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Sunday 27 November 2011

मुख्यमंत्री दाल-भात योजना

बूंद चली है सागर लाने...
गरीबों का उत्थान व महिला सशक्तीकरण का अनूठा नमूना
राज्य का आधा से अधिक हिस्सा हर वर्ष सूखे की चपेट में आ जाता है। यहां की खनिज संपदा गिद्ध दृष्टि का शिकार हो जाती है। आदिवासी परतंत्रता के दंश से उबर नहीं पाये हैं। वन संपदा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भेंट चढ़ जा रही है। मनगा पूरी तरह से सफल नहीं हो पा रही है। पारंपरिक उद्योग ध्वस्त होते जा रहे हैं। ऐसी भयावह स्थिति के बीच ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ खाली घरे में एक बूंद ही सही बूंदाबांदी की शुरुआत  कर दी है। ऐसे ही तो सागर समेटा जाता है। इतना ही नहीं ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ झारखंड की बिखरी राजनीति के बारे में सोचने को विवश करती है। लूट की विद्रुप रणनीति और राजनीतिक अराजकता ढोता झारखंड से जहां देश की अपेक्षा और यहां की विशाल आबादी का भरोसा टूट गया था, ऐसे में इस योजना की शुरुआत से आशा की कोंपलें हरी हो उठी हैं।

प्रणव प्रियदर्शी
देश का योजना आयोग 32 रुपये से अधिक कमानेवाले को गरीब मानने को राजी नहीं है। देश की राजनीति बाहुबलियों और पूंजीपतियों के हाथों में सिमट कर कितना अधिक असंवेदनशील और आमजन से कट गयी है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण योजना आयोग की जारी विज्ञप्ति से स्पष्ट हो गया है। अब बीपीएल व अन्य गरीब परिवारों के सामने यह संकट खरा है कि अगर गरीबों को गरीब नहीं माना जायेगा तो उनकी गरीबी दूर करने का प्रयास कैसे हो सकेगा? देश की वर्तमान स्थिति तो यह है कि 32 रुपये में एक आदमी का पेट भरना  संभव  नहीं है, पूरे परिवार की बात तो छोड़ ही दीजिए। वर्तमान समय में पेट भरने के सिवा और भी कई जरूरतें हैं, जिसके बिना भी जिया नहीं जा सकता। उन जरूरतों का क्या होगा? क्या समय की रफ्तार में देश का अंतिम आदमी कदमताल कर पायेगा? क्या गरीबी मिटाने की बजाय गरीबों को ही मिटाने की साजिश रची जा रही है? यह तो पूरे देश की बात हुई, जिसकी स्थिति-परिस्थिति से झारखंड भी इतर नहीं है।
अगर सिर्फ झारखंड की ही बात की जाये  तो राज्य का आधा से अधिक हिस्सा हर वर्ष सूखे की चपेट में आ जाता है। यहां की खनिज संपदा गिद्ध दृष्टि  का शिकार हो जाती है। आदिवासी परतंत्रता के दंश से उबर नहीं पाये हैं। वन संपदा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भेंट चढ़ जा रही है। मनगा पूरी तरह से सफल नहीं हो पा रही है। पारंपरिक उद्योग ध्वस्त होते जा रहे हैं।  देश व राज्य की समस्या के इस सामूहिक जुगलबंदी के बीच ‘मुख्यमंत्री दाल-भात  योजना’ खाली घरे में एक बूंद ही सही बूंदाबांदी की शुरुआत कर दी है। ऐसे ही तो सागर समेटा जाता है। इतना ही नहीं ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ झारखंड की बिखरी राजनीति के बारे में सोचने को विवश करती है। लूट की विद्रुप रणनीति और राजनीतिक अराजकता ढोता झारखंड से जहां देश की अपेक्षा और यहां की विशाल आबादी का भारोसा टूट गया था, ऐसे में इस योजना की शुरुआत से आशा की कोंपलें हरी हो उठी हैं।
बहरहाल, झारखंड में 15 अगस्त 2011 को शुरू हुई ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ के केंद्र शहरी क्षेत्रों के कुछ सार्वजनिक जगहों पर खोले गये थे। पर, इसकी सफलता को देखते हुए 2 अक्टूबर गांधी जयंती के अवसर पर शहरों में केंद्रों की संख्या बढ़ा  दी गयी, तो गांवों की जमीं पर भी इसे उतारा गया। इसके साथ ही शहरी एवं ग्रामीण केंद्रों पर 5 रुपये में ही दाल-भात के साथ सब्जी भी शामिल की गयी। चना और सोयाबीन की सब्जी 5 रुपये में ही दी जा रही है। इसे चलाने की जिम्मेदारी स्वयंसेवी संगठन के लोगों को दी गयी है, जिसमें महिला स्वयं सेवी संगठनों को जुड़ने  के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है, ताकि उन्हें भी रोजगार का विकल्प मिल सके। ‘बुंडू’ के मौसीबाड़ी प्रांगण में ‘नारी उत्थान जन कल्याण महिला समिति’ की देखरेख  में मुख्यमंत्री दाल-भात  योजना संचालित की जा रही है। ‘बुढ़मू ’ के प्रखंड मुख्यालय में ‘सोनी स्वयं सहायता महिला समूह’ द्वारा संचालित की जा रही है। खलारी में मुख्यमंत्री दाल-भात योजना की शुरुआत खलारी स्टेशन के पास की गयी है। यह केंद्र डुहू कोचा महिला समूह के द्वारा संचालित किया जा रहा है।
शहरों में दस नये केंद्र : दाल-भात  योजना की सफलता को देखते हुए राज्य के तीन शहरों में 10 नये केंद्र खोले गये हैं। धनबाद में चार, रांची में तीन और जमशेदपुर में भी तीन नये दाल-भात  केंद्र खोले गये हैं। रांची के डोरंडा एजी मो़ड, पिस्का नगरी व रातू में केंद्र खोले गये हैं। रांची के पंडरा व कचहरी के पास 15 अगस्त से ही दाल-भात केंद्र चालू है।
269 प्रखंडों में शुरुआत : मुख्यमंत्री दाल-भात योजना की शुरुआत दो अक्टूबर को 269 प्रखंडों में की गयी है। एक प्रखंड में एक केंद्र बना है। प्रखंड के एक केंद्र पर एक दिन में 300 लोगों के भोजन की व्यवस्था, जबकि शहरी क्षेत्र के एक केंद्र पर 400  लोगों के भोजन की व्यवस्था का आदेश है। यह अलग बात है कि इतने लोग एक दिन में कभी पहुचते हैं तो कभी नहीं। किसी दिन बहुत कम लोग आते हैं, तो किसी दिन बहुत अधिक। इस हिसाब से भोजन की व्यवस्था करनी होती है और 300 या 400 से अधिक संख्या होने पर पिछले दिनों की कमी को प्रबंधित कर लिया जाता है।
कैसे मिलता है भोजन :भोजन  के लिए जानेवाले लोगों का पहले रजिस्टर पर नाम व जगह लिखे  जाते है। इसके बाद अंगूठा का निशान लगवाया जाता है और फिर 5 रुपये लेकर कूपन दिया जाता है, तब उन्हें भोजन प्राप्त  होता है। हर केंद्र का चोखा व सब्जी देने का दिन अपने-अपने हिसाब से है। सब्जी में सोयाबीन-आलू, आलू-चना व कभी-कभी हरी सब्जियां भी दी जाती हैं।
दाल-भात केंद्र सुबह 9 बजकर 30 बजे से अपराहन 4 बजे तक खुला रहता है। अलग-अलग केंद्रों के खुलने के समय में थो़डा -बहुत अंतर जरूर है। सरकारी सहायता के नाम पर खाद्य आपूर्ति मंत्री के निर्देश पर एमएफसी से एक रुपये किलो चावल सेंटर को दिया जा रहा है। केंद्र के लिए जगह व मकान की भी  व्यवस्था सरकार के स्तर से ही की गयी है। बाकी बची सारी व्यवस्था स्वयं स्वयंसेवी संस्थाओं को करनी है। किसी केंद्र में चार तो किसी में पांच कर्मचारी के मत्थे पर जिम्मेदारी होती है, इन्हें बकायदा वेतन दिया जाता है। संचालक केंद्र से हुए आमदनी के बारे  में स्पष्ट तो नहीं बताते, लेकिन भविष्य में कुछ अच्छा होने की आस लिये लगे हुए हैं। आईटीआई के पास स्थित ‘प्रज्ञारूपा विकास समिति’ द्वारा संचालित दाल-भात केंद्र के संचालक मनोज कुमार इस योजना के भविष्य को लेकर पूरी तरह आशान्वित हैं। रांची के टाउन हॉल में ‘डहर’ स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा संचालित केंद्र पर खाने के प्लेट लिए बैठे भादो महतो बतातें हैं कि इसतरह का खाना होटलों में खाने पर 10 रुपये लगते हैं। जगनू महतो का कहना है कि सरकार की इस योजना से हमलोगों को बहुत राहत पहुंची है। वहीं, रिक्शा चालक मंगरा बताते है कि जब से यहां केंद्र खुला है, कहीं और नहीं जाते। खाने की गुणवत्ता के संबंध में विभिन्न केंद्रों में खाने पहुंचे लोगों से पूछने पर रुख सकारात्मक ही दिखा। इन केंद्रों पर लेबर व रिक्शाचालक अधिक संख्या में पहुँचते हैं, जिनके लिए एक प्लेट प्रतिदिन पेट भरने  के लिए काफी नहीं होता। ऐसी स्थिति में वे 10 रुपये चुका कर दो प्लेट खाना एक साथ लेकर बैठते हैं। क्षुधा तृप्ति के बाद उनके हृदय से सरकार के प्रति धन्यवाद का स्वर जरूर उठता है, जिन्हें उनके चेहरे पर अंगराई लेते देखा जा सकता है।
इसतरह झारखंड में गरीबों के उत्थान एवं महिला सशक्तीकरण का यह अनूठा नमूना है। यहां गरीबों को एक पेट भोजन  की तलाश में दूसरे  राज्यों की तरफ पलायन जारी है और यहां की लड़कियां दूस प्रदेशों में रोजगार के नाम पर दैहिक शोषण का शिकार होती हैं। उस दशा पर पूर्ण रूप से नहीं तो कम-से-कम आंशिक विराम जरूर लगेगा। अब निराला की कविता ‘तोडती पत्थर’ की वह इलाहाबाद की महिला, जिनके बारे  में उन्होंने लिखा था - ‘श्याम तन, भर बंधा यौवन/नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन/गुरु हथौडा हाथ/करती बार-बार प्रहार/सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।’ अट्टालिका भले ही उसके सामने हो, लेकिन झारखंड में वह एक समय के भोजन  के लिए तरसेगी नहीं। और, जब पेट भरा रहेगा तो जिनके चूसे खून से अट्टालिकाएं खड़ी होती हैं, उनसे प्रतिकार की क्षमता भी बढ़ेगी। जनकल्याण की ऐसी योजनाएं किसी राजनीतिक मुगालते से नहीं, बल्कि संवेदना की झनझनाहट और अपने सरोकार की समझ से पैदा होती है। हालांकि, स्वार्थलोलुप राजनीति एक तरफ लोगों का हक छीनती है तो दूसरी तरफ भरोसे के पतले धागे को जोड़े  रखने के लिए कुछ कल्याणकारी योजनाएं भी  चला देती हैं। पर, गौर से देखने पर उससे बेगानेपन का भाव  साफ झलकता रहता है। तमाम पहलुओं पर विचार कर हमें यह मानना होगा कि झारखंड राज्य जिन हसरतों के साथ अपने-आप को 11 वर्ष पूर्व अस्तित्व में लाया था,  उस ओर ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ की शुरुआत एक सराहनीय कदम है। जिस तरह बिहार सरकार ने कई महत्वपूर्ण योजनाओं को अमलीजामा पहना कर विश्व के लिए अनुकरणीय बन खड़ा हुआ है, उसी तरह यह आशा करने में तनिक भी गुरेज  नहीं की जा सकती कि झारखंड सरकार का यह अनूठा कदम भी विश्व मानचित्र पर अपनी अलग पहचान दर्ज करायेगा।
जल, जंगल और जमीन के साथ सहअस्तित्व की जिजीविषा में अपने-आप को  ढालनेवाले झारखंड की संस्कृति से यहां के जनप्रतिनिधि भी विलग नहीं हुए हैं, इस भावना को ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ आधार प्रदान करती है। भारत में 20 रुपये प्रतिदिन पर गुजर कर रहे 83 करोड़  लोगों के कल्याण की दिशा में इस योजना को विस्तार देने की जरूरत है, ताकि व्यवस्था के दंश से मुफलिसी में जी रहे लोगों को राहत की थोड़ी छांव मिल सके। इसकी अगली कड़ी  में ‘मुख्यमंत्री लाडली-लक्ष्मी योजना’ भी  एक अलग सोपान बनाने की ओर चल पड़ी है। आनेवाले वक्त में यह कितने अरमानों को परवाज देने में सफल होगी, यह अभी भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। ऐसी और भी योजनाओं की जरूरत है। हम यह शुभकामना करते हैं कि झारखंड की जमीं पर ऐसी और भी योजनाएं उतरें, वे सफल भी हों, ताकि यहां की आवोहवा की सुरमयी ताजगी फिंजा में नयी रंगत घोल सके।