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Wednesday 3 November 2021

प्रेम का रंग नीला के बहाने कुछ बातें

~प्रणव प्रियदर्शी


कवि प्रवीण परिमल को विगत कुछ वर्षों से सुनता और गुनता रहा हूं, लेकिन मेरे हाथ में पहली बार उनका कविता संग्रह आया है। लोकार्पण समारोह के एक दिन बाद उनसे मुलाकात हुई थी तो मैंने उनसे कहा था कि आपके कार्यक्रम से संबिंधत कोई भी फोटो या अन्य चीज अपने फेसबुक वॉल पर शेयर नहीं कर सका हूं। आपके कविता संग्रह पढ़ने के बाद मेरे मन में जो विचार उठेगा, उसे फेसबुक पर पोस्ट करूंगा तो उन्होंने सहर्ष इसकी सहमति दी थी। कल मैंने उनके कविता संग्रह को पढ़ना शुरू किया। अशोक प्रियदर्शी सर और डॉ राधानंद सिंह ने इस कविता संग्रह की भूमिका लिखी है। उसे पढ़ने के बाद संग्रह की शुरुआत की दो कविताएं पढ़ी। इतना पढ़ने के बाद मैंने किताब बंद कर दी और अपने इस विचार को विराम दे दिया कि पूरे संग्रह को पढ़ने के बाद कुछ लिखूंगा। 
     दरअसल इतना पढ़ने के बाद मन में ऐसा विचारों का तूफान उठा कि जबतक उसे न निकालूं आगे बढ़ ही न सकूंगा। असल में लेखन अपनी पीड़ा, अपना आवेग, अपना सुख और अपना दुख बाहर निकालने का ही तो माध्यम है। अब मैंने सोचा है कि पूरे संग्रह पर नहीं, कविताओं की मांग के अनुसार खंड-खंड में यहां अपना विचार रखूंगा। 
      अशोक प्रियदर्शी सर इस संग्रह पर लिखी अपनी भूमिका के अंत में कहते हैं – कहा जाता है कि कविताओं के प्रकाशक नहीं मिलते, कि कविताओं के पाठक नहीं मिलते! मेरा मानना है कि कविताएं “कविताएं” हों तो सही। 
      हमें इन पंक्तियों पर गहनता से सोचना चाहिए कि हम जो लिख रहे हैं, वह सच में कविताएं हैं या नहीं? हम जो लिख रहे हैं, वह हमें आत्म परितोष प्रदान करता है या नहीं? अगर ऐसा होता है तो हमारे सृजन का महत्व है, फिर किसी की आलोचना या प्रशंसा हमें भयभीत नहीं कर सकती। खुद-ब-खुद खुद के साथ खड़ा होने का साहस हमें मिलता है। कवि प्रवीण परिमल का यह अदम्य साहस ही है कि वे 60 वर्ष की उम्र में भी प्रेम का रंग नीला संग्रह लेकर हमलोगों के सामने आते हैं। किसी कवि को जानने-समझने और उनके मूल्यांकन का यही पैमाना होना चाहिए। लेकिन विडंबना यह है कि दृष्टिहीन आलाचकों के पास किसी रचनाकार के मूल्यांकन का बस एक ही तरीका होता है कि कौन कहां-कहां छपा है और वे विभिन्न मीडिया प्लेटफार्म पर अच्छे रचनाकारों की सूची में छपास रोगियों के नाम गिनाते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि मैं कहीं छपता नहीं हूं, इसलिए ऐसी बातें कर रहा हूं। नहीं-नहीं ऐसी बात बिलकुल नहीं है, मैं भी देश की श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम पत्रिकाओं में छपा हूं और छप ही रहा हूं, लेकिन इस वजह से मैं खुद को श्रेष्ठ रचनाकार मानना कभी स्वीकार नहीं कर सकता। इन पत्रिकाओं में वे लोग भी छपते हैं, जिन्हें अभी तक लिखना भी नहीं आया है। कवि प्रवीण परिमल भी कहते हैं-

भावना ही नहीं,
मन का विश्वास भी
है जरूरी बहुत अर्चना के लिए!

वासना ही नहीं, 
तृप्त निर्वाण भी
है जरूरी बहुत सर्जना के लिए!

 प्रश्न यह भी उठता है कि इस कठोर समय में कवियों को बार-बार प्रेम गीत क्यों लिखना पड़ता है, क्यों कोई कवि प्रेम कविताओं का संकलन लेकर सामने आता है। कवि प्रवीण परिमल इसका उत्तर बहुत सहजता से देते हैं –

मैं तुममें, तुम मुझमें मिलकर होते एकाकार
चाह रहा वर्षों से होता मैं तुममें साकार!

     हम गौर से देखें तो हमारे संपूर्ण जीवन में केवल वे ही दिव्य और आनंद के क्षण रहे हैं, जब हम किसी चीज में पूर्णतः लीन हो गए हों, बहाना कुछ भी हो सकता है। चाहे हम उसे प्रेम का नाम दे दें अथवा परमात्मा कह दें। जिस क्षण हमारा अहंकार विसर्जित हो जाता है, वही क्षण दिव्य बन जाता है। इसलिए प्रेम और अहंकार साथ-साथ नहीं चल सकते। प्रेम में हमें सर्वस्व समर्पण करना होता है, थोड़ा भी बचाया तो सबकुछ गंवाया। इसलिए प्रेम में इतना माधुर्य है, इतनी दिव्यता है, प्रेम गगनगामिनी है। अशोक प्रियदर्शी सर भी अपनी भूमिका में अपने समय के चर्चित गीतकार बालकृष्ण उपाध्याय की पंक्तियां उद्धृत करते हैं –

मंदिर में मैं गया पूजने एक दिन जब भगवान को
सिर न झुका पत्थर के आगे, किंतु देख अभिमान को
बोला फूल सिसककर जो कि कुचल गया था पांव से
पूजा पाता प्यार, न पूजा मिलती पाषाण को 
इसलिए मैं गीत प्यार के गाए जाता हूं
इसीलिए भावों के अर्घ्य चढ़ाए जाता हूं

     इसी संदर्भ में मुझे भी एक कवि की ये पंक्तियां समादृत लग रही हैं-
प्यार के पथ में जलन भी तो मधुर है
जानता हूं दूर है नगरी प्रिया की
पर परीक्षा एक दिन होनी हिया की
प्यार के पथ की थकन भी तो मधुर है
प्यार के पथ में जलन भी तो मधुर है।

आग ने मानी न बाधा शैल-वन की
गल रही बुझ पास में दीवार तन की
प्यार के दर पर दहन भी तो मधुर है
प्यार के पथ में जलन भी तो मधुर है।।

    कवि प्रवीण परिमल के कविता संग्रह की पहली कविता है- वह लड़की। उन्हें कैसी लड़की से प्यार है, उसका बहुत ही सजल ढंग से उन्होंने इस कविता में उल्लेख किया है। इसी कविता में एक जगह उन्होंने लिखा है-

अक्सर मुझमें रहती है वह लड़की
उसका व्यक्तित्व असाधारण है-
सृष्टि से भी ज्यादा निखिल, 
इतिहास से भी ज्यादा विराट,
कल्पना से भी ज्यादा गरिमामय
और ईश्वरत्व से भी ज्यादा महान...
और मुझे असाधारणता से प्यार है,
महानता से प्यार है।

    हवा में नहीं लिखी गई है ये बातें और न यह कोरी कल्पना है। ऐसा भी नहीं है कि वह लड़की सचमुच में इतना गरिमामय हो। इस संदर्भ में मुझे एक छोटी सी कहानी याद आ रही है। लैला के विरह में मजनू की नारकीय स्थिति देखकर उस नगर के राजा को मजनू पर तरस आता है तो वह उस नगर की सबसे सुंदर लड़कियों को अपने दरबार में बुलाता है और मजनू को कहता है कि इनमें से जो लड़कियां तुम्हें पसंद हो, उसे ले जाओ और रोना-धोना बंद करो। मजनू एक-एक लड़कियों के नजदीक जाकर देखता है और यह कहते हुए आगे बढ़ता जाता है कि इनमें लैला कहां है। इसके बाद राजा उससे प्रश्न करता है कि लैला में ऐसी क्या बात है, जो इसमें नहीं है। लैला से भी ज्यादा सुंदर हैं ये लड़कियां, इनके सामने तो वो कुछ भी नहीं है। प्रतिउत्तर में तब मजनू कहता
है – लैला क्या है, उसे सिर्फ मैं ही जान सकता हूं, दूसरा कोई नहीं। 
     वाजिब है प्रेम हमारी नजरों को वह गहराई प्रदान करता है, जिसके माध्यम से हम दूसरे के गरिमापूर्ण अस्तित्व को स्पर्श कर पाते हैं। मनुष्य के भीतर जो दिव्यता का तल है, उसे देखने में सक्षम हो पाते हैं। प्रेम अंधा नहीं होता, उसकी अपनी अलग दृष्टि होती है। लेकिन जिसके पास अपनी स्थूल सत्ता की चौखट पर जीने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता, वे कोमल भावनाओं की निखिल उड़ान को कैद कर लेना चाहते हैं, तरह-तरह की अड़चनें उत्पन्न करते हैं। कवि प्रवीण परिमल इससे भी वाकिफ हैं, इसलिए कविता संग्रह में अपनी कविता शुरू करने के ठीक पहले एक पूरे खाली पृष्ठ पर हरिवंश राय बच्चन की सिर्फ चार पंक्तियों को रखना इन्होंने मुनासिब समझा है-

तुम इसे पढ़ना कभी, तो
भूलकर मत आंख से मोती ढुलाना।
पाप मेरे वास्ते है
नाम लेकर आज भी तुमको बुलाना।

 
अधिकांश कविता संग्रह के कवि बहुत हड़बड़ी और विवश होकर अपनी किताब सामने लाते हैं, जिस वजह से उसमें भाषा की त्रुटि और अन्य कई गड़बड़ियां अनायास ही मिल जाती हैं। इस कविता संग्रह को बहुत सूझबूझ और धैर्य के साथ निकाला गया है, जिस वजह से आपको एक-दो जगह छोड़कर अन्यत्र ऐसी कोई त्रुटि नहीं मिलेगी। रचनाओं में भी जिसतरह से भाषिक संयम और साधना के साथ भावना का अर्घ्य अर्पित किया गया है, वह इतना सहज और मनोरम है कि आप उसमें रमे बिना रह नहीं सकते।
    कविता संग्रह दो खंडों में है, पहले खंड में मुक्त छंद की कविताएं हैं और दूसरे खंड में गीत हैं। मुक्त छंद की कविताओं में कवि अभिव्यक्ति के शिखर को छूते हुए नजर आते हैं। प्रतीक और बिंबों का जो आकाश इसमें उन्होंने गढ़ा है, वह इस कवि की पूरी काव्य प्रतिभा को आपके सामने रख देता है। इन कविताओं का रस चखने के बाद दूसरे खंड के काव्य के धरातल पर उतरने में आपको कुछ समय लग सकता है, क्योंकि गीत में एक बंधन होता है, उस बंधन के दायरे में ही आपको खुद को उड़ेलना पड़ता है। मुक्त छंद की कविताओं में भी बंधन होता है, लेकिन आप उसमें अभिव्यक्ति के संपूर्ण आयाम के साथ उतर सकते हैं। उसमें आप ज्यादा स्वतंत्र होते हैं। इस विधा की शुरुआत भी इन्हीं सब वजहों से की गई होगी। कवि इससे भली-भांति परिचित हैं, इसलिए मुक्त छंद की कविताओं को इन्होंने पहले खंड में रखना मुनासिब समझा, ताकि पाठक इनकी भाव लहरी में संपूर्णता से उतर सके। भाषा पर कवि की पकड़ इतना सबल है कि वे इसके प्रवाह को जब चाहें अपने अनुकूल मोड़ लेते हैं, अपने मनोनुकूल इसकी गरिमा को ऊंचाई तक ले जाते हैं। भाषा इनके पीछे चलती है, ये भाषा की विवशता को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते। इस सबके बावजूद कवि को अपनी कविताई को लेकर कोई अहंकार नहीं है, इसे वह बिल्कुल सहज भाव से लेते हैं। यथार्थ की जमीन को अपने पैरों के नीचे से कभी खिसकने नहीं देते। एक जगह कहते भी हैं-  

अब, जबकि हमारे बीच का एक नाजुक रिश्ता,
एक अनाम संबंध
बँटी हुई रस्सी की सर्पीली ऐंठनों की तरह
खुलता हुआ-सा प्रतीत हो रहा है
धीरे-धीरे...
मैं स्वीकारता हूँ, मेरा कविता!
कि मैंने तुम्हें पूरा-पूरा नहीं जाना, 
तुम्हारे किसी एक पहलू को
मैंने नहीं पहचाना।

एक अन्य बानगी देखिए-

यूँ तो मेरे लबों पर,
न जाने कितने गीत
अधूड़े पड़े हैं,
परंतु
हर गीत प्रभावी ही हो,
इसका दावा मैं नहीं कर सकता।
हाँ,
यदि कभी एकाध गीत ऐसा हो गया,
मैं तुम्हें अवश्य सुना लूँगा।

इसके अतिरिक्त इनकी काव्य प्रतिभा की कुछ और बानगी आपके सामने रखना चाहूँगा, ताकि आप खुद इनका मूल्यांकन कर सकें। 

यह कैसी विडंबना है, अनु!
क्या ऐसा बिल्कुल ही नहीं हो सकता
कि हमारे बीच की यह खामोशी
यह फासला
खींचकर छोड़ी हुई रबर-बैंड की तरह
एकाएक सिकुड़ जाए, 
सिमट जाए
और सीमा की हदें यदि कुछ रह भी जाएँ
तो अधिक से अधिक दूरी इतनी ही हो...
इतना ही फासला
कि जितनी तुम्हारी सूनी मांग की चौड़ाई है, 
ताकि/ सिंदूर की लाली से,
जब चाहूँ/ इसे पाटकर
चूम सकूँ/ तुम्हारी चंपई देह के
फिरोजी अंगों की/ अनछुई रहस्यमयता को
और सर्वथा आलिंगन में/ बाँध सकूँ
तुम्हारी गोपन गोपनीयता को!

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आखिर प्रेम कोई कपूर की टिकिया तो है नहीं, अनु!
जो धीरे-धारे वायुमंडल में विलीन हो जाएगा,
विलुप्त हो जाएगा!
चिड़िया का एक नीला अंडा ही तो है यह,
जो आज न सही
कल तो फूटेगा ही
और जब फूटेगा
तो हकीकत का
एक अदद उमड़ता सैलाब बाहर होगा!

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क्या यह बिल्कुल ही मुमकिन नहीं
कि तुम मेरी चाहत के ठंडे हिमखंडों से
धूप की तरह सटकर, चिपककर खड़ी हो जाओ
मुझे चूमो, 
मुझमें उष्मा का संचार करो
और फिर मुझे गलाकर, पिघलाकर
मेरे साथ ही साथ
दूर तक बहने लगो,
फैलने लगो?

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किसी सुपरफास्ट ट्रेन की तरह
आते-जाते
क्रॉसिंग पर रुके किसी वाहन की तरह
मुझे नजरअंदाज तो नहीं किया तुमने,
यह सच है।
लेकिन, यह भी तो सच ही है
कि जाते वक्त
अपने साथ-ही-साथ
तुम उड़ा ले गई
मेरा मन/ मेरे विचार/ मेरा अस्तित्व
पटरियों के साथ ही चलते
किसी राहगीर के अँगोछे की तरह!

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रेत पर पद-यात्रा असंभव तो नहीं,
कुछ कठिन अवश्य है!
शायद इसलिए
वर्षों से मैं
शब्दों के छोटे-छोटे पत्थर डाल रहा हूँ इसमें,
ताकि जब भी मैं दौड़ूँ तुम्हारी ओर,
पैर न जलें, न धँसे, न लड़खड़ाएँ।

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भविष्य की अलगनी पर
जो सपने हमने टाँग रखे हैं,
वर्तमान के शुष्क थपेड़े
कभी-कभी उड़ा ले जाना चाहते हैं।

परंतु
भूत की ‘स्प्रिंग’
न जाने इतनी सख्त कैसे हो जाती है
कि आँधी या तूफान भी
सर नवा देते हैं!

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जानता हूँ, बुलबुला कुछ देर को आकार पाता,
जानता हूँ, स्वप्न कोई हो नहीं साकार पाता।
आँधियों में जबकि कोई वृक्ष तक टिकता नहीं है,
मैं भला फिर अलगनी पर किसलिए सपने सजाऊँ।

दग्ध मन की वेदना ही हूँ नहीं जब भूल पाता,
तुम कहो, कैसे विरह में मैं प्रणय के गीत गाऊँ!

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मन के मीत! प्राण-प्रिय मेरे! यह जो विरह तुम्हारा
जग के दुर्गम पथ पर देता मुझको बहुत सहारा।
किंतु करुण यह व्यथा विरह की घनीभूत इतनी है,
आँखों से आँसू का पल-पल बहता एक पनारा।
सूख नहीं पाती हैं पलकें, इतना स्रोत सबल क्यों;
मन पर घिर सघन घन का इतना अद्भुत विस्तार!

मैं तुममें, तुम मुझमें मिलकर होते एकाकार,
चाह रहा वर्षों से होता मैं तुममें साकार!

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टीस, घाव की गोद दुबककर, सारी उम्र पली;
रात उदासी मेरे भीतर बूँद-बूँद पिघली!

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धूर्त बहुत/ हो गई जिंदगी/ सदाचार को छोड़;
अचरज है/ अपनापन भटका/ जाने कब, किस मोड़!

किस्सों में अब समा चुके हैं/ प्रीत भरे पल-छिन
हाल न पूछो/ इतना जानो/ गुजर रहे हैं दिन।

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हरदम सबको पीस रही है समय की अनदेखी चक्की;
मछुआरा है एक, मगर चारे पर है धक्कम-धुक्की।
किस दिन कौन फंसेगा, इसका भान अगर हो पहले से,
बढ़ जाए यह आपाधापी, बढ़ जाए मुक्का-मुक्की।
जिस दिन काल मेरे सिरहाने बैठा सर सहलाए, तुम
स्वतः पड़े रहना पहले से मुख में गंगाजल बनके।

याद तुम्हारी रही उमर भर दिल में इक हलचल बनके
रूप तुम्हारा रहा हमेशा आँखों में काजल बनके।

   ऐसे काव्य संग्रह को हमारे बीच लाने के लिए मैं आदरणीय कवि प्रवीण परिमल को बधाई देता हूँ, साथ ही उनके प्रति आभार प्रगट करता हूँ। यह संग्रह कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हो सकता है और उनका मार्ग प्रशस्त कर सकता है।