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Wednesday 9 October 2013

गांव से गायब होती कीर्तन मंडली

प्रणव प्रियदर्शी
घुप्प अंधेरा, स्तब्ध रात, डग भर की दूरी भी नहीं सूझती थी। कहीं दूर से आती कीर्तन की मद्धिम आवाज कोनों में उतरती थी। मन को यह भरोसा होता था कि कोई है...है कोई ... आसपास उत्साह की आंच सुलगाने के लिए। गांवों की वह सांस्कृतिक परिदृश्य ही उसकी पहचान थी। लेकिन अब वहां कीर्तन मंडली ही नहीं है तो भला कीर्तन कहां से होगा? गांव-घर में जब भी कोई धार्मिक अनुष्ठान होता था, कीर्तन मंडली भक्ति की ज्योत जगाने वहां पहुंच जाती थी। लोग उन्हें कुछ ले-देकर कृतार्थ का अनुभव करते थे। लेकिन अब न तो वैसे लोग रहे और न वैसी प्रांजल अनुभूति की दमक। यही कारण है कि कीर्तन मंडली अब विलुप्ति के कगार पर पहुंच गयी है। बदलती मानसिकता की तपिश के बीच उसकी जगह बैंड पार्टियों का कनफोड़ू संगीत ने ले लिया है।
        कीर्तन मंडलियों के गायब होने का एक कारण रोजगार के दबाव में गांव से शहर की तरफ पलायन भी है। कीर्तन मंडली में कम-से कम चार-पांच लोग अवश्य सम्मिलित होते थे। इतने लोगों का होना जरूरी था। बाकी साथ देनेवाले अन्य लोग तो आयोजन के दौरान अपने-आप मिल जाते थे। कीर्तन मंडली से जुड़े लोग गांव-घर में किसी-न-किसी छोटे-बड़े अन्य कामों से भी जुड़े होते थे। फुर्सत के पल में कीर्तन का अलख जगा आते थे। अब पलायन के कारण गांवों में एक साथ चार लोगों का रहना भी गंवारा नहीं है। एक उपस्थित रहता है तो दूसरा अनुपस्थित। ऐसे में कीर्तन का होना असंभव हो जाता है।
         ऐसा नहीं है कि कीर्तन मंडली में संगीत और आध्यात्म के बहुत बड़े जानकार लोग होते थे। बस काम भर अभ्यास के सहारे भक्ति के स्वर साध लेते थे। उनका गंवई अंदाज और  ज्ञान गुमान रहित सहजता ही बरबस मन को सम्मोहित करती थी। गांव में आकर शहर के बसने से धीरे-धीरे कीर्तन मंडली की तरह हमारी कई प्रमुख सास्कृतिक परंपराएं भी विलुप्त होती जा रही हैं। समय चक्र से बच कर उन्हें संवेदनशीलता के साथ सहेजने की जरूरत है। 

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