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Tuesday 16 July 2013

आज भी सिहर उठता है बथानी टोला

बिहार : 11 जुलाई, 1996 को भोजपुर में हुआ था बथानी टोला नरसंहार
पाश ने कहा है-सबसे खतरनाक वह चांद होता है/ जो हर हत्याकांड के बाद/ वीरान हुए आंगनों में चढ़ता है/ पर आपकी आंखों में/ मिर्ची की तरह नहीं गड़ता है। बिहार का र्चिचत बथानी टोला नरसंहार कुछ ऐसे ही मंजर को परिभाषित करता है। इसकी यादें आज भी जब जेहन में उतरती हैं तो सांसें थम जाती हैं। 11 जुलाई, 1996 को हुआ यह नरसंहार एक ऐसा आईना है, जिसमें राज्य ही नहीं संपूर्ण देश का सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पाखंड एक साथ दिखता है।



प्रणव प्रियदर्शी
बथानीटोला (भोजपुर) । नईमुद्दीन के छह परिजन बथानी टोला जनसंहार में मारे गए थे। नरसंहार की यादें जेहन में आज भी ताजा है। नईमुद्दीन बताते हैं कि बड़की खड़ांव गांव में जब रणवीर सेना ने मुस्लिम और दलित घरों पर हमले और लूटपाट किए, तब 18 मुस्लिम परिवारों सहित लगभग 50 परिवारों को वहां से विस्थापित होना पड़ा। उसी के बाद वे बथानी टोला आए। वहां भी रणवीर सेना ने लगातार हमला किया। जनता ने छह बार अपने प्रतिरोध के जरिए ही उन्हें रोका। पुलिस प्रशासन-सरकार मौन साधे रही। आसपास तीन-तीन पुलिस कैंप होने के बावजूद हत्यारे बेलगाम रहे और सातवीं बार वे जनसंहार करने में सफल हो गए।
         किसी खौफनाक दुस्वप्न से भी हृदयविदारक था जनसंहार का वह यथार्थ। 3 माह की आसमां खातुन को हवा में उछाल कर हत्यारों ने तलवार से उसकी गर्दन काट दी थी। एक गर्भवती स्त्री को उसके अजन्मे बच्चे सहित हत्या की गई थी। नईमुद्दीन की बहन जैगुन निशां ने उनके तीन वर्षीय बेटे को अपने सीने से चिपका रखा था, हत्यारों की एक ही गोली ने दोनों की जिंदगी छीन ली थी। 70 साल की धोबिन लुखिया देवी जो कपड़े लौटाने आई थीं और निश्चिंत थीं कि उन्हें कोई क्यों मारेगा, हत्यारों ने उन्हें भी नहीं छोड़ा था। श्रीकिशुन चौधरी जिनकी 3 साल और 8 साल की दो बच्चियों और पत्नी यानी पूरे परिवार को हत्यारों ने मार डाला था। कुल मिलाकर 8 बच्चों, 12 महिलाओं और 1 पुरुष को मार डाला गया था। जिनके परिजन बचे थे, वे इस आस पर टिके थे कि आरोपियों को सजा मिलेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
नरसंहार के सभी आरोपी बरी
हालांकि भोजपुर जिले के सहार ब्लाक के बथानी टोला में 11 जुलाई, 1996 को हुए दलित हत्याकांड के सभी 23 आरोपी 16 अप्रैल, 2012 को पटना उच्च न्यायालय द्वारा दोषमुक्त करार कर दिए गए। गौरतलब है कि मई, 2010 में आरा जिले के एक सत्र न्यायालय ने इन सबको दोषी ठहराते हुए इनमें से तीन को मृत्युदंड एवं बाकी के बीस लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
फैसले के बाद हुई थी राजनीति
सभी बिहार सरकार पर आरोप लगा रहे थे कि उसने इस मुकदमे पर ठीक से ध्यान नहीं दिया। बिहार में हाथ मिलाते हुए नीतीश और नरेंद्र मोदी की तस्वीर के छपने पर खूब हंगामा हुआ था। नीतीश कुमार गुजरात के कत्लेआम में बहे बेगुनाहों के लहू से अपने दामन को बचाने का नाटक कर रहे थे और बथानी टोला के वक्त रणवीर सेना को संरक्षण देने वाली राजद और दूसरी वर्गीय पार्टियां नीतीश के खिलाफ बयानबाजी करके अपने को सेकुलर साबित करने की जी तोड़ कोशिश कर रही थीं।
जमीन विवाद अभी भी अनसुलझा
दरअसल यह पूरा संघर्ष जमीन पर अधिकार, आपसी वर्चस्व और किसानों के हितों की रक्षा को लेकर चलता रहा और समय-समय पर इसने जातीय दायरा भी अख्तियार कर लिया था। सबसे गंभीर समस्या यह रही कि राज्य सरकारों और प्रशासन ने संघर्ष और समस्या के मूल बिंदुओं को तलाशने और उनका सर्वसम्मत समाधान ढूंढ़ने की अभी तक न तो कोई ठोस पहल की और न ही देश के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले इस राज्य के राजनीतिक दलों ने ही प्रबल इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है। सरकारों और राजनीतिक दलों ने इसे न तो कानून व्यवस्था की समस्या का मामला माना और न ही कोई ऐसी समस्या जिसको समझना जरूरी हो।
फिर खूनी संघर्ष होने की आशंका
रणवीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया की 1 जून 2012 की हत्या के बाद बिहार में एक बार फिर से खूनी संघर्ष शुरू होने की आशंका घिरने लगी है। जातीय युद्ध के बीज अब फिर से पकने लगे हैं। मुखिया को 2002 में पटना से गिरफ्तार किया गया था। उन पर नरसंहार के 22 मामले थे, जिसमें से 16 मामलों में वह बरी हो चुके थे। छह मामलों में वे जमानत पर थे। बीते जुलाई 2011 को उन्हें जमानत प्राप्त हुई थी। जानकारों का कहना है कि ब्रह्मेश्वर की हत्या बथानी टोला में किए गए नरसंहार का बदला था।

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