प्रणव प्रयदर्शी
स्वामी विवेकानंद ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था कि सफल जीवन शब्द का सही आशय जानने का प्रयास करो। जब तुम जीवन के संबंध में सफल होने की बात करते हो तो इसका मतलब मात्र उन कार्यों में सफल होना नहीं है, जिसे पूरा करने का बीड़ा तुमने उठाया है। इसका अर्थ सभी आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति कर लेना भर नहीं है। इसका तात्पर्य सिर्फ नाम कमाना या पद प्राप्त करना या आधुनिक दिखने के लिए फैशनेबल तरीकों की नकल या अप-टू-डेट होना ही नहीं है। सच्ची सफलता का सार यह है कि तुम स्वयं को कैसा बनाते हो। यह जीवन का आचरण है, जिसे तुम विकसित करते हो। यह चरित्र है, जिसका तुम पोषण करते हो और जिस तरह के व्यक्ति तुम बनते हो, यह जीवन का मूल अर्थ है।
इस तरह के अनेक वैचारिक संदर्भों से विवेकानंद का साहित्य भरा-पड़ा है, जो युवा पीढ़ी को प्रेरणास्पद ऊर्जा प्रदान करता है। यह एक सुखद भविष्य की संतुलित अवधारणा ही है कि 12 जनवरी, विवेकानंद के जन्म दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है। इसी के साथ यह प्रश्न भी मुखर हो उठता है कि न्यू कंज्यूमरिज्म, इंटरनेट, फैशन, एमटीवी-वीटीवी और मॉडर्न फिल्मों के दौर में सुकून ढूंढ़ती युवा पीढ़ी, विवेकानंद की वैचारिक गहराई और उसकी उष्मा को समझ पाती है? क्या उसे आत्मसात करने के बारे में सोच पाती है?
आज का युवा इलेक्टॉनिक गैजेट्स, ब्लू टूथ, मोबाइल, एमपी थ्री और आइपॉड के जंजाल में उलझा हुआ है। महानगरों में कॉल सेंटर ने जिस कल्चर को जन्म दिया है और फॉयर, बॉम्बे ब्याइज, मानसून वेडिंग, मेट्रो जैसी फिल्मों ने जो संबंध गढ़े हैं, उसका प्रभाव युवाओं के भावों-अनुभावों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ये एक अलग अंग्रेजीदां, मॉडर्न और अल्ट्रा मॉडर्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पूरे भारत का कोई वास्ता नहीं। ऐसे में विवेकानंद के आदर्श और विचार इनके लिए कल्पनात्मक सगल के सिवा और कुछ नहीं है।
माडर्निटी में अपना आइडेंटिफिकेशन ढूंढ़नेवाले यूथ परंपरागत मूल्यों पर संदेह करना तो सीख गये हैं, लेकिन अपने संदेह को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए तत्पर नहीं दिखते। खोखले तर्क के सहारे युवा वर्ग जीवन को नाप डालना चाहता है। सच्चाई यह है कि वह जीवन के प्रति संदेह का भाव ही था, जिसने नरेंद्र को विवेकानंद और सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध बनाया। विडंबना यह है कि वैचारिक शून्यता से ग्रसित घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलते युवा वर्ग को जीवन की सफलता का अर्थ सिर्फ साधनों और सुविधाओं का उपभोग ही लगता है। उसे चरित्र, आचरण और जीवनानुभूति से क्या मतलब!
यह विचारहीनता का ही परिणाम है कि युवा शक्ति का एक बहुत बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक तनाव, दंगे, बाहरी-भीतरी विवाद, जातिवादी हिंसा, सड़क जाम, बंदी, रंगदारी, आतंकवाद, अलगाववादी हिंसा, संगठित अपराध, ड्रग्स, इव टीजिंग, मॉलेस्टेशन और फिकरेबाजी में लग जाता है। क्या विवेकानंद ने उतिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत का उदघोष इसी दिन के लिए किया था?
स्वामी विवेकानंद ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था कि सफल जीवन शब्द का सही आशय जानने का प्रयास करो। जब तुम जीवन के संबंध में सफल होने की बात करते हो तो इसका मतलब मात्र उन कार्यों में सफल होना नहीं है, जिसे पूरा करने का बीड़ा तुमने उठाया है। इसका अर्थ सभी आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति कर लेना भर नहीं है। इसका तात्पर्य सिर्फ नाम कमाना या पद प्राप्त करना या आधुनिक दिखने के लिए फैशनेबल तरीकों की नकल या अप-टू-डेट होना ही नहीं है। सच्ची सफलता का सार यह है कि तुम स्वयं को कैसा बनाते हो। यह जीवन का आचरण है, जिसे तुम विकसित करते हो। यह चरित्र है, जिसका तुम पोषण करते हो और जिस तरह के व्यक्ति तुम बनते हो, यह जीवन का मूल अर्थ है।
इस तरह के अनेक वैचारिक संदर्भों से विवेकानंद का साहित्य भरा-पड़ा है, जो युवा पीढ़ी को प्रेरणास्पद ऊर्जा प्रदान करता है। यह एक सुखद भविष्य की संतुलित अवधारणा ही है कि 12 जनवरी, विवेकानंद के जन्म दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है। इसी के साथ यह प्रश्न भी मुखर हो उठता है कि न्यू कंज्यूमरिज्म, इंटरनेट, फैशन, एमटीवी-वीटीवी और मॉडर्न फिल्मों के दौर में सुकून ढूंढ़ती युवा पीढ़ी, विवेकानंद की वैचारिक गहराई और उसकी उष्मा को समझ पाती है? क्या उसे आत्मसात करने के बारे में सोच पाती है?
आज का युवा इलेक्टॉनिक गैजेट्स, ब्लू टूथ, मोबाइल, एमपी थ्री और आइपॉड के जंजाल में उलझा हुआ है। महानगरों में कॉल सेंटर ने जिस कल्चर को जन्म दिया है और फॉयर, बॉम्बे ब्याइज, मानसून वेडिंग, मेट्रो जैसी फिल्मों ने जो संबंध गढ़े हैं, उसका प्रभाव युवाओं के भावों-अनुभावों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ये एक अलग अंग्रेजीदां, मॉडर्न और अल्ट्रा मॉडर्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पूरे भारत का कोई वास्ता नहीं। ऐसे में विवेकानंद के आदर्श और विचार इनके लिए कल्पनात्मक सगल के सिवा और कुछ नहीं है।
माडर्निटी में अपना आइडेंटिफिकेशन ढूंढ़नेवाले यूथ परंपरागत मूल्यों पर संदेह करना तो सीख गये हैं, लेकिन अपने संदेह को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए तत्पर नहीं दिखते। खोखले तर्क के सहारे युवा वर्ग जीवन को नाप डालना चाहता है। सच्चाई यह है कि वह जीवन के प्रति संदेह का भाव ही था, जिसने नरेंद्र को विवेकानंद और सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध बनाया। विडंबना यह है कि वैचारिक शून्यता से ग्रसित घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलते युवा वर्ग को जीवन की सफलता का अर्थ सिर्फ साधनों और सुविधाओं का उपभोग ही लगता है। उसे चरित्र, आचरण और जीवनानुभूति से क्या मतलब!
यह विचारहीनता का ही परिणाम है कि युवा शक्ति का एक बहुत बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक तनाव, दंगे, बाहरी-भीतरी विवाद, जातिवादी हिंसा, सड़क जाम, बंदी, रंगदारी, आतंकवाद, अलगाववादी हिंसा, संगठित अपराध, ड्रग्स, इव टीजिंग, मॉलेस्टेशन और फिकरेबाजी में लग जाता है। क्या विवेकानंद ने उतिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत का उदघोष इसी दिन के लिए किया था?
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