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Wednesday 18 September 2013

काम जब बनता है आराम

प्रणव प्रियदर्शी
कुछ दिनों पहले चीन के फैशन डिजाइनर ने कहा था कि मेरे लिए अच्छा दिखना ही सबसे बड़ा आराम है। कुछ देर के लिए मुझे यह अटपटा-सा बयान लगा, लेकिन  दूसरे ही पल मुझे इस बयान में एक गहरे जीवन-दर्शन की अनुभूति हुई। अस्तित्व ने या जीवन की परिस्थितियों ने हमारे जिम्मे जो काम सौंपा है, अगर वह हमारे लिए आराम बन जाये तो जीवन एक अलग ही आयाम में प्रवेश कर जायेगा। किंतु ऐसा कैसे हो? हमारी मन:स्थिति तो इसतरह से किसी को काम को स्वीकारती ही नहीं है।
      किसी दफ्तर में कंधा झुकाये, सिर थामे, फाइल में आंख गराये किसी व्यक्ति से जाकर पूछें कि आप क्या कर रहे हैं? वह मुंह उचका कर, भौंहें सिकोड़ वितृष्णा से भर कर सीधा कहेगा-काम कर रहा हूं। घर में पति के लिए ऑफिस जाना काम है तो पत्नी के लिए खाना बनाना काम है। स्कूल में शिक्षक पढ़ाने का काम कर रहे हैं तो छात्र पढ़ने का काम काम कर रहे हैं। इस काम के चलते हर कोई एक भारी बोझ के नीचे दबा मालूम पड़ता है।  कोई यह नहीं कहता कि मेरे लिए काम करना ऐसे ही है, जैसे मैं कोई गीत गुनगुना रहा हूं। कभी किसी ने मुझसे कहा था - मैंने साज पर हाथ रख दिया है, धुन अपने-आप निकल रहा है।
     हम आखिर इस तरह की बात करें भी तो कैसे? क्योंकि हम सप्ताह में एक दिन की छुट्टी की आस में छह दिन किसी तरह गुजार लेते हैं। हकीकत यह है कि छुट्टी के दिन हम अन्य दिनों से ज्यादा काम करते हैं, फिर भी थकते नहीं। वजह यह होती है कि वह काम हमारे आराम और अभिरुचि का होता है। दूसरी बात यह होती है कि उस दिन हम निर्भार और तनाव मुक्त होते हैं।
     इन दो बातों पर अमल करें तो हमारे लिए भी काम आराम बन सकता है। पहला, वह हमारी अभिरुचि का हो और दूसरा, उसे हम तनाव मुक्त होकर करें। ऐसा काम ही धीरे-धीरे ध्यान बन जाता है। ध्यान तो आराम की चरमावस्था है। हमारा हर काम, आराम और ध्यान की अभिव्यक्ति बन सके, तब ही जीवन का सही अर्थ प्रकट होता है। 

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