www.hamarivani.com

Friday 23 November 2012

दिल मांगे मोर... पर हम जा रहे जा रहे किस ओर


एक कृत्रिम और भौंडी सभ्यता का शिकार आज सबसे अधिक हमारे किशोर ही हो रहे हैं
शिक्षा तो दुनिया को दिखाने के लिए महज एक दिखावा है, चरित्र और चिंतन से उसका कोई सामंजस्य नहीं
किशोरावस्था में आधे प्रश्नों का उत्तर मिलता है, पर आधा प्रश्न...प्रश्न बन कर ही मन में तैरता रह जाता है

प्रणव प्रियदर्शी
दौड़...दौड़...दौड़...बहुत तेजी से सरपट दौड़ रही है दुनिया। एक क्षण में हमारे हाथों में सिमट आती है पूरी दुनिया और दूसरे ही क्षण चुपके से किसी अनजाने रास्ते से निकल पड़ती है ये तिलस्मी दुनिया। कई सार्थक चीजों को पीछे छोड़ आज सरपट भाग रही है, तेज रफ्तार भरी ये दुनिया। न अतीत के प्रति मुंहताज, न वर्तमान के प्रति कोई सोच और न ही भविष्य के प्रति कोई ठोस दृष्टिकोण। आज कितनी अजीबोगरीब हो गई है, हमारी सजी-संवारी दुनिया। इसकी सबसे वीभत्स तस्वीर उस समय सामने आती है, जब कोई स्कूली छात्र अपने उम्र को धत्ता बताते हुए वह सब कर गुजरना चाहता है, जो हमारे परिवेश के बिल्कुल प्रतिकूल है और खुद उसके लिए भी सहज नहीं।
    ग्लोबल पहुंच से हस्तांतरित एक कृत्रिम और भौंडी सभ्यता का शिकार आज सबसे अधिक हमारे किशोर ही हो रहे हैं। मास कल्चर के आवोहवा में सांस लेते शहर के नामी स्कूल में पढ़नेवाले बच्चों की दुनिया अब बिल्कुल अलग ही हो गयी है। उन्हें अपना जन्म दिन अब घर में नहीं, बल्कि किसी बार या रेस्टोरेंट में दोस्तों के बीच फनीले विश्वास के साथ दिल मांगे मोर जैसे धुन पर मनाने में ज्यादा अच्छा लगता है। उनके भीतर पिता का दायित्वपूर्ण हाथ और मां के सूर्ख आंचल की छांव के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रह गयी है, जो कि उनके बढ़ती उम्र के लिए सही राह निर्मित करती है। उन्हें घर का भोजन बेस्वाद लगता है, भले ही स्वास्थ्य दांव पर लग जाये। शिक्षा तो दुनिया को दिखाने के लिए महज एक दिखावा है, चरित्र और चिंतन से उसका कोई सामंजस्य नहीं। यही कारण है कि स्कूल के समय में इन्हें स्कूल ड्रेस में सिनेमा हॉल में सहज ही देखा जा सकता है। इसी उम्र में सेक्स के प्रति अतिरिक्त जिज्ञासा यौन विकिृति के रूप में सामने आती है। घर के बाहर समय के इस बहाव में लड़कियां भी पीछे नहीं। आखिर, रहे भी क्यों उसे लड़कों के साथ हर स्तर पर कदम से कदम मिलाकर जो चलना है। शहर के अस्पतालों में गर्भपात करानेवाली स्त्रियों में स्कूल गोइंग गर्ल्स की बहुतायत संख्या इस वर्ग के छद्म स्वरूप का साफ-साफ गवाही दे जाता है। फिर भी दिल मांगे मोर... का स्लोगन इनके सर चढ़ कर बोलता है।
    ऊपर से स्मार्ट और कंफीडेंट दिखनेवाले उच्चवर्गीय या उच्च मध्यमवर्गीय परिवार के इन किशोरों का जीवन जब ऐसे ही लड़खड़ाती और बिखरती नींव पर खड़ा होता है तो आगे क्या हश्र होगा, यह परिणाम से पहले पता नहीं चलता। जब पता चलता है तो अफसोस करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। घटना का दुखद व दूसरा पहलू यह है कि इनके अनुकरण में मध्यमवर्गीय बच्चे भी दिशाहीन होते जा रहे हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे बच्चे अपने तीव्र बुद्धिमता से अभिभावक को भी अपने पक्ष में कर हर काम के लिए राजी कर लेते हैं। हवा के रुख के साथ उम्र के दो मुहाने पर खड़े ये गुलफरेब क्या जानें, पर जाननेवाले कहते हैं - किशोरावस्था जीवन की वह संवेदनशील अवस्था है, जहां मन में उठती लहरों के बीच आधे प्रश्नों का उत्तर इन्हें मिलता है, पर आधा प्रश्न...प्रश्न बन कर ही मन में तैरता रह जाता है। इसलिए जरूरी है कि ऐसी नजाकत भरी उम्र से ही हम अपने जीवन के प्रति एक निजी, बिल्कुल अपना, नितांत मौलिक दृष्टिकोण विकसित करें। एक ऐसा दृष्टिकोण, जिसमें हर चीज के लिए जरूरत के अनुकूल जगह हो, अतिरिक्त झुकाव नहीं। रफ्तार जरूर हो, पर भटकाव नहीं। सोचें, क्या सिर्फ खुद को जी लेना, खुद की जरूरतों में सिकुड़ सिमट कर वक्त गुजार लेना ही जीवन की सार्थकता है या कुछ और...। दिल जरूर मांगे मोर...पर इसका भी ख्याल रहे हम जा रहे किस ओर?

No comments :

Post a Comment