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Tuesday 16 July 2013

...जहां साथ फहराते हैं तीन धर्मों के पताके!


कुछ जज्ब-ए-सादिक हो, कुछ इखलासो इरादत
हमें इससे क्या बहस वह बुत है कि खुदा है
प्रणव प्रियदर्शी
रांची : एक तरफ अजान के स्वर, दूसरी तरफ बौद्ध मंदिर से आती मृदंग की आवाज और कुछ ही देर बाद शिव मंदिर से उठती घंटे की ध्वनि। हर स्वर और ध्वनि में एक तारतम्यता, एक संदेश, फिर भी एक-दूसरे को पछाड़ने की प्रतिस्पर्धा से बहुत दूर। ऐसे ही आदर्शों का प्रतिमान गढ़ रहे हैं डोरंडा के जेएमपी कैंपस में एक  ही कतार में अगल-बगल अवस्थित  जामा मस्जिद, बौद्ध मंदिर और शिव मंदिर के प्रांगण। यही चीज यहां के जीवन व्यवहार में भी दिखती है। मस्जिद में रहनेवाले लोग हों अथवा मंदिरों की सुरक्षा में लगे लोग, सभी विद्वेष रहित भावना से अपने-अपने कार्य में लगे रहते हैं और सहयोग की घड़ी आने पर एक-दूसरे का संबल भी बनते हैं।
           कैंपस में प्रवेश करते ही प्रकृति का स्नेहिल स्पर्श अपने-आप मन की गांठें खोलना शुरू करा देता है। आगे बढ़ते ही मस्जिद का स्वच्छ वातावरण, बौद्ध मंदिर के चारों तरफ मंत्रों से सुसज्जित छोटे-बड़े पताके(लुङदर) और शिव मंदिर की विशिष्टता, आध्यात्मिकता के कई रंगों से एकसाथ साक्षात्कार करा देती है।  माहौल के इस अनुराग में मन की बेडि़यां तोड़ आत्मा कुछ क्षण के लिए अपने अनहद स्वरूप में अवस्थित न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता।  यहां सुबह का दृश्य तो और भी मनमोहक होता है। हिंदू, मुस्लिम और बौद्ध तीनों धर्मों के लोग यहां जुटते हैं और अलग-अलग पांत में अपने आराध्य के सानिध्य में पहुंचने के लिए बेसब्र होते हैं। लौटते वक्त मस्जिद से निकलते लोग मंदिर से नजर बचा कर नहीं निकल सकते और मंदिर से नतमस्तक होकर निकले लोग मस्जिद को नजरअंदाज नहीं कर सकते। बौद्ध गुम्बा दोनों के बीच में अवस्थित है। इसलिए कुछ क्षण के लिए अगर रुकना हो तो एडि़यां यहीं गड़ जाती हैं। जान-पहचान रहने पर सलाम-नमस्ते भी हो जाता है। फिर सभी अपने-अपने कारवां पर निकल पड़ते हैं। मन की दूरी छिटक जाती है, संवाद के दायरे बढ़ जाते हैं।
               तीनों आराध्य स्थल का एक ही साथ अवस्थित होना महज एक संयोग है या सोची-समझी योजनाओं का नतीजा, किसी को मालूम नहीं है। लेकिन इतना सभी जानते हैं कि जेएमपी में इन तीनों धर्मों के लोग रहते हैं। इसलिए जरूरत के अनुसार एक के बाद एक की स्थापना होती गयी। उन दिनों समाज में शायद सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने की न गुंजाइश होगी और न ही इसकी संभावना दिखी होगी। बाद में अलग-अलग जगहों पर भले ही कई सांप्रदायिक संकीर्णताएं उभरीं, लेकिन ये जगह आज भी उसी समासिक संस्कृति की वाहक बनने की परंपरा निभा रही है। ऐसा नहीं है कि जेएमपी कैंपस में अवस्थित होने के कारण यहां केवल जेएमपी के ही स्टाफ अराधना कर सकते हैं, बल्कि बाहर के लोग भी यहां आते हैं। ऐसा प्रचलन भी उसी परंपरा का हिस्सा है, जब धार्मिक स्थल किसी विशेष वर्ग का नहीं, बल्कि उसके द्वार सभी के लिए समान रूप से खुले रहते थे।
              जेएमपी कैंपस में अवस्थित मस्जिद, जामा मस्जिद के नाम से जाना जाता है। इसका स्थापना काल का सही समय वहां के लोगों को याद नहीं है। बस इतना ही कहते हैं यह डोरंडा का सबसे पुराना मस्जिद है। कुतुमुद्दीन रिसालदार बाबा यहीं पर पेड़ के नीचे इबादत करते थे। उन्हीं की याद में इस मस्जिद की नींव रखी गयी। मस्जिद के दूसरी तरफ अवस्थित शिव मंदिर का स्थापना काल 1770 ईस्वी बताया जाता है। कहा जाता है कि उस समय लखनऊ से यहां पर पुलिस बल की एक टुकड़ी आयी थी, उन्हीं लोगों ने इसकी नींव रखी। मंदिर-मस्जिद के बीच स्थित बौद्ध मंदिर (काग्यु समडुप लिङ बौद्ध गुम्बा) का स्थापना काल 2002 बताया गया। जेएमपी में कुछ बौद्ध धर्मावलम्बी भी हैं, उनकी सुविधा के मद्देनजर इसकी स्थापना की गयी। शिव मंदिर कैंपस में जमीन खाली होने के कारण यहीं पर इसकी नींव रखी गयी।

मो. नौसाद ( इंतजामिया, जामा मस्जिद) : इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता। यहां पर हम लोग एक-दूसरे का आदर करते हुए इसी भावना के साथ रहते हैं। इसलिए कभी कोई तनाव नहीं होता। जब से मैं यहां हूं, मुझे कभी भी किसी सांप्रदायिक विद्वेष सेे साबका नहीं पड़ा। हर जगह जब सांप्रदायिक सौहार्द का वातावरण बिगड़ता है, लोग यहां पूरी तरह से महफूज महसूस करते हैं।
भीमलाल पाठक (पुजारी, शिव मंदिर) : लोगों के पास जब अतिरिक्त समय होता है, तब संाप्रदायिक असहिष्णुता जैसे फिजूल चीजें दिमाग में जगह बनाती हैं। यहां पर सभी अपने-अपने कार्य में व्यस्त हैं। न तो उनके पास इतना समय है और न ही कोई संकीर्ण भावना।
सभी अपने-अपने आराध्य की पूजा करने के निमित्त से आते हैं और ध्येय पूरा होने पर शांतिपूर्वक चले जाते हैं। यही कारण है कि इस स्थान की सादगी बरकरार है और यही यहां की संपत्ति है।
टासी दोर्जे लामा (प्रमुख, बौद्ध मंदिर) : तीनों धर्म के मंदिर एक साथ अवस्थित होने के कारण मुझे बहुत ही अच्छी अनुभूति होती है। आराधना स्थल अलग-अलग हों, लेकिन लक्ष्य तो एक ही है। धर्म भी तो ऐसा ही कहता है। जीवन जीने के लिए मिला है, इसे फिजूल की बातों में उलझाने से क्या फायदा! एकता, करुणा, सहिष्णुता यही तो मनुष्य की थाती है, इसे सम्हाल कर रखने की जरूरत है। 

2 comments :

  1. सुंदर प्रस्तुति...
    मुझे आप को सुचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक 19-07-2013 यानी आने वाले शुकरवार की नई पुरानी हलचल पर भी है...
    आप भी इस हलचल में शामिल होकर इस की शोभा बढ़ाएं तथा इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और नयी पुरानी हलचल को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी हलचल में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान और रचनाकारोम का मनोबल बढ़ाएगी...
    मिलते हैं फिर शुकरवार को आप की इस रचना के साथ।



    जय हिंद जय भारत...


    मन का मंथन... मेरे विचारों कादर्पण...


    यही तोसंसार है...

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  2. अच्छी जानकारी .. काश इन्सान समझ सके ...

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