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Monday 22 July 2013

बुद्ध सुवास हैं, बारूदी गंध भी सोख लेंगे

प्रणव प्रियदर्शी
बोधगया में सात जुलाई को हुआ शृंखलाबद्ध बम विस्फोट कई मायने में अलग है। बिहार में यह अपने तरह की पहली घटना है। वहीं, दुनिया में किसी बौद्ध मंदिर पर हुए हमले में भी इसतरह की यह पहली घटना है। इसने यह साबित कर दिया है कि अब निर्मम समय की धार बांधना एक फरेबे-आरजू है। ऐसा इसलिए कि हम इस धरती को नर्क बनाने पर तुले हैं और स्वर्ग किसे कहते हैं, जानना नहीं चाहते। इस परिप्रेक्ष्य में मुझे आस्कर वाइल्ड की एक कहानी याद आ रही है। एक आदमी मरा। जिंदगी में जो अच्छा-बुरा करना था, सब करके मरा। परमात्मा के सामने न्यायालय में उपस्थित किया गया। परमात्मा नाराज था। उसने कहा, बहुत पाप किए तुमने। तुम्हारे पास अपने किए गये पापों का कोई उत्तर है? उस आदमी ने कहा, जो मैं करना चाहता था, वह किया। उत्तरदायी मैं किसी के प्रति नहीं हूं। परमात्मा थोड़ा चौंका। उसने कहा, तुमने हिंसा की, हत्याएं कीं, खून किये। आदमी ने कहा, निश्चित ही। तुमने धन के लिए लोगों की जानें लीं? तुमने व्यभिचार किया, दुष्कर्म किया? उसने कहा निश्चित ही। उस आदमी के चेहरे पर थोड़ी भी शिकन नहीं थी। न अपराध का कोई भाव था, न कोई चिंता थी। परमात्मा थोड़ा बेचैन होने लगा। अपराधी बहुत आए थे, लेकिन यह कुछ नए ही ढंग का आदमी था। परमात्मा ने कहा, जानते हो, तुमारा यह बार-बार कहना कि हां! निश्चित ही, मुझे संशय में डाल दिया है। मैं तुम्हें नर्क भेज दूंगा! उस आदमी ने कहा, तुम भेज न सकोगे। क्योंकि, मैं जहां भी रहा नर्क में ही रहा। अब तुम मुझे कहां भेजोगे?
        यह सुन कर परमात्मा के चेहरे पर पसीना छलक आया। उसने घबराहट में कहा कि फिर मैं तुम्हें स्वर्ग भेज दूंगा। उस आदमी ने कहा, यह भी न हो सकेगा। परमात्मा ने कहा - तुम आखिर हो कौन? मेरे ऊपर कौन है, जो मुझे रोक सके तुम्हें स्वर्ग भेजने से! उस आदमी ने कहा, मैं हूं, क्योंकि मैं सुख की कल्पना ही नहीं कर सकता। हर सुख को दुख में बदल लेने में मैं इतना निष्णात हो गया हूं कि तुम मुझे स्वर्ग न भेज सकोगे। तुम भेजोगे, मैं नर्क बना लंूगा। मैंने कभी सुख का स्वप्न नहीं देखा। सुख की कल्पना नहीं की। तुम मुझे स्वर्ग कैसे भेजोगे? और कहते हैं, मामला वहीं अटका है।
          यह किसी एक आदमी की कहानी नहीं है। यह विकृत होते मानव जाति की कहानी है। नर्क कहीं दूर आसमां में स्थित कोई उल्का पिंड नहीं है और न ही स्वर्ग किसी उद्यान में लिपटा अमरबेल। ये हमारे मन के भावों के दो पलड़े भर हैं। जो नर्क में जीने को बहुत दिनों तक अभिशप्त होता है, इससे उबरने का बहुत दिनों तक कोई रास्ता भी नहीं सूझता तो उसे फिर इसकी आदत पड़ जाती है। वह इससे एक रस ग्रहण करने लगता है। उससे नर्क से ही आसक्ति हो जाती है। वह नर्क को ही सत्य और स्वर्ग समझ बैठता है। फिर वह जहां जाता है, अपना नर्क निर्मित कर लेता है। जो सुख, स्वप्न और स्वर्ग की बातें करता है, वह उसे शत्रु जैसा प्रतीत होता है। उसकी दृष्टि स्वर्ग देखने की शक्ति खो बैठती है।
           ऐसे माहौल में अगर बौद्ध स्थल पर भी हमला होता है तो आश्चर्य की कोई बात नहीं। इस हमले के पीछे किसके हाथ हैं, इसका भी कोई मायने नहीं है। सोचने की बात है कि आखिर हम सभ्यता के किस बंजर में भूमि में आकर खड़े हो गए हैं? क्या मनुष्य जाति अपने आदम स्वरूप में लौटने को मजबूर हो गया है? हमारे विकास की उर्ध्व गति स्थूलता से उठा कर स्तुत्य द्वीप में ले जाने की समर्थता खो चुकी है? बुद्ध ने अपने समय की कुरूपता का रेचन कर मानवीय ऊंचाई का प्रतिमान गढ़ा था। अहिंसा, करुणा, शील, समर्पण जैसे मूल्यों को नये तरह से पुनरस्थापित किया था। उन्होंने पूरी मानव जाति को दुख से मुक्त रहने के उपाय सुझाए थे। बौद्ध धर्म की उदारता पूरी मनुष्यता को संरक्षित करती है। इसी से प्रभावित होकर डॉ. भीमराव आंबेडकर ने पूरी दलित जाति के उत्थान के उद्देश्य से बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। अगर हम इससे आगे का प्रतिमान नहीं गढ़ सकते तो उससे उसका संरक्षित रहने के अधिकार पर हमला बिलकुल अनिष्टकारी है।
            बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति की स्थली पर हमला कर हम बुद्ध या बौद्धों को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। क्योंकि; उन्होंने पहले से ही ऐसी संभावनाओं का उपाय कर निर्वाण लिया था। बुद्ध ने सर्वप्रथम परमात्मा को मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा परमात्मा है ही नहीं। जब परमात्मा नहीं है, तो पूजा किसकी? इसलिए उनके धर्म में मूर्ति पूजा की तिलांजलि हो गयी। आश्चर्य तो ये है, जो हमें मूर्ति से छुटकारा दिलाता है, उसकी ही मूर्ति बना कर पूजा शुरू हो जाती है। बुद्ध का सारा जोर मनुष्य पर था। परमात्मा मनुष्य के भीतर उठता वह सुवास है, जो संपूर्ण शृृष्टि अपने में व्याप्त कर लेता है। इसलिए अवतारवाद की धारणा भी यहां खंडित हो जाती है। बुद्ध के पास जो दीक्षा लेने जाता, कहता - बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। किसी ने बुद्ध से पूछा कि आप तो कहते हैं अभिवादन योग्य कोई नहीं, फिर कौन के प्रति लोग आकर कहते हैं बुद्ध के शरण जाता हूं? तो बुद्ध ने कहा, बुद्ध का अर्थ ही वही है, जिसने जान लिया कि मैं नहीं हूं। शून्य के प्रति शरण जाते हैं। मैं सिर्फ बहाना हूं।  मैं नहीं रहूंगा, तब भी यह पाठ जारी रहेगा। कहते हैं बुद्ध के मरने के पांच सौ वर्ष तक बुद्ध की कोई प्रतिमा नहीं बनायी गयी। बुद्ध ने कहा, जरूरत क्या है? मैं जिस वृक्ष के नीचे ज्ञान को उपलब्ध हुआ था, उसी की पूजा कर लेना। इसलिए बोधि वृक्ष की पूजा चली। परमात्मा के पास तो हर कोई झुक जाता है, वृक्ष के पास झुकना थोड़ी मुश्किल बात है। बुद्ध का जोर पूजा पर नहीं था, फिर भी उन्हें लगा होगा कि भारतीय मन पूजा के बिना नहीं मानेगा। इसलिए उन्होंने वृक्ष के रूप में एक प्रतीक दे दिया। पांच सौ वर्षों तक बुद्ध के जो मंदिर बने, उनमें सिर्फ बोधि वृक्ष का प्रतीक बना दिया जाता था। काफी था। वृक्ष जीवन का प्रतीक है। हालांकि बोधगया में मौजूद बोधि वृक्ष को नुकसान नहीं पहुंचा है। आगे भी नहीं पहंुचे कामना यही होगी। लेकिन नहीं पहुंचने की गारंटी कौन ले सकता है? हमले के मद्देनजर बिहार के अन्य ऐतिहासिक मंदिरों की सुरक्षा भी बढ़ा दी गयी है। लेकिन ऐसी व्यवस्था हर समय के लिए नहीं हो सकती। बुद्ध, महावीर, जीसस, कबीर, मुहम्मद सभी मानवीय चेतना की ऊंचाई और शिखर हैं। इन्हें नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता। ये सभी सुवास हैं, बारूदी गंध भी सोख लेते हैं। इनके कीर्ति स्थल को नुकसान पहुंचा कर हम अपने अस्तित्व पर कुठाराघात कर रहे हैं। अगर हम इन शिखरों के आदर्श को हमारे जीवन से हटा दें तो फिर जीवन यात्रा का अर्थ ही समाप्त हो जायेगा। इन्हें हमारे जीवन से, स्मृति से हटाने की साजिश चल रही है। ऐसी साजिश आतंकवाद, संप्रदायिकता, कट्टरता के साथ-साथ और भी कई स्तरों से की जा रही है। जिन्होंने अपने जीवन को नर्क बना लिया है, उन्हें दूसरे का स्वर्ग बर्दाश्त नहीं हो रहा। वे पूरी दुनिया को नर्क में तब्दील कर देना चाहते हैं। जीवन से जब संस्कृति, सौंदर्य और आदर्श खत्म होंगे तो मनुष्य एक चेतन पदार्थ के सिवा कुछ नहीं बचेगा। पदार्थ का स्वभाव है विचलन। एक जगह से दूसरी जगह तक, ऊपर  से नीचे की तरफ। पदार्थ शोर कर सकता है, खुद से बोल नहीं सकता। हाथ में जो दे दो ले लेगा, कोई विचार नहीं कर सकता। इससे बाजार सधता है। एकाधिकार बढ़ता है। पूंजी मुखर होती है। हैवानियत के सिपहसलार का हित सधता है। अगर इसतरह के षड्यंत्र का मुंहतोड़ जवाब देना है तो हमें अपने अंतस के उजास को तेजतर करना होगा। इतना कि किसी मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारे का मुंहताज न होना पड़े।
           हमारी कमजोरी ही षड्यंत्रकारियों का संबल बन जाती है। यह ठीक है कि अतीत के पदचिह्नों को भी सम्हालना है, उससे सीखना है। लेकिन किसी चीज के प्रति अतिरिक्त मोह हमारे सामने से वह आईना छीन लेता है, जिसमें हम अपनी गहराई देख सकें। बुद्ध ने भी तो कहा है-अप्प दीपो भव। हमारी सभ्यताएं फिर किसी बुद्ध को पैदा नहीं कर पा रही है, इसलिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। हम सभ्यता के वर्तमान मोड़ पर आकर रुक से गये हैं। प्रकृति रुकना बर्दाश्त नहीं करती। जो चीजें ऊपर नहीं उठतीं, वे नीचे की तरफ गिरने लगती हैं। यही कारण है कि हम चेतना के शिखर से लुढ़ कर मरघटी संत्रास में जीने को विवश हो गये हैं। अकारण बुद्ध ने  नहीं कहा है - सम्यक स्मृति। 

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