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Tuesday 16 July 2013

जिंदगी का तो एक अलग ही फसाना



प्रणव प्रियदर्शी
कल रात अचानक जिंदगी ने दिए थे मेरे हाथों में अपने हाथ। कहा था उसने यूं ही नहीं है जिंदगी में स्वर और साज। तू क्यों परेशान हुआ जाता है, देख कर सरोकारों का वीभत्स अंदाज। मैं हैरान रह गया, सुन कर बातें उसकी। हतप्रभ था, यह सोच कर कि कितने दिनों से मेरी आहटों में नहीं सधा है कोई राग, लेकिन क्यों इसे फुर्सत हुई पुचकारने की आज। भीतर कोई बांसुरी बजे तो बाहर के हर बिखरे स्वरों को भी आदमी गीत बना दे। पर ऐसी स्थिति मेरे भीतर इधर बहुत दिनों से नहीं बनी थी। फिर भी जब जिंदगी ने दो सहानुभूति के पल दिये तो मन को अलसाना लाजिमी था ही। मैंने अपने भीतर के हर बिखरे नक्षत्रों का एक साथ ही मुआयना किया। हर ज्वालामयी जलन को स्नेह का पारावार दिया। लेकिन कुछ दाग-धब्बों का तत्क्षण मिटना संभव नहीं था। गर्दिशें भी तो एक ही साथ किसी को नहीं ढकते। इसलिए इसे मिटने में भी समय तो लगता ही है। दुख का कीचड़ अगर वर्षों से मन में जमा हो तो सूखने में वक्त लगता ही है।  मन हल्का हो तो सबकुछ आसान लगता है। इसी मन:स्थिति में देर रात रहने के बाद नींद आगोश में लेना चाही। पर, सुबह उठने की जल्दी रात में और बेचैनी फैलाती है। नींद भी अतिथि की तरह आयी और सपनों में सुराख पैदा करने लगी। मेरी दृष्टि ओझल नहीं थी, इसलिए देख रहा था किस तरह हमारा आराम, हमारी नींद, हमारी खुशी भी हमारी नहीं रह गयी है। सब कुछ दूसरों का गुलाम बनती जा रही है। जरूरतें मुंह चिढ़ाते हुए आती हैं और अनुभति को समान में बदल कर चली जाती है। व्यवस्था सिर्फ सपने दिखाती है और भीड़ में बदल कर स्वत्व  छीन लेती है। सुरक्षा बाजार में खड़ा कर लूट लेती है। देख रहा था किस तरह अपनेपन के जाल में फांस कर हर कुरीति सिर चढ़़ कर बोल लेती है। किस तरह मंजिलों के गुंबद र्गिदशों में पड़ कर दम तोड़ देते है। इतना ही नहीं यह भी कि किस तरह स्वप्निल अनुराग सरे राह बिखर जाता है। कदम अहले तलक ही पड़ते हैं और कोसों जमीं नहीं मिलती।   

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