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Friday 13 September 2013

विशेष राज्य का आंदोलन बने पुनरुत्थानवादी आंदोलन


प्रणव प्रियदर्शी
झारखंड के लिए विशेष दर्जे की मांग एक सामूहिक आवाज बनकर उभरी है। यह खुशी की बात है। किसी एक मुद्दे पर तो सभी राजनीतिक दल साथ दिख रहे हैं। किसी एक मुद्दे पर तो सभी ने साझा संस्कृति के संवाहक बन कर उपस्थिति दर्ज की है। खुशी परवान पर इसलिए है कि इस मामले में हम पड़ोसी राज्य बिहार से अधिक सामूहिक जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं। बिहार में विशेष दर्जे की मांग सिर्फ राजग अपने बूते बुलंद कर रहा है। हालांकि शुरुआत में राजद ने इसे अपने खेमे में लेना चाहा। उसका कहना था कि सर्वप्रथम उसने विशेष दर्जे की मांग उठायी। लेकिन इस दिशा में नीतीश कुमार के प्रयास के अंधर में उसकी आवाज कहीं गुम-सी हो गयी। गुमशुदगी के बियाबान में बिखर कर अब राजद-लोजपा साथ-साथ कहने को विवश हो उठी हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की विशेष दर्जे की मांग एक छलावा है, ढोंग है। विडंबना देखिए कि वही राजद -लोजपा झारखंड के विशेष दर्जे की मांग का समर्थन कर रहे हैं।
      इन सामूहिक आवाजों की जुगलबंदी के बीच से एक स्वर यह भी उभर रहा है कि अगर झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा मिल भी गया तो हित किसका सधेगा? इसतरह के स्वर इसलिए उभरे हैं कि झारखंड के अलग राज्य बनने से किनका हित हुआ? इसका माकूल जवाब सभी के पास है। कहीं वही हश्र विशेष दर्जा मिलने के बाद भी हुआ तो झारखंड की आम जनता डुगडुगी बजाती रह जायेगी। हरित भविष्य लुटता चला जायेगा। हमने जब अलग राज्य का दर्जा हासिल किया तो हमारे पास इस उद्देश्य से आगे का कोई मापदंड नहीं था कि प्रदेश को किस ओर उन्मुख करेंगे। किस दिशा में अपनी सामूहिक शक्ति लगायेंगे। फलस्वरूप यह प्रदेश लू़ट-खसोट का अड्डा बन गया। इस नव-सृजित प्रदेश की दशा-दिशा बदलने के लिए भी कोई ठोस रूप-रेखा नहीं तैयार की गयी। झारखंड राज्य के निर्माण के वक्त केंद्र सरकार को भी यहां की भौगोलिक और सांस्कृतिक संरचना के आधार पर आर्थिक विकास की रूप-रेखा तैयार करनी थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जब इन चीजों को लेकर राज्य प्रतिबद्ध नहीं था तो केंद्र क्यों प्रतिबद्धता दिखाये? जिस कारण परिणाम सिफर ही रहा। दरअसल झारखंड तो बन गया, लेकिन विकास की कोई अवधारणा अपनायी ही नहीं गयी। कोई आर्थिक ब्लू प्रिंट नहीं बना।
       इसी के मद्देनजर वरिष्ठ भाजपा नेता सरयू राय ने दो टूक कहा है - 'विशेष राज्य झुनझुना नहीं, जब चाहा बजा लिया और ना ही कोई निपुल है, जो मुंह में दबाये और सो गये।' हकीकत भी है कि सिर्फ यह कह देने से कि हम विशेष राज्य के हकदार हैं, इससे नहीं मिलेगा विशेष दर्जा। ये अलग बात है कि हम विशेष दर्जा पाने की सारी अर्हता पूरी करते हैं, लेकिन तर्क के साथ अपनी बात रखनी होगी। मुद्दे को लेकर पुख्ता कागजी दस्तावेज तैयार करना होगा। बिहार ने मांग के साथ-साथ अपनी प्रतिबद्धता भी दिखायी है, सिर्फ जुबानी राग नहीं अलापा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया। 1.18 करोड़ लोगों से हस्ताक्षर कराये। प्रतिनिधिमंडल लेकर प्रधानमंत्री से मिले। मीडिया को अपने इस मुहिम से जोड़ा। हर जिले में अधिकार यात्रा का आयोजन करवाया। पटना और दिल्ली में विशाल अधिकार रैली की। नीतीश सरकार ने आर्थिक विशेषज्ञों की सहायता से समर्थित दस्तावेज तैयार करवाया। उन्होंने साफ कहा - जो देगा विशेष दर्जा, उसी को देंगे समर्थन। तब उनकी बातें सुनी जा रही हैं।
        झारखंड ने अभी तक न तो इस तरह की प्रतिबद्धता दिखायी है और न ही ऐसा प्रयास ही किया है। सिर्फ बोल के ढोल ही पीटे जा रहे हैं, जबकि तीन वर्षों से रह-रह कर झारखंड को विशेष दर्जा प्रदान करने की मांग उठायी जाती रही है। सबसे पहले दिसंबर 2011 में कामेश्वर बैठा ने स्पेशल मेंशन के तहत लोकसभा में यह मुद्दा उठाया था। इसी वर्ष मई में झाविमो सांसद अजय कुमार ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर यही मांग फिर से उठायी। दिसंबर 2012 में पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में यह मामला जोर-शोर से उठाया था और केंद्र सरकार से औपचारिक रूप से आग्रह किया था। मार्च में लोकसभा में झारखंड के बजट प्रस्ताव पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए इंदर सिंह नामधारी, यशवंत सिन्हा, अजय कुमार व कामेश्वर बैठा ने विशेष दर्जे की मांग रखी। इस वर्ष जुलाई महीने में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने प्रधानमंत्री और केंद्रीय वित्त मंत्री से मुलाकात के दौरान झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग की। अगस्त में राज्य स्तर पर आजसू भी रैलियां आयोजित कर इस मुद्दे को प्रोत्साहित कर रहा है।
        जरूरी यह है कि हमारे लिए विशेष राज्य की मांग सिर्फ आर्थिक अनुदान तक ही नहीं सिमटे, बल्कि एक आत्मनिर्भर झारखंड की नीतियों के निर्माण और सांस्कृतिक विकास की अवधारणा भी इससे जुड़े। तभी विशेष दर्जा मिलने पर हम संतुलन साध सकेंगे। झारखंड का इतिहास भी बताता है कि 1857 के बाद यहां जो भी आंदोलन हुए उनमें अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आवाज जितनी मुखर हुई, उससे कहीं ज्यादा मुखरित हुई यहां की जन-जातियों में व्याप्त कुरीतियां, अभाव, अशिक्षा, मद्यपान आदि समस्याओं से मुक्ति की आवाज। चाहे वह सरदार आंदोलन हो या खरवार आंदोलन, बिरसा आंदोलन हो या टाना भगत आंदोलन। ठेकेदारों, जागीरदारों, बिचौलियों के कुचक्र में फंसी व्यवस्था से मुक्ति की आवाज ही सुधारवादी या पुनरुत्थानवादी आंदोलन का मुख्य स्वर रहा है। अत: झारखंड के विशेष राज्य का आंदोलन सुधारवादी या पुनरुत्थानवादी आंदोलन का भी रूप अख्तियार करे तब ही प्रदेश का कायकल्प संभव है। 

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