहीं अटका है।
          यह किसी एक आदमी की कहानी नहीं है। यह विकृत होते मानव जाति की कहानी है। नर्क कहीं दूर आसमां में स्थित कोई उल्का पिंड नहीं है और न ही स्वर्ग किसी उद्यान में लिपटा अमरबेल। ये हमारे मन के भावों के दो पलड़े भर हैं। जो नर्क में जीने को बहुत दिनों तक अभिशप्त होता है, इससे उबरने का बहुत दिनों तक कोई रास्ता भी नहीं सूझता तो उसे फिर इसकी आदत पड़ जाती है। वह इससे एक रस ग्रहण करने लगता है। उससे नर्क से ही आसक्ति हो जाती है। वह नर्क को ही सत्य और स्वर्ग समझ बैठता है। फिर वह जहां जाता है, अपना नर्क निर्मित कर लेता है। जो सुख, स्वप्न और स्वर्ग की बातें करता है, वह उसे शत्रु जैसा प्रतीत होता है। उसकी दृष्टि स्वर्ग देखने की शक्ति खो बैठती है।
           ऐसे माहौल में अगर बौद्ध स्थल पर भी हमला होता है तो आश्चर्य की कोई बात नहीं। इस हमले के पीछे किसके हाथ हैं, इसका भी कोई मायने नहीं है। सोचने की बात है कि आखिर हम सभ्यता के किस बंजर में भूमि में आकर खड़े हो गए हैं? क्या मनुष्य जाति अपने आदम स्वरूप में लौटने को मजबूर हो गया है? हमारे विकास की उर्ध्व गति स्थूलता से उठा कर स्तुत्य द्वीप में ले जाने की समर्थता खो चुकी है? बुद्ध ने अपने समय की कुरूपता का रेचन कर मानवीय ऊंचाई का प्रतिमान गढ़ा था। अहिंसा, करुणा, शील, समर्पण जैसे मूल्यों को नये तरह से पुनरस्थापित किया था। उन्होंने पूरी मानव जाति को दुख से मुक्त रहने के उपाय सुझाए थे। बौद्ध धर्म की उदारता पूरी मनुष्यता को संरक्षित करती है। इसी से प्रभावित होकर डॉ. भीमराव आंबेडकर ने पूरी दलित जाति के उत्थान के उद्देश्य से बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। अगर हम इससे आगे का प्रतिमान नहीं गढ़ सकते तो उससे उसका संरक्षित रहने के अधिकार पर हमला बिलकुल अनिष्टकारी है।
            बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति की स्थली पर हमला कर हम बुद्ध या बौद्धों को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। क्योंकि; उन्होंने पहले से ही ऐसी संभावनाओं का उपाय कर निर्वाण लिया था। बुद्ध ने सर्वप्रथम परमात्मा को मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा परमात्मा है ही नहीं। जब परमात्मा नहीं है, तो पूजा किसकी? इसलिए उनके धर्म में मूर्ति पूजा की तिलांजलि हो गयी। आश्चर्य तो ये है, जो हमें मूर्ति से छुटकारा दिलाता है, उसकी ही मूर्ति बना कर पूजा शुरू हो जाती है। बुद्ध का सारा जोर मनुष्य पर था। परमात्मा मनुष्य के भीतर उठता वह सुवास है, जो संपूर्ण शृृष्टि अपने में व्याप्त कर लेता है। इसलिए अवतारवाद की धारणा भी यहां खंडित हो जाती है। बुद्ध के पास जो दीक्षा लेने जाता, कहता - बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। किसी ने बुद्ध से पूछा कि आप तो कहते हैं अभिवादन योग्य कोई नहीं, फिर कौन के प्रति लोग आकर कहते हैं बुद्ध के शरण जाता हूं? तो बुद्ध ने कहा, बुद्ध का अर्थ ही वही है, जिसने जान लिया कि मैं नहीं हूं। शून्य के प्रति शरण जाते हैं। मैं सिर्फ बहाना हूं।  मैं नहीं रहूंगा, तब भी यह पाठ जारी रहेगा। कहते हैं बुद्ध के मरने के पांच सौ वर्ष तक बुद्ध की कोई प्रतिमा नहीं बनायी गयी। बुद्ध ने कहा, जरूरत क्या है? मैं जिस वृक्ष के नीचे ज्ञान को उपलब्ध हुआ था, उसी की पूजा कर लेना। इसलिए बोधि वृक्ष की पूजा चली। परमात्मा के पास तो हर कोई झुक जाता है, वृक्ष के पास झुकना थोड़ी मुश्किल बात है। बुद्ध का जोर पूजा पर नहीं था, फिर भी उन्हें लगा होगा कि भारतीय मन पूजा के बिना नहीं मानेगा। इसलिए उन्होंने वृक्ष के रूप में एक प्रतीक दे दिया। पांच सौ वर्षों तक बुद्ध के जो मंदिर बने, उनमें सिर्फ बोधि वृक्ष का प्रतीक बना दिया जाता था। काफी था। वृक्ष जीवन का प्रतीक है। हालांकि बोधगया में मौजूद बोधि वृक्ष को नुकसान नहीं पहुंचा है। आगे भी नहीं पहंुचे कामना यही होगी। लेकिन नहीं पहुंचने की गारंटी कौन ले सकता है? हमले के मद्देनजर बिहार के अन्य ऐतिहासिक मंदिरों की सुरक्षा भी बढ़ा दी गयी है। लेकिन ऐसी व्यवस्था हर समय के लिए नहीं हो सकती। बुद्ध, महावीर, जीसस, कबीर, मुहम्मद सभी मानवीय चेतना की ऊंचाई और शिखर हैं। इन्हें नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता। ये सभी सुवास हैं, बारूदी गंध भी सोख लेते हैं। इनके कीर्ति स्थल को नुकसान पहुंचा कर हम अपने अस्तित्व पर कुठाराघात कर रहे हैं। अगर हम इन शिखरों के आदर्श को हमारे जीवन से हटा दें तो फिर जीवन यात्रा का अर्थ ही समाप्त हो जायेगा। इन्हें हमारे जीवन से, स्मृति से हटाने की साजिश चल रही है। ऐसी साजिश आतंकवाद, संप्रदायिकता, कट्टरता के साथ-साथ और भी कई स्तरों से की जा रही है। जिन्होंने अपने जीवन को नर्क बना लिया है, उन्हें दूसरे का स्वर्ग बर्दाश्त नहीं हो रहा। वे पूरी दुनिया को नर्क में तब्दील कर देना चाहते हैं। जीवन से जब संस्कृति, सौंदर्य और आदर्श खत्म होंगे तो मनुष्य एक चेतन पदार्थ के सिवा कुछ नहीं बचेगा। पदार्थ का स्वभाव है विचलन। एक जगह से दूसरी जगह तक, ऊपर  से नीचे की तरफ। पदार्थ शोर कर सकता है, खुद से बोल नहीं सकता। हाथ में जो दे दो ले लेगा, कोई विचार नहीं कर सकता। इससे बाजार सधता है। एकाधिकार बढ़ता है। पूंजी मुखर होती है। हैवानियत के सिपहसलार का हित सधता है। अगर इसतरह के षड्यंत्र का मुंहतोड़ जवाब देना है तो हमें अपने अंतस के उजास को तेजतर करना होगा। इतना कि किसी मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारे का मुंहताज न होना पड़े।
           हमारी कमजोरी ही षड्यंत्रकारियों का संबल बन जाती है। यह ठीक है कि अतीत के पदचिह्नों को भी सम्हालना है, उससे सीखना है। लेकिन किसी चीज के प्रति अतिरिक्त मोह हमारे सामने से वह आईना छीन लेता है, जिसमें हम अपनी गहराई देख सकें। बुद्ध ने भी तो कहा है-अप्प दीपो भव। हमारी सभ्यताएं फिर किसी बुद्ध को पैदा नहीं कर पा रही है, इसलिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। हम सभ्यता के वर्तमान मोड़ पर आकर रुक से गये हैं। प्रकृति रुकना बर्दाश्त नहीं करती। जो चीजें ऊपर नहीं उठतीं, वे नीचे की तरफ गिरने लगती हैं। यही कारण है कि हम चेतना के शिखर से लुढ़ कर मरघटी संत्रास में जीने को विवश हो गये हैं। अकारण बुद्ध ने  नहीं कहा है - सम्यक स्मृति। 

Tuesday 16 July 2013

...जहां साथ फहराते हैं तीन धर्मों के पताके!


कुछ जज्ब-ए-सादिक हो, कुछ इखलासो इरादत
हमें इससे क्या बहस वह बुत है कि खुदा है
प्रणव प्रियदर्शी
रांची : एक तरफ अजान के स्वर, दूसरी तरफ बौद्ध मंदिर से आती मृदंग की आवाज और कुछ ही देर बाद शिव मंदिर से उठती घंटे की ध्वनि। हर स्वर और ध्वनि में एक तारतम्यता, एक संदेश, फिर भी एक-दूसरे को पछाड़ने की प्रतिस्पर्धा से बहुत दूर। ऐसे ही आदर्शों का प्रतिमान गढ़ रहे हैं डोरंडा के जेएमपी कैंपस में एक  ही कतार में अगल-बगल अवस्थित  जामा मस्जिद, बौद्ध मंदिर और शिव मंदिर के प्रांगण। यही चीज यहां के जीवन व्यवहार में भी दिखती है। मस्जिद में रहनेवाले लोग हों अथवा मंदिरों की सुरक्षा में लगे लोग, सभी विद्वेष रहित भावना से अपने-अपने कार्य में लगे रहते हैं और सहयोग की घड़ी आने पर एक-दूसरे का संबल भी बनते हैं।
           कैंपस में प्रवेश करते ही प्रकृति का स्नेहिल स्पर्श अपने-आप मन की गांठें खोलना शुरू करा देता है। आगे बढ़ते ही मस्जिद का स्वच्छ वातावरण, बौद्ध मंदिर के चारों तरफ मंत्रों से सुसज्जित छोटे-बड़े पताके(लुङदर) और शिव मंदिर की विशिष्टता, आध्यात्मिकता के कई रंगों से एकसाथ साक्षात्कार करा देती है।  माहौल के इस अनुराग में मन की बेडि़यां तोड़ आत्मा कुछ क्षण के लिए अपने अनहद स्वरूप में अवस्थित न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता।  यहां सुबह का दृश्य तो और भी मनमोहक होता है। हिंदू, मुस्लिम और बौद्ध तीनों धर्मों के लोग यहां जुटते हैं और अलग-अलग पांत में अपने आराध्य के सानिध्य में पहुंचने के लिए बेसब्र होते हैं। लौटते वक्त मस्जिद से निकलते लोग मंदिर से नजर बचा कर नहीं निकल सकते और मंदिर से नतमस्तक होकर निकले लोग मस्जिद को नजरअंदाज नहीं कर सकते। बौद्ध गुम्बा दोनों के बीच में अवस्थित है। इसलिए कुछ क्षण के लिए अगर रुकना हो तो एडि़यां यहीं गड़ जाती हैं। जान-पहचान रहने पर सलाम-नमस्ते भी हो जाता है। फिर सभी अपने-अपने कारवां पर निकल पड़ते हैं। मन की दूरी छिटक जाती है, संवाद के दायरे बढ़ जाते हैं।
               तीनों आराध्य स्थल का एक ही साथ अवस्थित होना महज एक संयोग है या सोची-समझी योजनाओं का नतीजा, किसी को मालूम नहीं है। लेकिन इतना सभी जानते हैं कि जेएमपी में इन तीनों धर्मों के लोग रहते हैं। इसलिए जरूरत के अनुसार एक के बाद एक की स्थापना होती गयी। उन दिनों समाज में शायद सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने की न गुंजाइश होगी और न ही इसकी संभावना दिखी होगी। बाद में अलग-अलग जगहों पर भले ही कई सांप्रदायिक संकीर्णताएं उभरीं, लेकिन ये जगह आज भी उसी समासिक संस्कृति की वाहक बनने की परंपरा निभा रही है। ऐसा नहीं है कि जेएमपी कैंपस में अवस्थित होने के कारण यहां केवल जेएमपी के ही स्टाफ अराधना कर सकते हैं, बल्कि बाहर के लोग भी यहां आते हैं। ऐसा प्रचलन भी उसी परंपरा का हिस्सा है, जब धार्मिक स्थल किसी विशेष वर्ग का नहीं, बल्कि उसके द्वार सभी के लिए समान रूप से खुले रहते थे।
              जेएमपी कैंपस में अवस्थित मस्जिद, जामा मस्जिद के नाम से जाना जाता है। इसका स्थापना काल का सही समय वहां के लोगों को याद नहीं है। बस इतना ही कहते हैं यह डोरंडा का सबसे पुराना मस्जिद है। कुतुमुद्दीन रिसालदार बाबा यहीं पर पेड़ के नीचे इबादत करते थे। उन्हीं की याद में इस मस्जिद की नींव रखी गयी। मस्जिद के दूसरी तरफ अवस्थित शिव मंदिर का स्थापना काल 1770 ईस्वी बताया जाता है। कहा जाता है कि उस समय लखनऊ से यहां पर पुलिस बल की एक टुकड़ी आयी थी, उन्हीं लोगों ने इसकी नींव रखी। मंदिर-मस्जिद के बीच स्थित बौद्ध मंदिर (काग्यु समडुप लिङ बौद्ध गुम्बा) का स्थापना काल 2002 बताया गया। जेएमपी में कुछ बौद्ध धर्मावलम्बी भी हैं, उनकी सुविधा के मद्देनजर इसकी स्थापना की गयी। शिव मंदिर कैंपस में जमीन खाली होने के कारण यहीं पर इसकी नींव रखी गयी।

मो. नौसाद ( इंतजामिया, जामा मस्जिद) : इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता। यहां पर हम लोग एक-दूसरे का आदर करते हुए इसी भावना के साथ रहते हैं। इसलिए कभी कोई तनाव नहीं होता। जब से मैं यहां हूं, मुझे कभी भी किसी सांप्रदायिक विद्वेष सेे साबका नहीं पड़ा। हर जगह जब सांप्रदायिक सौहार्द का वातावरण बिगड़ता है, लोग यहां पूरी तरह से महफूज महसूस करते हैं।
भीमलाल पाठक (पुजारी, शिव मंदिर) : लोगों के पास जब अतिरिक्त समय होता है, तब संाप्रदायिक असहिष्णुता जैसे फिजूल चीजें दिमाग में जगह बनाती हैं। यहां पर सभी अपने-अपने कार्य में व्यस्त हैं। न तो उनके पास इतना समय है और न ही कोई संकीर्ण भावना।
सभी अपने-अपने आराध्य की पूजा करने के निमित्त से आते हैं और ध्येय पूरा होने पर शांतिपूर्वक चले जाते हैं। यही कारण है कि इस स्थान की सादगी बरकरार है और यही यहां की संपत्ति है।
टासी दोर्जे लामा (प्रमुख, बौद्ध मंदिर) : तीनों धर्म के मंदिर एक साथ अवस्थित होने के कारण मुझे बहुत ही अच्छी अनुभूति होती है। आराधना स्थल अलग-अलग हों, लेकिन लक्ष्य तो एक ही है। धर्म भी तो ऐसा ही कहता है। जीवन जीने के लिए मिला है, इसे फिजूल की बातों में उलझाने से क्या फायदा! एकता, करुणा, सहिष्णुता यही तो मनुष्य की थाती है, इसे सम्हाल कर रखने की जरूरत है। 

जिंदगी का तो एक अलग ही फसाना



प्रणव प्रियदर्शी
कल रात अचानक जिंदगी ने दिए थे मेरे हाथों में अपने हाथ। कहा था उसने यूं ही नहीं है जिंदगी में स्वर और साज। तू क्यों परेशान हुआ जाता है, देख कर सरोकारों का वीभत्स अंदाज। मैं हैरान रह गया, सुन कर बातें उसकी। हतप्रभ था, यह सोच कर कि कितने दिनों से मेरी आहटों में नहीं सधा है कोई राग, लेकिन क्यों इसे फुर्सत हुई पुचकारने की आज। भीतर कोई बांसुरी बजे तो बाहर के हर बिखरे स्वरों को भी आदमी गीत बना दे। पर ऐसी स्थिति मेरे भीतर इधर बहुत दिनों से नहीं बनी थी। फिर भी जब जिंदगी ने दो सहानुभूति के पल दिये तो मन को अलसाना लाजिमी था ही। मैंने अपने भीतर के हर बिखरे नक्षत्रों का एक साथ ही मुआयना किया। हर ज्वालामयी जलन को स्नेह का पारावार दिया। लेकिन कुछ दाग-धब्बों का तत्क्षण मिटना संभव नहीं था। गर्दिशें भी तो एक ही साथ किसी को नहीं ढकते। इसलिए इसे मिटने में भी समय तो लगता ही है। दुख का कीचड़ अगर वर्षों से मन में जमा हो तो सूखने में वक्त लगता ही है।  मन हल्का हो तो सबकुछ आसान लगता है। इसी मन:स्थिति में देर रात रहने के बाद नींद आगोश में लेना चाही। पर, सुबह उठने की जल्दी रात में और बेचैनी फैलाती है। नींद भी अतिथि की तरह आयी और सपनों में सुराख पैदा करने लगी। मेरी दृष्टि ओझल नहीं थी, इसलिए देख रहा था किस तरह हमारा आराम, हमारी नींद, हमारी खुशी भी हमारी नहीं रह गयी है। सब कुछ दूसरों का गुलाम बनती जा रही है। जरूरतें मुंह चिढ़ाते हुए आती हैं और अनुभति को समान में बदल कर चली जाती है। व्यवस्था सिर्फ सपने दिखाती है और भीड़ में बदल कर स्वत्व  छीन लेती है। सुरक्षा बाजार में खड़ा कर लूट लेती है। देख रहा था किस तरह अपनेपन के जाल में फांस कर हर कुरीति सिर चढ़़ कर बोल लेती है। किस तरह मंजिलों के गुंबद र्गिदशों में पड़ कर दम तोड़ देते है। इतना ही नहीं यह भी कि किस तरह स्वप्निल अनुराग सरे राह बिखर जाता है। कदम अहले तलक ही पड़ते हैं और कोसों जमीं नहीं मिलती।   

आज भी सिहर उठता है बथानी टोला

बिहार : 11 जुलाई, 1996 को भोजपुर में हुआ था बथानी टोला नरसंहार
पाश ने कहा है-सबसे खतरनाक वह चांद होता है/ जो हर हत्याकांड के बाद/ वीरान हुए आंगनों में चढ़ता है/ पर आपकी आंखों में/ मिर्ची की तरह नहीं गड़ता है। बिहार का र्चिचत बथानी टोला नरसंहार कुछ ऐसे ही मंजर को परिभाषित करता है। इसकी यादें आज भी जब जेहन में उतरती हैं तो सांसें थम जाती हैं। 11 जुलाई, 1996 को हुआ यह नरसंहार एक ऐसा आईना है, जिसमें राज्य ही नहीं संपूर्ण देश का सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पाखंड एक साथ दिखता है।



प्रणव प्रियदर्शी
बथानीटोला (भोजपुर) । नईमुद्दीन के छह परिजन बथानी टोला जनसंहार में मारे गए थे। नरसंहार की यादें जेहन में आज भी ताजा है। नईमुद्दीन बताते हैं कि बड़की खड़ांव गांव में जब रणवीर सेना ने मुस्लिम और दलित घरों पर हमले और लूटपाट किए, तब 18 मुस्लिम परिवारों सहित लगभग 50 परिवारों को वहां से विस्थापित होना पड़ा। उसी के बाद वे बथानी टोला आए। वहां भी रणवीर सेना ने लगातार हमला किया। जनता ने छह बार अपने प्रतिरोध के जरिए ही उन्हें रोका। पुलिस प्रशासन-सरकार मौन साधे रही। आसपास तीन-तीन पुलिस कैंप होने के बावजूद हत्यारे बेलगाम रहे और सातवीं बार वे जनसंहार करने में सफल हो गए।
         किसी खौफनाक दुस्वप्न से भी हृदयविदारक था जनसंहार का वह यथार्थ। 3 माह की आसमां खातुन को हवा में उछाल कर हत्यारों ने तलवार से उसकी गर्दन काट दी थी। एक गर्भवती स्त्री को उसके अजन्मे बच्चे सहित हत्या की गई थी। नईमुद्दीन की बहन जैगुन निशां ने उनके तीन वर्षीय बेटे को अपने सीने से चिपका रखा था, हत्यारों की एक ही गोली ने दोनों की जिंदगी छीन ली थी। 70 साल की धोबिन लुखिया देवी जो कपड़े लौटाने आई थीं और निश्चिंत थीं कि उन्हें कोई क्यों मारेगा, हत्यारों ने उन्हें भी नहीं छोड़ा था। श्रीकिशुन चौधरी जिनकी 3 साल और 8 साल की दो बच्चियों और पत्नी यानी पूरे परिवार को हत्यारों ने मार डाला था। कुल मिलाकर 8 बच्चों, 12 महिलाओं और 1 पुरुष को मार डाला गया था। जिनके परिजन बचे थे, वे इस आस पर टिके थे कि आरोपियों को सजा मिलेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
नरसंहार के सभी आरोपी बरी
हालांकि भोजपुर जिले के सहार ब्लाक के बथानी टोला में 11 जुलाई, 1996 को हुए दलित हत्याकांड के सभी 23 आरोपी 16 अप्रैल, 2012 को पटना उच्च न्यायालय द्वारा दोषमुक्त करार कर दिए गए। गौरतलब है कि मई, 2010 में आरा जिले के एक सत्र न्यायालय ने इन सबको दोषी ठहराते हुए इनमें से तीन को मृत्युदंड एवं बाकी के बीस लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
फैसले के बाद हुई थी राजनीति
सभी बिहार सरकार पर आरोप लगा रहे थे कि उसने इस मुकदमे पर ठीक से ध्यान नहीं दिया। बिहार में हाथ मिलाते हुए नीतीश और नरेंद्र मोदी की तस्वीर के छपने पर खूब हंगामा हुआ था। नीतीश कुमार गुजरात के कत्लेआम में बहे बेगुनाहों के लहू से अपने दामन को बचाने का नाटक कर रहे थे और बथानी टोला के वक्त रणवीर सेना को संरक्षण देने वाली राजद और दूसरी वर्गीय पार्टियां नीतीश के खिलाफ बयानबाजी करके अपने को सेकुलर साबित करने की जी तोड़ कोशिश कर रही थीं।
जमीन विवाद अभी भी अनसुलझा
दरअसल यह पूरा संघर्ष जमीन पर अधिकार, आपसी वर्चस्व और किसानों के हितों की रक्षा को लेकर चलता रहा और समय-समय पर इसने जातीय दायरा भी अख्तियार कर लिया था। सबसे गंभीर समस्या यह रही कि राज्य सरकारों और प्रशासन ने संघर्ष और समस्या के मूल बिंदुओं को तलाशने और उनका सर्वसम्मत समाधान ढूंढ़ने की अभी तक न तो कोई ठोस पहल की और न ही देश के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले इस राज्य के राजनीतिक दलों ने ही प्रबल इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है। सरकारों और राजनीतिक दलों ने इसे न तो कानून व्यवस्था की समस्या का मामला माना और न ही कोई ऐसी समस्या जिसको समझना जरूरी हो।
फिर खूनी संघर्ष होने की आशंका
रणवीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया की 1 जून 2012 की हत्या के बाद बिहार में एक बार फिर से खूनी संघर्ष शुरू होने की आशंका घिरने लगी है। जातीय युद्ध के बीज अब फिर से पकने लगे हैं। मुखिया को 2002 में पटना से गिरफ्तार किया गया था। उन पर नरसंहार के 22 मामले थे, जिसमें से 16 मामलों में वह बरी हो चुके थे। छह मामलों में वे जमानत पर थे। बीते जुलाई 2011 को उन्हें जमानत प्राप्त हुई थी। जानकारों का कहना है कि ब्रह्मेश्वर की हत्या बथानी टोला में किए गए नरसंहार का बदला था।