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Saturday 18 July 2015

एक नये कैनवास पर मनुष्य को देखने की चेष्टा




प्रणव प्रियदर्शी
मनुष्य की प्यास क्या है? वस्तुतः वह क्या चाहता है? क्या सचमुच में वह जो चाहता है, वही उसकी प्यास होती है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनके जवाब ढूंढ़ने में पूरी उम्र खफ जाती है, फिर भी उत्तर नहीं मिल पाते। सदियाँ गुजर जाती हैं, सभ्यताएँ रीतती जाती हैं और मनुष्य हर बार वहीं खड़ा मिलता है, जहाँ से उसकी यात्राएँ शुरू हुई थीं। दरअसल, हमारी चाहतों के भीतर भी कुछ ऐसी चाह छिपी होती है, जिस तक पहुँचने के लिए बहुत गहरी समझ और व्यापक दृष्टिकोण की जरूरत पड़ती है। उस तक पहुंचने के लिए हमें संसार के बने-बनाये दायरे, मान्यताएँ, अपेक्षाएँ और उम्मीदों से ऊपर उठ कर मुक्त आकाश के सामने आकर खड़ा होना होता है। जहाँ शास्त्र, सिद्धांत और संस्कृति को बिना बीच में लाये ‘मैं’ को ‘मैं’ की नजरों से देख पाने में हम सक्षम हो सकें और चेतना के उस उजास में छिटकी अनुभूति पर विश्वास कर सकें।
       कवि विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास ‘कैनवास पर प्रेम’ उस मुक्ताकाश के सामने लाकर खड़ा करता है और उससे उत्पन्न अनुभूति पर अडिग रहने का संबल भी प्रदान करता है। कवि विमलेश त्रिपाठी इसलिए कि इस उपन्यास में उनकी काव्य चेतना ही प्रगट हुई है। तथाकथित कहानीकार किसी घटना को शुष्क शब्दों में पिरोकर पाठक के सामने उसे परोसने में ही अपनी प्रतिभा की पराकाष्ठा समझ लेते हैं। हकीकत यह है कि बिना काव्यानुभूति के साहित्य की कोई भी विधा अपनी पूर्णता के मापदंड पर खड़ी नहीं उतर सकती। विमलेश त्रिपाठी कविता तो लिखते ही हैं, कहानी में भी एक घटना को दूसरी घटना से जोड़ने और उसके साथ कई संदर्भों को बुनने में इन्हें महारथ हासिल है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए सहज ही ऐसा महसूस किया जा सकता है। कैनवास पर प्रेम शीर्षक से स्पष्टतः यह परीलक्षित होता है कि उपन्यास में प्रेम को अभिव्यक्ति मिली होगी और ऐसा है भी। प्रेम के साथ परेशानी यह भी है कि उसकी अभिव्यक्ति अगर काव्यात्मक शैली में न की गयी तो वह कुछ और ही अर्थ ग्रहण कर लेता है। लेखक को यह बात अच्छी तरह से पता है। इसलिए उपन्यास में जहां-जहां संदर्भ के अनुसार काव्यात्मक शैली की जरूरत पड़ी है, उन्होंने वहाँ से खुद को चूकने नहीं दिया है। यही कारण है कि यह उपन्यास पठनीयता के साथ प्रवाह भी बनाये रखता है और मन-मस्तिष्क पर अलग छाप छोड़ता है।
       अक्सर ऐसा देखा जाता है कि प्रेम के बहाने अश्लीलता को पड़ोस कर सस्ती लोकप्रियता बटोरने के फिराक में आज का लेखक लगा रहता है। इस उपन्यास में बहुत जगह ऐसी संभावनाएँ और संदर्भ बनते हैं, जिन्हें सेक्सुअल खुराक में तब्दील किया जा सकता था, लेकिन रचनाकार ने ऐसा नहीं होने दिया। जॉनस एरिकसन का एक कथन मुझे याद आ रहा है-‘बेचने के लिए नहीं बताने के लिए लिखें’। यह उपन्यास वृहतर उद्देश्य, प्रेम की दिव्य और पवित्र अनुभूति के साथ रचा गया है। यही कारण है कि उपन्यास का मुख्यपात्र सत्यदेव अपनी प्रेमिका में माँ की भूली-बिसरी, धुँधली तस्वीर को मुखर होता हुआ पाता है। प्रेमी-प्रेमिका का समागम दैहिक मिलन न होकर दैविक हो जाता है। उपन्यास में कुछ बानगी के साथ काव्यात्मक चेतना का सजल प्रवाह भी देखिए-
        “एक शांत और उजली नदी थी-जिसके अंदर मैं डूब रहा था। एक ऐसी नदी, जिसमें पहली बार डूबते हुए भी डूबने के डर से अलग था। यह डूबना एक नये रहस्य लोक की यात्रा थी-जो अनजान और एकदम नया था-अचंभित करनेवाला और अप्रत्याशित। वह एक बार दर्द से कांपती और उसके कंपन को सहेजता हुआ मैं दुनिया का सबसे बड़ा विजेता महसूस कर रहा था। दूर कहीं पहाड़ पर ग्लैशियर पिघल रहे थे। कहीं तेज बारिश हो रही थी-एक जोड़ की आँधी उठी थी। उस आँधी में दो शरीर उड़कर किसी देवलोक तक पहुँचने की यात्रा कर रहे थे-दो आत्माएँ एक-दूसरे में अंतरित होकर नया जन्म ग्रहण कर रही थीं।’’
        “मैं कैनवास पर कूची से रंग भर रहा था। एक तस्वीर जो हिल रही थी-काँप रही थी और अपने दैवीय रूप में रंगों के बीच पवित्र हो रही थी, उसी तस्वीर के बीच मैं तस्वीर की शक्ल में जा मिला था। दो तस्वीरें साथ मिलकर एक तस्वीर हो गयी थीं और पूरी दुनिया में एक असंभव किस्म का रंगीन उजाला फैल गया था। बहुत देर के लिए...और शायद उस एक वक्त में सदियों के लिए...।”
         “मेरे अंदर कोई एक तूफान-सा उठा था-जिसको ठीक-ठाक बताने में मैं असमर्थ हूँ, लेकिन मैंने तब अपने होंठ उसकी गीली आँखों पर रख दिये थे-बहुत देर तक। जैसे एक गहरा रंग कागज पर जाकर एक सुंदर आकृति में ढल गया हो और वह रंग धीरे-धीरे दो होठों की शक्ल में बदलता गया हो-दो होंठ मिलकर एक नए रंग का नया चित्र आँक रहे हों। बहुत देर तक। अनबद्य और अशेष। और उस दिन वह लौट रही थी। एक नया चित्र बना था हमारे और उसके बीच की थोड़ी-सी जमीन पर। भाषा चूक गयी थी। सिरफ उसका खामोश लौटना हवा में गूँज रहा था-वह जा रही थी और मुझे लग रहा था कि बहुत दिनों बाद वह मेरे और पास और करीब आ रही थी।”
         हमारा समाज प्रेम की इजाजत नहीं देता, लेकिन प्राणों की प्यास और तलाश अंततः प्रेम के रूप में ही प्रगट होती है। यह मनुष्य की चेतना का सांस्कृतिक परिष्कार है। इसलिए मन की उदीप्त आकांक्षा और नैसर्गिक उहापोह के अधीन हो आदमी प्रेम तो कर बैठता है, लेकिन उसे मंजिल तक पहुँचाने में सभी कामयाब नहीं हो पाते। ऐसे मोड़ पर भी नहीं, जहाँ प्रेम घने पेड़ की तरह अविचल खड़ा हो और उससे आती हवा पूरे जीवन को अपनी बाँहों में समेट लेने का निमंत्रण देती हो। जीवन में असफलताओं का आना कोई नयी बात नहीं है। कुछ असफलताएँ हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं तो कुछ जीने का उत्साह ही खत्म कर देती हैं। जब असफलता जीने का उत्साह खत्म कर दे तो गतिशील संसार में भी हमारे लिए चारों तरफ एक धूसर सन्नाटा फैल जाता है। कई दिनों तक ऐसी ही भावदशा बनी रहने पर मन की जो सहज प्रक्रिया है, वह निष्क्रिय होकर आदमी को एक अलग ही उलझन में डाल देती है। ऐसी स्थिति से निजात पाना फिर असंभव-सा लगने लगता है।
        उपन्यास का मुख्य पात्र सत्यदेव का व्यक्तित्व इसी कारण अधिक जटिल है। इन जटिलताओं के भीतर दबी पड़ी संवेदनाओं की परतों को उघाड़ पाना बहुत कठिन काम है। बहुत ही मनोवैज्ञिनक ढंग से लेखक ने एक अनसुलझे व्यक्तित्व के एक-एक सिरे को सुलझाया है। अक्सर हम अपने संकीर्ण समझ व असमर्थता के
वशीभूत हो ऐसे व्यक्ति को पागल घोषित कर निश्चिंत हो जाते हैं। हम पागलों के व्यक्तित्व के बीहड़ जंगल के भीतर  संवेदनाओं की बहती नदी को खोजने की कोशिश नहीं करते। शायद इतिहास में ऐसा कभी हो पाता, तो पागलखाने में इतनी भीड़ नहीं उमड़ती। यह उपन्यास मनुष्य के एक नये मनोविज्ञान को खोजने के लिए प्रेरित करता है।
        लेखक ने कई जगहों पर यह संकेत भी दिया है कि अगर उनके भीतर कहानीकार की प्रेरणा न होती तो ये सब संभव नहीं हो पाता। यह उपन्यास इसलिए भी रोचक और अनुकरणीय बन पड़ा है कि इसमें कहानीकार की विवशता, श्रम, धैर्य और व्यक्तिगत उहापोह सबकुछ एकसाथ प्रगट हुआ है। ये सब कहानी के साथ-साथ चलता है। उपन्यास का मुख्यपात्र सत्यदेव को ही नहीं, उसके आसपास के एक-एक पात्र को भी लेखक ने बहुत करीने से गढ़ा है और उस पर सतर्कता के साथ मेहनत की है। अगर ऐसा न होता तो कहानी किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाती, क्योंकि सत्यदेव के आसपास गढ़े गये अन्य पात्र भी प्रेम की खालिश वेदना से व्यथित हैं। लेकिन वे किसी-न-किसी रूप में दुनिया से सामंजस्य बिठाए हुए हैं। भले ही उनकी आँखों में सूनापन और हृदय में अथाह मौन पसरा हुआ है। सत्यदेव ऐसा नहीं कर पाता। जब हम दुनिया से सामंजस्य नहीं बिठा पाते हैं तो
वह हमें धकेल कर आगे बढ़ जाती है। साहित्य ही है, जो यहीं से रचना का मर्म ढूंढ़ लेता है।
        लेखक ने उपन्यास में कला के द्वंद्व को भी समेटने का प्रयास किया है। कौन पढ़ता है साहित्य, क्यों पढ़ेगा, लोगों के पास अब समय कहाँ है? सुबह आठ से शाम आठ बजे तक दफ्तर। इसके बाद बच्चे-कच्चे, दुकान-दउरी और पत्नी की चख-चख। फिर भी सत्यदेव शर्मा ने बहुत सारी चीजों के बीच से पेंटिंग को क्यों चुना? कोई एक आदमी लेखन को क्यों चुनता है? कथाकार कहता है-असल में यह प्रश्न पूछना ही बेमानी है। कहना चाहिए और पूछना बहुत जरूरी हो तो पूछना चाहिए कि इतने लोगों के बीच से पेंटिंग ने सत्यदेव शर्मा को क्यों चुना या लेखन ने विमल बाबू को क्यों चुना? बावजूद इसके प्रश्न यह भी उठता है कि प्रेम पर इतनी सारी कहानी और कविताएँ लिखी गयी हैं, फिल्में बनी हैं, फिर प्रेम पर एक नयी पुस्तक क्यों? लेखक अपने पात्रों के माध्यम से इन बातों का जवाब बड़े ही खूबसूरती से देते हैं-
       “-मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती?
        यह एक ऐसा वाक्य था, जिसे सैकड़ों-हजारों लड़कियों ने सैकड़ों-हजारों बार अपने पसंद के लड़के के सामने दुहराया है, लेकिन फिर भी इसकी गंभीरता कम नहीं हुई थी। ...एक ऐसा आवेग उठा था मेरे अंदर कि मैंने उसे कसकर अपनी बाँहों में जकड़ लिया था और जो मैंने कहा था, वह भी एक बहुत बार दुहराई गयी बात थी। लेकिन उस समय उसकी पवित्रता के प्रति मैं उतना ही आश्वस्त और विश्वस्त था जितना कि आपके जैसा कोई लेखक हो सकता है या कोई एक इंसान जो सच पर यकीन रखता हो-जिसे समय के थपेड़ों ने मुर्दा न कर दिया हो।
       “ -मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।
      यह वाक्य हमारे बीच से होकर आकाश की ओर उड़ गया था-बिलकुल उस रंगीन तितली की तरह, जिसे बचपन से हम दोनोंपकड़ने की कोशिश करते खेतों में भटकते रहते थे। हवा में एक गूँज थी, जिसकी थर्राहट अंतरिक्ष तक पहुँच रही थी। और धरती पर दो मिट्टी के पुतले एक-दूसरे से गुँथे हुए एक नयी कविता लिख रहे थे-जिसका अर्थ इस देश के असंख्य लोगों को आज तक समझ में नहीं आया है’’।
      कथा का कोई अंत नहीं होता। एक कथा खत्म होती है और वहीं से दूसरी कथा चल पड़ती है। इसलिए मैं अपेक्षा करूँगा कि साहित्य में इस तरह की रचनाओं को बेझिझक प्रश्रय मिले, ताकि सभ्यता की संभावनाओं का नया द्वार खुल सके।


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