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Thursday 18 August 2011

वीर-बांकुरों की धरती पर धुआं-धुआं जिंदगी

प्रणव प्रियदर्शी 
हमारी जिन्दगी के रफ़्तार भरे दौर में बहुत चीजें छूट रही हैं. छूट रही हैं सफर में पीछे छूट चुके लोगों को खोजती निगाहें. छूट गयी है किसी को हाथ देकर अपने साथ खींच लेने की तमन्नाएँ. छोड़ चुके हैं हम किसी के इंतजार में मौन रह कर आँखों में ही बरस बिता देनेवाले लोगों की संवेदना पर मरहम लगाना. यह दौर कितना निष्ठुर है, कितना संवेदनहीन! हम देख नहीं पा रहे हैं कि इस दौर में खत्म होती जा रही है हमारे मनुष्य होने कि संभावनाएं भी. चेतते हैं तब, जब रफ़्तार में घट जाती है कोई दुर्घटना. ऐसा नहीं हो इसके लिए जरूरी है हम पहले से ही सावधानी बरतें. रफ़्तार कि गति थोड़ी सी धीमी कर अपने आसपास के सरोकार और पीछे छूट चुके लोगों की जिन्दगी को भी देखें. क्योंकि जब हम रफ़्तार में गिर कर पीछे छूट जाते हैं तो ऐसे लोग ही हमारा सहारा बन कर हमें चलने के काबिल बनाते हैं. इतना सब कहने का निहितार्थ यह है कि हमारे झारखण्ड कि बीरी मजदूरों की जिन्दगी बहुत पीछे छूट चुकी है. रफ़्तार तो दूर वे विकास की मुख्य धारा से भी नहीं जुड़ पाये हैं. अवसर की समानता व अपने अधिकारों से भी अनभिज्ञ हैं. इसके कई कारण हैं - राज्य सरकार की लापरवाही, पारंपरिक रुढी, अंधविशवास, व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा, संगठन व सशक्त आवाज का आभाव, राजनीतिक चेतना व सक्रियता की कमी. झारखण्ड के पाकुड़, चतरा, देवघर, साहबगंज, दुमका, गोड्डा, हजारीबाग, पूर्वी सिंघ्भूम, पलामू आदि जिले में लाखों की संख्या में बीरी मजदूर कार्यरत हैं. इनकी स्थिति आज भी वैसी ही है, जैसी आजादी के बाद के दिनों में थी. राज्य सरकार के पास इनकी संख्या का सही आंकड़ा भी नहीं है. दुर्भाग्य की बात है कि झारखण्ड राज्य गठन के ग्यारह साल बाद भी बीरी मजदूरों कि समस्या किसी राजनीतिक पार्टी का एजेंडा भी नहीं बना.