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Thursday 21 February 2013

एक तरफ उसका घर, एक तरफ मैकदा...

इसबार वेलेंटाइन डे पर युवा प्रेम निमंत्रण में कम, पूजा की तैयारी में ज्यादा व्यस्त दिखे

युवाओं का अंतर्द्वंद्व और कसमसाहट उनके भीतर की सुप्त परतें उघाड़ कई बातें कह गईं 

प्रणव प्रियदर्शी
रांची : प्रेम का मुखर संदेश देने का सुअवसर वेलेंटाइन डे और एक दिन बाद ही सरस्वती पूजा का आगमन परिवर्तन की वासंती बयार के बीच हमें हमारी संस्कृति के प्रति युवाओं के रुझान का आभास दिला गया तो प्रेम के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी बतला गया। इसबार वैलेंटाईन डे की खुमारी पहले की तरह सर चढ़ कर बोलती नजर नहीं आई। आखिर, सरस्वती पूजा की तैयारी भी तो करनी थी। फूलों का गुच्छ प्रेमिका के हाथ की खूबसूरती बढ़ाए या मां सरस्वती के चरणों पर बिराजे इस कसमकश में उत्साही युवक उकता नहीं रहे थे, बल्कि धैर्य के साथ अपने अभ्यंतर में गोता लगा रहे थे। प्रेमिका के सामने प्रेम निमंत्रण करें या विद्यादायिनी से वर प्राप्त करें, यह द्वन्द्व उनके कदम खींच रहे थे। एक तरफ प्रेयसी तो दूसरी तरफ वाग्देवी। चुनाव बड़ा मुश्किल था। ‘एक तरफ उसका घर, एक तरफ मैकदा, मैं कहां जाऊं होता नहीं फैसला?’ फैसले की यह मश्किल घड़ी युवाओं के भीतर के कई परतें उकेर रही थी, क्योंकि यह प्रेम और भक्ति की परीक्षा की घड़ी थी।
    परिवर्तनशील स्याह समय के बीच प्रेम के प्रति उनके नजरिए को भी इसी अंतर्द्वन्द्व से अच्छी तरह समझा सकता है। प्रेम अब हृदय वीणा के तारों पर अहिर्निश बजनेवाला संगीत नहीं रहा। अब प्रेम की अभिव्यक्ति थोथे शब्दों से होने लगी है, वह संवेदना के झंकार से पैदा होकर गहन मौन में एक-दूसरे की बीच ठहर जाने का उद्यम नहीं रहा। प्रेम अब स्रिग्ध भावों के बीच एक-दूसरे के साथ कुछ दिन बिता कर अलग हो जाने का करतब बन गया है। इसके साथ ही गला काट प्रतिस्पर्द्धा और दूर हिचकोले भरते करियर के मध्य अब वह गहराई ही कहां आती कि प्रेम की निखालिस धुन हमें हमआगोश कर सके। हमारे देश के युवा प्रेम के इस उत्कृष्टतम आयाम को भले ही जी न सकें, लेकिन अपनी बेचारगी से परिचित हैं और अपनी संस्कृति की निष्कंप सच्चाई की भी समझ रखते हैं। इसलिए ‘वैलेंटाइन डे’ को उन्होंने ‘वर्सिप डे’ में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने सोचा हमारे प्रेम के लिए तो हर दिन है, लेकिन वीणावादिनी की समारोहपूर्वक पूजा करने का अवसर फिर साल भर बाद ही मिलेगा। और फिर उनके रुके-रुके से कदम रुक के किसी पार्क की तरफ नहीं पंडाल की तरफ चल पड़े। तैयारी शुरू हो गयी। किसी को मूर्ति लाने का काम मिला, किसी को पंडाल सजाने का तो किसी को पूजा के सामाना लाने का आदि। हममें से बहुत युवाओं के इस अदा पर रीझना चाहेंगे। लेकिन युवाओं के उपरोक्त अंतर्द्वद्व का दूसरा पहलू भी है।
    आखिर, हम प्रेम की लहर को किनारे से क्यों लगा दिए हैं। प्रेम का प्रतिफलन या विकसित रूप ही है भक्ति। एक तरफ संसार है, दूसरी तरफ परमात्मा और प्रेम की लहर दोनों के बीच में है। प्रेम संक्रमण की अवस्था है। जिसने लौकिक प्रेम में को न जिया, वह परमात्मा के प्रेम में भला कैसे पड़ेगा? जिसने प्रेम की पयोनिधि जाना ही नहीं, वह परमात्मा को जानने की संभावना अनायास ही खत्म कर लेता है। परंतु हमने तो प्रेम के बीज को विवशताओं के विष में घोल दिया है और फिर प्रेम के नाम पर कुछ और ही करने को मजबूर होते हैं या कुछ और ही कर रहे होते हैं। आहत संवेदना हमें जीवन का संतुलन साधने ही नहीं देती। नहीं तो प्रेम और परमात्मा को अलग-अलग कर सोचने को हम विवश ही नहीं होते। हम कह रहे होते- ‘इस द्वार जाऊं  या उस द्वार जाऊं, तुम्हें पा गया मैं घर बदल-बदलकर।’ अथवा यह कहते - ‘तुम्हारी जिक्र करें या खुदा की बात करें, हमें तो इश्क से मतलब है, किसी की बात करें।’